कवि गिरिराज किराडू की ये आरंभिक कविताएँ हैं. जब ‘बहुवचन’ के प्रवेशांक में ये प्रकाशित हुई थीं तो अपने खिच्चेपन से इन्होने ध्यान आकर्षित किया था. यह कवि सफल कविता के बने-बनाये मुहावरों में शब्द नहीं बिठाता अपना मुहावरा बनाने की बेचैनी इन कविताओं में साफ़ दिखाई देती है. एक गहरी प्रश्नाकुलता बने-बनाये शास्त्र को लेकर, उस परंपरा को लेकर जो संतुलन के नाटक के सहारे चलती रहती है. मैं अपनी बात करूं तो एक पाठक के तौर मुझे इन कविताओं ने गहरे प्रभावित किया था. अगर प्रकाशन के १० साल बाद भी इन कविताओं की याद आई तो ज़ाहिर है ये कविताएँ मन के किसी कोने में कहीं रह गई. वास्तव में अच्छी कविताएँ यही काम करती हैं, उनके शब्द मन के एकांत में कहीं गहरे बस जाते हैं, जब एकांत गहराने लगता है तब उनकी बोलती चुप्पी सुनाई दे जाती है. गिरिराज की कविताएँ किसी उजाले की तलाश नहीं करती न ही इनमें अंधेरे का संताप है. वे धुंधलके के कवि हैं. स्मृतियों की सघन ऐन्द्रिकता जिसके उजाले हैं, निरुत्तर करने वाले प्रश्नों से उपजा मौन जिसके अँधेरे. आइये कुछ न कहने के अंदाज़ में बहुत कुछ कहने वाली इन कविताओं के रूबरू होते हैं- जानकी पुल.
1
मेज़ इतनी पुरानी थी कि उसका कोई वर्तमान नहीं था
हमारे बच्चे इतने नये थे कि उनका कोई अतीत नहीं था
बच्चों का अतीत हमारे पाप में छुपा था
मेज़ का वर्तमान किसमें था?
मेज़ का चौथा पाया तीन पीढ़ियों से गायब है
इससे तीन कथाएँ निकलती हैं
एक में चौथा पाया चिता की लकडी बन जाता है
दूसरी में वो अपने किसी जुड़वाँ को ढूँढने पूजा के समय घर छोड़ देता है
तीसरी में वो हम सबकी सबसे पुरानी तस्वीर का फ्रेम बन जाता है
चौथी कथा भी तीन पीढ़ियों से गायब है
हम में से अधिकांश नहीं जानते वे चौथी कथा के पात्र हैं
चौथा पाया किसी अदृश्य स्क्रीन पर चौथी कथा रच रहा है
शेष तीनों पाये धीरे धीरे हिल रहे हैं
2
हमें कम ही मालूम होता था रात का अकेलापन
मुहावरे के अन्दर होता है या उसके बाहर. ओस से
शब्द भीगते हैं या दीवारें. सपने नींद के बेटे होते
हैं या अनाथ.
हम बचपन में एक बार रेगिस्तान में दौड़े थे
या खेतों में. हम एक दूसरे को छूते हैं या पाप को.
हमें कम ही मालूम होता था तुलसी की पत्तियाँ
पूजाघर में उगती हैं या दादी की हथेलियों पर.
हमारे एक दूसरे को छूने पर प्रभु प्रसन्न होते
हैं या दीये की लौ.
3
रात आदिकाव्य की तरह शुरू हो या आदिवृतांत
की तरह. चौपाई की तरह शुरू हो या मुक्त
वाक्य की तरह, उसमें अँधेरा रह जाना चाहिए.
बिना अँधेरे के कुछ भी नहीं किया जा सकता –
प्रेम या पाप.
बिना अँधेरे के चोर भी बेकार होते.
अँधेरे में ही दमका करता है तुम्हारा चेहरा.
भाषा के अँधेरे में सूराख करते हैं पानी और
रोशनी में डूबे अँधेरे पत्ते जिन पर लिखी कथाएँ
सरोवर के सीने पर दम साधे चलती हैं.
4
सबसे पुरानी तस्वीरों में या पुराने कवियों की कविताओं में
प्रार्थना में या प्रहसन में
हरेक युद्ध के पहले दिन में या परास्त योद्धाओं के कपड़ों में
नींद में या चूल्हे में
हमारी इच्छाओं का इतिहास किसमें था.
हमारे वृद्ध कहते थे जन्म कुंडलियों में –
हमारी नींद पर अपरिचित ग्रहों की जो छायाएँ पड़ती थीं
उससे हमारी कवितायें बनती बिगड़ती थीं.
वृद्ध आशंका की तरह काँपते थे जब वे
हमारी कुंडलियों में इच्छाओं का मार्ग ढूंढ लेते.
5.
कथावाचकों की कथाः एक
कथावाचकों की स्त्रियों की कथाएँ धर्मग्रंथों के बीच में तैरती थीं
उनके बचपन का देश कोई दूसरा होता था
जिसमें वे उसी नदी को तैर कर पार कर लेतीं जिसमें
उनका कोई युवा चाचा या प्रेमी
डूब कर मर चुका होता था
उनके प्रेम का शहर भी कोई दूसरा होता था
जिसमें वे छत पर घूमने वाली एक शहज़ादी की
पड़ौसिने हुआ करती थीं . उनके प्रेमी उनकी
अलबेली इच्छाओं के आगे लाचार रहते थे.
कथावाचकों की स्त्रियों की कथाएँ उनकी
कथाओं को ऐसे देखती थीं जैसे पृथ्वी पर
झुका कोई नक्षत्र. पृथ्वी को.
6.
कथावाचकों की कथाः दो
एक सिद्ध रात में सिंह हो जाया करता था
एक के कन्धों पर देवता बैठे रहते थे
एक के क्रोध से भयभीत राजा दौड़ा दौड़ा आता था –
कथावाचकों की आत्मकथाओं में वे स्वयं सबसे
कम हुआ करते थे. कुछ औरतें उनकी कथाओं के
किवाड़ के पीछे छिपी रहती थीं.
एक को सीढ़ियों में अँधेरा नहीं, वे स्वयं पकड़ लेते
एक के मुँह में नहीं, आईने में खून गिरने लगता
एक अपने घर में उनकी श्रीमद्भागवत सुनते हुए मर जाती.
(इन कविताओं का पुनर्प्रकाशन बीकानेर के कवि मित्रों अनिरूद्ध उमट, मालचंद तिवाड़ी, नंदकिशोर आचार्य, स्व. हरीश भादाणी, राजानंद भटनागर और बीकानेर में जन्मे उदयपुर के बाशिंदे पैदाईशी आवारा पीयूष दईया के लिये)