राजेश खन्ना के निधन के बाद मुझे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और दिलीप कुमार पर किताब लिखने वाले मेघनाद देसाई के इस लेख की याद आई जो उन्होंने राजेश खन्ना का मूल्यांकन करते हुए लिखा था. उस फिनोमिना का जिसने हिंदी सिनेमा का मुहावरा बदल दिया, अभिनेता के मायने बदल दिए. हिंदी अनुवाद में आपके लिए वह लेख- ‘kaka’s india’– जानकी पुल.
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काका का भारत
मेघनाद देसाई
राजेश खन्ना हमें उन कोमल-मासूम दिनों की याद दिलाते हैं जब हम सब जवान थे, प्यार में डूबे थे- यह एल्विस प्रिस्ले के बारे में कहा जाता था. उससे पहले कई बड़े गायक हुए- दिलों पर राज करने वाले हॉलीवुड के एक से एक स्टार. लेकिन एल्विस की बात ही कुछ और थी. उसके बाद कई गायक आए जिनका संगीत भी बेहतर था और यहां तक कि उनके रेकॉर्ड भी अधिक बिके, लेकिन जैसा कि वे कहते हैं, एल्विस जीवित है. आकाश में करोड़ों तारे हैं लेकिन उनमें से कुछ ही हैं, जिनको हम सचमुच पहचान पाते हैं. यह भाग्य की बात है, सही समय पर सही जगह होना, और फिर ऐसी जबर्दस्त प्रतिभा का होना कि आप लाखों-करोड़ों लोगों को मुदित कर सकें.
राजेश खाना यह सब कुछ थे. वे सुपरस्टार थे.
‘था’ नहीं ‘है’, क्योंकि किसी उल्का-पिंड की तरह, राजेश खन्ना हमारे जीवन में लौट आते हैं और उस दौर की यादें उमड़ने लगती हैं जब हम सब जवान थे और कुछ अधिक मासूम भी. उनके स्वास्थ्य की खबर और उनके अस्पताल में भर्ती होने की बात ने उस दौर की यादें ताजा कर दीं जब सारा देश इस आदमी का दीवाना था. सिनेमा नौजवानों का माध्यम है. हर दौर में यही युवा मण्डली उसे चलाती है- उस उम्र की मंडली जो किशोरावस्था, जब आप अपने जुनून के पीछे जा सकते हैं बचपन के ठीक बाद की उम्र में, से लेकर उस उम्र तक के लोग जिनको घर-बार की चिंताएं इतना समय ही नहीं देती कि वे सपने देख सकें. यही पीढ़ी फैशन और मनोरंजन को अपनाती है उनके फैन बनाती है.
हर पीढ़ी यह तय करती है कि उसका स्टार कौन होगा. १९१५-१९३० के बीच पैदा हुए लोगों के लिए वह सितारा अशोक कुमार था तो दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद की मशहूर तिकड़ी १९३०-१९४५ के बीच पैदा हुए लोगों के लिए स्टार थे. १९४५-५५ के बीच पैदा हुए लोगों के जीवन को राजेश खन्ना ने निर्धारित किया, क्योंकि वह उनका समकालीन था और उसने उनको इस तरह से परिभाषित किया जैसा कि हर दौर का नायक करता है.
साठ के दशक में भारत बदल रहा था. पचास के दशक में दिलीप, देव और राज की तिकड़ी, और नर्गिस, मधुबाला और मीना कुमारी, जो बेहद लोकप्रिय थे, लेकिन उनको सुपरस्टार का दर्जा नहीं मिला. यह हमारी गलती थी, हम जो कि उनके फैन थे. हम बड़े मर्यादित थे. हम उनके ऑटोग्राफ बेहद सावधानी से लेते, उनके पास कुछ आदर, कुछ-कुछ डर के साथ जाते. लेकिन अगली पीढ़ी को ऐसा कोई संशय, कोई संदेह नहीं था. वे शम्मी कपूर के याहू वाले दौर से गुजर चुके थे और बोल्डनेस जैसे उनकी पहचान बन चुकी थी. वे जिसको चाहते थे उनके ऊपर सब कुछ लुटाने को तैयार रहते थे और उनके पास पचास के दशक के फैन्स से काफी कुछ अधिक था क्योंकि भारत समृद्ध हो रहा था, एक शताब्दी के ठहराव के बाद देश का विकास हो रहा था. राजेश खन्ना वह आदमी था जिसके लिए वे धक्का-मुक्की करते थे, टेसुए बहाते थे. हालांकि पुरानी तिकड़ी अभी भी चमक रही थी- हालांकि मेरा नाम जोकर के बाद राज कपूर की चमक कुछ फीकी पड़ गई थी- लेकिन पन्द्रह लगातार सुपरहिट फिल्मों ने राजेश खन्ना के लिए दीवानगी ने पिछले सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए. जैसा कि उनके साथ करीब आधा दर्जन हिट फिल्मों में हीरोइन रही मुमताज ने याद किया, मद्रास में वे जिस होटल में ठहरे थे उसके बाहर सैकड़ों लड़कियां खड़ी रहती थीं और जब तक वे उसका ऑटोग्राफ नहीं ले लेती उनको अंदर नहीं जाने देती थीं. ये लड़कियां अपनी बड़ी बहनों की तरह लिपस्टिक लगाती थीं, और उनकी गाड़ी पर उसके निशान छोड़ देती थीं, और यहां तक कि अपनी गाड़ियों पर भी उसका नाम लिखकर उसके ऊपर लिपस्टिक के निशान बनाती थीं, अपने प्यार की घोषणा करती हुई. महिलाएं उसकी तस्वीर से शादी कर लेती थीं, इसमें कोई शक नहीं कि यह सपना देखती हुई कि एक दिन उनका राजकुमार उनको सुपरस्टार का चुम्बन देगा.
उनकी सफलता अचानक मिली सफलता थी. दिलीप-राज-देव की तिकड़ी के बाद राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार या धर्मेन्द्र को उनकी जगह पर होना चहिये था. लेकिन वे स्टार थे, जबकि यहां एक सुपरस्टार था, यह एक ऐसी घटना थी जो इससे पहले हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नहीं हुई थी. वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के स्टार बने. ‘बॉलीवुड’ शब्द तो तीस साल बाद बना. लेकिन यहां एक ऐसा सुपरस्टार था जिसके ऊपर बीबीसी ने डॉक्युमेंट्री बनाई.
मैंने उसे पहली बार १९७४ में लंदन में देखा था. मैंने उनकी फिल्मों आराधना, आनंद और हाथी मेरे साथी को याद किया और कई हिट देने के उनके रेकॉर्ड को. उसमें बताया गया था कि उनके फैन्स में उनको लेकर किस तरह की दीवानगी थी. पहली बार बॉम्बे सिनेमा की किसी हस्ती पर बीबीसी या किसी अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनल ने फिल्म बनाई थी, सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय आप्रवासियों की बढ़ती संख्या पश्चिम में टीवी प्रोग्राम्स देखती थी, बल्कि राजेश खन्ना नए भारत के पहले मेगास्टार थे.
क्या बीबीसी की डॉक्युमेंट्री से परेशानी हुई? यह नजर लग गई वाला मामला था क्या? यह एक व्याख्या हो सकती थी क्योंकि उसके ठीक बाद उनके कैरियर में टर्निंग पॉइंट आया. अचानक, उनका दौर बीत-सा गया. हिट फिल्मों के लाले पड़ने लगे जबकि कहानियों के मामले में उनमें अब भी कुछ बात होती थी. आनंद फिल्म में उनके सह-अभिनेता अमिताभ बच्चन उस दशक का मुहावरा बन गए और अगले तीस सालों तक बने रहे- आज भी चमक रहे हैं.
लेकिन राजेश खन्ना हमें कोमल-मासूम दिनों की याद दिलाते हैं. वह एक ऐसा दौर था जब देश के दिल में उमंगें थीं और भविष्य की उम्मीदें थीं. नौजवान लड़के-लड़कियों में अपने सपनों की दुनिया में खोने की अधिक आजादी थी. राजेश खन्ना उस भारत के लिए उल्लास लेकर आए जो अपने आप में विश्वास रखता था, जो यह जानता था कि बेहतर की सम्भावना अब भी है, जैसा कि आनंद में उनके चरित्र में दिखाया गया है.
वे बदलाव की पीढ़ी के प्रतीक थे. किशोर कुमार पचास के दशक के लोगों के लिए कुछ खास मायने नहीं रखते थे लेकिन राजेश खन्ना के साथ उन्होंने नई ऊंचाइयों को छुआ. पंचम और सलीम-जावेद जिन्होंने सत्तर के दशक के सिनेमा को बदल दिया, उनके साथ खड़े थे. उनके साथ जुड़कर सभी हिट रहे, चाहे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल हों या हृषिकेश मुखर्जी. उनका असर जादुई था.
अब शायद, भारत पहले से अधिक अमीर हो चुका है, नई पीढ़ी तकनीकों से लैस है, शायद यह बेहतर हो कि हम अपने जीवन में काका को वापस लायें यह याद दिलाने के लिए कि हम तब कुछ बेहतर थे. राजेश खन्ना, अभिनेता, निर्माता, टीवी और फिल्म स्टार, एमपी और भी बहुत कुछ, को हमारे जीवन में वापस लौटना चाहिए. काफी समय हो चुका है. आ अब लौट चलें.
मूल अंग्रेजी से अनुवाद- प्रभात रंजन
इंडियन एक्सप्रेस से साभार
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