आज से दिल्ली के इण्डिया हैबिटेट सेंटर में भारतीय भाषाओं के साहित्योत्सव ‘समन्वय’ की शुरुआत हुई. इस बार इसमें अन्य लेखकों के अलावा हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका अलका सरावगी भी मौजूद रहेंगी. अलका सरावगी कहीं किसी कार्यक्रम में कम ही दिखाई देती हैं. अपने पहले ही उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ पर साहित्य अकादेमी पाने वाली इस लेखिका से एक बातचीत की कवयित्री आभा बोधिसत्व ने- जानकी पुल.
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कलि कथा वाया बाईपास लिखने की योजना कैसे बनी और कितने दिनों में लिखा गया ?
कलिकथा वाया बाईपास की शुरुआत कहानी के तौर पर ही हुई थी- एक हार्ट बाईपास के पेशेंट से मिलकर लौटी तो शीर्षक लगाकर कहानी लिखनी शुरु की- बीच वाला कमरा कहां है? इस मरीज के साथ सचमुच यह घटना घटी थी कि उसके सिर के पिछले हिस्से में चोट लगी थी और उसने अपनी पत्नी के पूछने पर कि बीच वाले कमरे में चाय लेंगे क्या, कहा था- बीच वाला कमरा कहां है. पर कहानी को आगे बढ़ाने के पहले यह जरूरी था कि जाना जाए कि २१ साल पहले की जिंदगी कैसी थी जब दो ही कमरे थे- एक छोटा और एक बड़ा. तब शुरु हुई करीब ९ महीने की रिसर्च. बहुत सारे लोगों से मुलाकात, बहुत सारी किताबों और डायरी का अध्ययन किया. लिखने में लगभग चार महीने लगे. जबकि दिन-रात लिखा गया…
पहले ही उपन्यास पर देश का सबसे बड़ा सम्मान साहित्य अकादेमी पाना आपके आगे के लेखन के लिए चुनौती बन गया है ?
ऐसा यदि होता तो मैं और-और उपन्यास नहीं लिख पाती. हाँ, यह जरूर है कि कलिकथा एक benchmark है जिससे कमतर लिखने का मन नहीं होता.
सवाल- शेष कादम्बरी की तुलना जब कलिकथा से की जाती है तो कैसा लगता है?
अलका सरावगी- मुझे नहीं पता कि ऐसी तुलना की जाती है. नामवर जी ने कहा था कि शेष कादम्बरी कलिकथा के आगे का उपन्यास है. वैसे भी साहित्य अकादेमी पुरस्कार शेष कादंबरी के छापने के बाद दिया गया था.
इन दिनों क्या लिख रही हैं?
शेष कादम्बरी के बाद मेरे दो उपन्यास प्रकाशित हुए- कोई बात नहीं और ‘एक ब्रेक के बाद’. अभी पांचवां उपन्यास लिख रही हूं.
आपके पहले कहानी संकलन कहानी की तलाश में की चर्चा न के बराबर हुई, क्या इस कारण अब कहानियाँ नहीं लिखतीं?
कलिकथा के बाद मैंने मुश्किल से एक-आध कहानी लिखी है. कारण यह था कि उपन्यास लिखना समुद्र में तैरने जैसा है. उसके बाद तालाब में तैरना ज्यादा मजेदार नहीं लगता.
हिंदी में स्त्री लेखन और चिंतन को लेकर आप क्या सोचती हैं?
मैं इस बारे में कुछ नहीं सोचती क्योंकि मेरे लिए स्त्री लेखन-चिंतन पुरुष चिंतन-लेखन जैसा कोई भेद मायने नहीं रखता. फिर भी कहना चाहूंगी कि स्त्री को महज विरोध या विद्रोह का स्वर अपनाने के बजाय समग्र दृष्टिकोण से साहित्य सृजन करना चाहिए.
सलमान रुश्दी से जब आपकी तुलना की जाती है तो कैसा लगता है?
मुझे नहीं मालूम की ऐसी कोई तुलना की जा रही है. मेरी कथा एक निहायत देशी कथा है जो मातृभाषा में अपने जैसे पाठकों के लिए लिखी गई है. रचना कई बार अपने लेखन का अतिक्रमण कर बहुत फैलाव पा लेती है. लेखक इससे बहुत आनंद का अनुभव करता है. शायद सलमान रुश्दी का भी यही अनुभव रहा है.