अनामिका और पवन करण की कविताओं पर चली बहस में आज युवा लेखिका विपिन चौधरी की टिप्पणी- जानकी पुल.
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विश्व स्तर पर जिस बीमारी से १०.९ मिलियन महिलाएं जूझ रही हों उसी बीमारी और उस अंग विशेष को लेकर लिखी गयी कविताओं से परिणामस्वरूप सामने आई प्रतिक्रियों से एक नए बहस शुरू होने के क्या परिणाम निकलेंगे अभी यह स्पष्ट नहीं हैं. स्पष्ट है तो सिर्फ यह कि इस बहस में शामिल होते हुए हमें इस सच के भीतर से गुज़रना होगा कि आज हमारे देश में हर २२ माहिलाओं में से एक महिला स्तन कैंसर से पीड़ित हैं और २०१५ में उनकी संख्या दुगनी होने की सम्भावनाये जताई जा रही है. स्तन कैंसर से जूझती महिला किस स्तिथियों से गुज़रती होगी यह हम महिलाएं सहज ही अनुमान लगा सकती है . शुरूआती तौर पर एक गांठ के रूप में उभरती इस बीमारी में दुग्ध आपूर्ति करने वाली नलिकाओं की भीतरी परत में ट्यूमर फ़ैल जाता है. शुरुआती देखरेख होने पर ट्यूमर तो सर्जरी द्वारा निकाल दिया जाता है पर सामाजिक धारणाओं के चलते जिस स्तर पर पीड़ित महिला को दारुण मानसिक उतार -चढाव से गुज़ारना पड़ता है वह बीमारी के समकक्ष विकराल समस्या है.
प्रकृति की असीम सुन्दरता के बाद जो चीज़ सबसे ज्यादा लुभाने वाली मानी गयी वह है स्त्री . इसी स्त्री-शरीर को केंद्र में रख कर संसार भर की स्त्री सम्बन्धी रचनायें अस्तितिव में आई हैं. प्रगतिशील यथार्थवाद के ज़ोर पकड़ने ने बाद और फिर आधुनिक समाज की जीवन-शैली ने खुद स्त्री की चिंतन की दिशा को अलग आयाम दिए. स्त्री अपने अंदरुनी दबावों और उनके बाहरी असर पर सोचने लगी और उसको खुले तौर पर परिभाषित भी करने लगी.विश्व साहित्य में जहाँ पाब्लो नेरुदा ने ‘बॉडी ओफ वोमेन नामक कविता लिखी वही हमारे रीतिकालीन कवियों ने स्त्री को श्रृंगार की पुड़ियाँ बना कर पेश किया. अमेरिका की कवयित्री एनी सेक्सटों ने १९६०-७० में ‘माहवारी‘ और‘ रजोनिवृति‘ पर कविता लिखी. उस वक़्त हमारे देश की महिला रचनाकार अपने आप से और अपने समाज से अलग मुद्दों कर जूझ रही थी.
वर्तमान दौर में महिला सशक्तिकरण के इसी सिलसिले की एक नयी कड़ी के तौर पर समकालीन कविता के शीर्षस्थ मुकाम पर खड़ी कवयित्री अनामिका की नयी ” ब्रेस्ट कैंसर” को लिया जा सकता है. यहाँ हमे यह भी याद रखना चाहिये की स्त्री के वक्ष स्थल की इसी बीमारी के अंतर्गत खुद की जाँच पड़ताल के लिये स्वास्थ्य सम्बन्धी विज्ञापनों में स्त्री देह को सामने लाया जाता है तब इसे बुरा नहीं माना जाता तो फिर ‘ब्रेस्ट कैंसर‘ पर लिखी गयी कविता को लेकर क्यों धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. एक संवेदनशील और वरिष्ठ महिला कवयित्री के तौर में अनामिका खुद अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी से बखूबी परिचित हैं.
उनकी और पवन करण की कविता “स्तन ” को लेकर जो प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हुआ उससे निश्चित ही स्त्री-शरीर की गरिमा के आधारभूत पहलू एक बार फिर से सामने आ सकेंगे . अनामिका की कविता ‘ ब्रेस्ट-कैंसर‘ में एक गंभीर बीमारी से जूझती हुई स्त्री की जिजीविषा ही परिलक्षित होती है उससे जायदा कुछ नहीं. उसी अद्भुत आत्मबल के बल पर खुद भुगत भोगी महिला के रूप में अपनी घातक बीमारी से बातचीत करती है. लेकिन न जाने क्यों इस कविता में कई विद्वान लोगों को अश्लीलता नज़र आयी. हर मनुष्य के पास चीज़ों को देखने-समझने का अपना अलग नजरिया है उसी नज़रिये को लेकर शालिनी माथुर और दुसरे कई रचनाकारों को इस कविता में कई छिद्र दिखाई पड़े, उन्हे अनामिका के कविता में कुछ अनर्थ नज़र आया और न जाने क्यों वे इन कविताओं से साहित्य में कूड़ा फ़ैलाने के संज्ञा दे कर चिंतित हो रहे हैं.
जब कोई स्त्री अपने शरीर को लेकर बेबाक अभिव्यक्ति के साथ सामने आती है तो उसके साथ जूडी दूसरी मानवीय भावनाओं को परे कर सिर्फ स्थूल शरीर पर बात आ टिकती हैं. इन अभिवय्क्तियों में कुछ भावनाएं, संवेदना के स्तर पर इतनी सूक्षम होती है कि हर किसी के पकड़ में नहीं आ सकती उनके हाथ सिर्फ उपरी तौर की चीज़े ही लगती हैं जिन्हें ले कर महज़ हो हल्ला ही मचाया जा सकता है और सदियों से स्त्री के इस वर्जित प्रदेश के बारे में इतनी साफगोई पहले- पहल एक नयी बहस का विषय बनती ही आयी है क्योंकि आज तक एक महिला का शरीर भृत्यभाव और किसी भी सामाजिक ज़ुल्म का शिकार बन, एक जड़ चीज़ का प्रतिनिधित्व ही करता नज़र आता है.
यह इस आधुनिकता का परचम लहराती आधुनिक सदी में ही संभव हो सका है कि महिलाएं अपने जीवन के दुख, दुख और निराशा के चिर परिचित मैदान से बहार आ कर बड़ी सूझ-बूझ से अपने शरीर पर लिखने उसे चित्रित और प्रदर्शित करने जैसे बीहड़ इलाके में कदम रख रही हैं. अपने शरीर और उससे जुडी समस्याओं के हल खोजती स्त्री के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहे है और इसी के परिणाम स्वरुप आज की कवयित्री की लेखनी से “ब्रेस्ट कैंसर” जैसी कविता लिखी जा रही हैं .‘स्तन‘ को लेकर यह जागरूक अभिवयक्ति उस अभिवयक्ति से आगे का कदम है जिससे कृष्णा सोबती ने १९९९ में “मित्रो मरजानी” में पाठकों को परिचय करवाया. आज तक एक महिला अपने शरीर को इतना दबा-छिपा कर रखती थी उसके बारे में बात करना बड़ी बुरी बात माना जाता रहा है और आज की स्त्री इतनी निर्भीक हो चली है कि अपने शरीर के गंभीर रोग से ही वार्तालाप करती है.
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!
निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी,
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-पफुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,
कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,
अंग-संग मेरे लगे ऐसे,
दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ, पफूटे!
अनामिका की इसी उपरोक्त कविता से ही हिंदी साहित्य को कैंसर लगने की चिंता जताई जा रही है.
जिससे यही दिखता है की समाज के देखने, परखने और समझने का नजरिया वही सदियों पुराना है. आज जब एक महिला इस पुरुष सत्तात्मक समाज में बेबाक अभिव्यक्ति का साहस जुटाती हैं तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने जैसी स्तिथि से उसे सामना करना पड़ता है.
जिस तरह लिखने का एक अदब होता है उसी तरह से उसे पढने का भी. जिस सदाशयता से एक कवि, कविता लिखता है उसी सदाशयता का पाठक निर्वाह नहीं कर पाते, उनके मस्तिक्ष पर हमेशा सिंग निकलते दिखते हैं.
शरीर की अपनी गरिमा होती है और उस गरिमा का निर्वाह करते हुए ही अनामिका ने इस कविता को लिखा है. जरूरी नहीं की गंभीर विषय पर आंसू बहाने वाली कविता लिखी जाए. उस बीमारी को हम अपनी आत्मबल से एक छोटी व्याधि माने जिसे हमें खुद के आत्मबल पर ही विजय पानी है. लेकिन इस कविता को पोर्नोग्राफी से जोड़ा जा कर देखा जा रहा है मेरी समझ से परे की बात है यह.
रही बात पवन करण कविता “स्तन” की तो उन पर पुरुष नजरिये को इस कविता में उतार देने की बात कही जा रही है. पुरुष कवि अपने पूरे अंतर्मन के शरीर के इस हिस्से से जुडे आह्लाद को खुल कर सामने रख रहा है पर इस कोशिश में वह लड़खड़ा गया है. जिस गरिमा की जरुरत स्त्री-पुरुष के रिश्ते में जुडे इस निजी बाहव की होनी चाहिये उस में कमी से पूरी कविता के तार ढीले हो गए हैं. उनकी इस कविता को पढने के बाद जरूर यह प्रश्न उठाया जा सकता है और स्त्री की गरिमा को इस हद तक एक पुरुष द्वारा सार्वजानिक और स्थूल वस्तु बना देने पर मामला ठीक नहीं बैठता. हमारे मन के भीतरी घटकों को आपत्ति हो सकती है पर हमें मानना ही होगा यह एक पुरुष का पक्ष है और पूरा सौ प्रतिशत भी. उनकी कविता ” स्तन” यकीनन यौन झुकाव को प्रथम द्रष्टि से परिलक्षित करती है जिस पर आपत्ति की जानी चाहिये और ख़ास तौर पर इन दो आखिरी पंक्तियों से
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उन के बीच से
इन पंक्तियों में शरीर के अंग विशेष के न रहने पर पहले सी निर्मल और मधुर संवेदनाओं का समाप्त हो जाना निश्चय ही हमारे समाज की भोथरी होती जा रही संवेदना के खात्मे की ओर इशारा कर रहा है जो समूची मानवीयता के लिये घातक सिद्ध होने से हमें ही बचाना होगा.