प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार विमल की मित्र ने गुरुदत्त पर एक पुस्तक लिखी थी. हाल में ही उसका हिंदी अनुवाद छपकर आया है- ‘बिछड़े सभी बारी बारी’. ‘साहब बीबी और गुलाम’ के लेखक विमल मित्र ने गुरुदत्त को बेहद करीब से देखा-जाना था- इसकी जानकारी इसी पुस्तक से हुई- जानकी पुल.
गुरुदत्त का विमल मित्र का रिश्ता अधिक दिनों का तो नहीं था लेकिन गुरुदत्त के जीवन के आखिरी चार-पांच सालों के दौरान दोनों का बेहद गहरा सम्बन्ध रहा. जब गुरुदत्त ने ‘साहब बीबी और गुलाम’ उपन्यास पर जब फिल्म बनाने का फैसला किया तो उन्होंने विमल मित्र को कोलकाता से मुंबई बुलवाया. मुंबई में ही विमल मित्र ने अगले डेढ़ महीने रहकर फिल्म की कथा तैयार की, बाद में अबरार अलवी ने जिसका हिन्दीकरण और फिल्मीकरण किया. जो बाद में एक यादगार फिल्म के रूप में सामने आई. बहरहाल, इसी दौरान विमल मित्र ने गुरुदत्त को, उनके जीवन को बेहद करीब से देखा. उनकी पत्नी गीता दत्त को जाना. उनके संबंधों की दुनिया देखी, रिश्तों का तनाव देखा. गुरुदत्त के रूप में एक ऐसे बेचैन कलाकार को देखा जो रात-रात भर व्हिस्की के गिलास और सिगरेट के धुओं के सहारे जगा रहता था और सुबह को तैयार होकर अपने स्टूडियो के दफ्तर चला जाता था. वहां अपने छोटे-से मेकअप रूम में बंद होकर सो जाता था.
इस पुस्तक में अधिकतर उन्हीं दिनों के अनुभवों की दास्तान है जिन दिनों वे गुरुदत्त के खास मेहमान थे और उनके लोनावाला वाले बंगले में रहकर ७०२ पेज के उपन्यास को दो-ढाई घंटे की फिल्म में रूपांतरित कर रहे थे. लेखक ने गुरुदत्त के बारे में लिखा है कि लेखक का इतना सम्मान करनेवाला मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में दूसरा कोई नहीं था. इसी कारण दोनों के बीच अंतरंगता विकसित हुई. दोनों ने काफी समय एक-दूसरे के साथ बिताया. इससे एक तो उनको गुरुदत्त के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं को जानने-समझने का अवसर मिला. उस गुरुदत्त को जो अक्सर लुंगी-कुर्ते में ही गाड़ी चलाते हुए लंबी ड्राइव पर निकल पड़ता था. जो गंजी-हाफ पैंट पहनकर अपने फार्म में ट्रेक्टर चलने लगता था और मौज में आने पर घर के खिड़की-दरवाज़े भी पेंट करने लगता था. जो सोने के सारे जतन करके हार चुका था मगर उसे नींद नहीं आती थी. वह सच्चे मायने में कलाकार था, सो भी इतना मूडी कि कब क्या करने लगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता था. विमल मित्र ने लिखा है कि एक बार उन्होंने बांग्ला फिल्म बनाने का निश्चय किया. गीता दत्त उसमें हिरोइन थी. सात रील बनाने और एक लाख लगाने के बाद उन्होंने केवल इसलिए फिल्म को डिब्बे में बंद कर दिया क्योंकि गीता दत्त सेट पर भी गुरुदत्त की पत्नी बनी रहती थी जबकि गुरुदत्त यह चाहते थे कि सेट पर वह केवल फिल्म की नायिका बनकर उनके आदेशों का पालन करे. जब गीता पत्नी ही बनी रही तो उन्होंने शूटिंग बीच में छोड़ दिया. हालांकि लेखक ने लिखा है कि उनको गीता दत्त ने बताया था कि गुरुदत्त ने फिल्म इसलिए रोक दी थी कि क्योंकि वहीदा रहमान नहीं चाहती थी कि फिल्म बने.
गीता दत्त और गुरुदत्त के सम्बन्ध शादी के छह साल बाद से ही तनावपूर्ण रहने लगे थे. सौभाग्यवश, इसको लेकर विमल मित्र से गीता और गुरुदत्त दोनों ने ही बात की थी. उन बातों के हवाले से लेखक ने उन दोनों के संबंधों को अनेक कोणों से देखने का प्रयास किया है. विमल मित्र को गीता दत्त ने इसका कारण वहीदा रहमान को बताया था, जिसके साथ गुरुदत्त के संबंधों को लेकर उन दिनों अखबारों के गॉसिप स्तंभ भरे रहते थे. तनाव का एक कारण शायद यह भी था कि विवाह के बाद गुरुदत्त ने गीता दत्त को गाना गाना छोड़ देने के लिए कहा था. क्योंकि वे चाहते थे कि वह अब उनकी गृहस्थी चलाये. जबकि गीता दत्त के लिए यह पीड़ादायक था. उनके घर में इसी का तनाव छाया रहता था. लेखक के सामने ही गीता दत्त दो बार घर छोड़कर चली गई थी और एक बार उन्होंने अपनी कलाई की नसें काटने की कोशिश की थी. खुद गुरुदत्त ने तीन-तीन बार आत्महत्या करने की कोशिश की थी. लेखक से गीता दत्त ने कहा था कि असल में ‘साहब बीबी और गुलाम’ उनके अपने ही जीवन की कहानी है.
यह किताब विस्तार से गुरुदत्त के जीवन की कहानी नहीं कहती बल्कि उनके जीवन के आखिरी चार-पांच बरसों की घटनाओं के आधार पर उनको समझने का प्रयास करती है. इस बात को कि उनके जीवन में तनाव के आखिर क्या कारण थे. शिखर पर पहुँचने के बाद भी वे किस कदर अकेले थे. तमाम दोस्त थे, संगी-साथी थे लेकिन असली गुरुदत्त को कोई नहीं समझता था. वह एक ऐसा कलाकार था जो अपनी कला से किसी प्रकार का समझौता नहीं नहीं करना चाहता था. विमल मित्र ने एक घटना का उल्लेख किया है. जब ‘साहब बीबी और गुलाम’ फिल्म बन गई तो उन्होंने उसका प्रदर्शन फिल्मवालों के लिए किया. बाद में वे के. आसिफ के घर यह पूछने गए कि उनको फिल्म कैसी लगी. आसिफ ने कहा कि अगर फिल्म का अंत सुखान्त होता तो कुछ पैसे कमाकर भी दे जाती. के. आसिफ का वे वैसे तो बहुत सम्मान करते थे लेकिन उन्होंने उनके उस सुझाव को नहीं माना क्योंकि वे उपन्यास की मूल कथा से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं करना चाहते थे. खैर, फिल्म उस अंत के साथ भी पसंद की गई.
बहरहाल, विमल मित्र को बाद में वे किसी न किसी कारण से अकसर मुंबई बुलाने लगे थे और उनसे फिल्म की कहानियों के साथ अपने जीवन की पीडाओं को भी साझा करने लगे थे. लेखक ने अच्छी तरह इस बात को दिखाया है कि किस तरह गुरुदत्त की हँसती-खेलती जिंदगी ट्रेजेडी में बदलती जा रही. यही इस किताब का महत्व है. इसमें उनके सिनेमा को नहीं उनके जीवन को समझने का प्रयास किया गया है. जो बेहद दिलचस्प है.
पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.