युगान्तकारी लेखक जयशंकर प्रसाद और उनके युग को आधार बनाकर श्यामबिहारी श्यामल ने उपन्यास लिखा है, जिसमें बनारस का वह युग जीवंत रूप से उपस्थित दिखाई देता है जब वहां प्रसाद थे, रामचंद्र शुक्ल थे, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र थे, प्रेमचंद थे और बनारसी बतकही की मस्ती थी. प्रस्तुत है उसी उपन्यास का एक छोटा-सा अंश- जानकी पुल.
रायकृष्ण दास लम्बी अनुपस्थिति के बाद मसूरी से काशी लौटे। शाम में नारियल बाजार आये तो जयशंकर प्रसाद खिल उठे। दोनों गले मिले। दास उन्हे एकटक ताकते रहे। प्रसाद मुस्कुराये, ‘मित्र, तुम तो ऐसे गायब हो गये थे जैसे पिछले दिनों मेरे जीवन से सुख-शांति और चैन! इस दौरान मैं कितने-कितने झंझावातों से गुजरा, कितनी त्रासदियों का शिकार बना, यह सब मैं ही जानता हूं… इधर मेरी दैनंदिनी जब पटरी पर लौट गयी तभी तुम प्रकट हो रहे हो… क्या तुम केवल सुख के साथी हो?’
दास कुछ बोलते इससे पहले पीछे से आचार्य केशव प्रसाद मिश्र की वाणी हवा पर तैरने लगी, ‘प्रसाद जी, आपका दृष्टिकोण ऐसा प्रकट होगा तब तो बहुत अनिष्ट हो जायेगा… क्या आप भी अब अंधविश्वास का शिकार होने लगे? दास जी आपके सुख ही नहीं दुःखों के भी विरल सहभागी हैं, आखिर यह आपके सखा जो हैं… अनन्य !’
प्रसाद पीछे मुड़े। दास भी सामने ताकने लगे। अभिवादनी मुस्कान के साथ हाथ जोड़े हुए आचार्य मिश्र समीप आ गये, ‘ऐसा भी तो हो सकता है कि यह आपके लिए सुख-शांति और चैन की ही प्रतीक-प्रतिमा हों… जब तक वे काशी में रहते हैं आपका भला ही भला होता चलता है लेकिन ज्योंही कहीं खिसके आपकी परेशानी शुरू…’
दास खिल उठे। प्रसाद हंसे, ‘पण्डित जी, आप तो सब जानते हैं! यहां हुआ तो ऐसी ही कुछ है… वैसे मैंने अभी यों ही कुछ कह दिया… इसे मैं मानूंगा संयोग ही…’
आचार्य मिश्र निकट आ गये, ‘मैं भी सब समझता हुआ यों ही आदतन बीच में टपक पड़ा हूं… आपलोग क्षमा करें.. मुझे अंदाजा है, दास जी आपके हृदय-तंत्र हैं, उनके पास होने भर से आपका सब कुछ जीवंत रहता है… मन भी और अनुभूति-स्रोत भी..’
प्रसाद ने लपककर उनके दोनों हाथों को ससम्मान थाम लिया। आचार्य मिश्र अब दास की ओर उन्मुख हुए, ‘कृष्ण जी, सचमुच आपकी कमी यहां हम सबको अखरती रही… आपके होने मात्र से प्रसाद जी को बहुत मानसिक बल मिलता रहता है… अभी जब लगातार कई महीने आप काशी से बाहर रहे, प्रसाद जी को अपने जीवन के एक ऐसे त्रासद दौर से गुजरना पड़ा जिसे देखकर हमलोगों का कलेजा तक दहल कर रह गया… पत्नी सरस्वती देवी का प्रसूति-रोग से निधन और इसके कुछ ही देर बाद नवजात पुत्र भी चल बसा… इसके बाद तो इनका जैसे जीवन से ही नेह-मोह टूट गया… आप तो समझ ही रहे हैं, दो साल के भीतर दूसरी बार इन पर पत्नी-शोक का यह आघात हुआ था… इनका धैर्य-संतुलन पूरी तरह डगमगा गया …इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और चुपचाप निकल पड़े, संन्यासी हो गये… एकदम लापता… लेकिन प्रणम्य हैं भाभीश्री लखरानी देवी… उनका साहस-बल अद्भुत साबित हुआ… उनकी स्नेह-शक्ति ने लगभग असम्भव को सर्वथा सम्भव बना दिया… उन्होंने प्रसाद जी जैसे हिमालय को ढह-बिखर और विलीन हो चुकने के बाद कण-कण बीनकर दुबारा पूर्व-रूप में खड़ा कर दिया! इन्होंने दूसरी पत्नी व नवजात के निधन के बाद कहां गृहस्थ-जीवन को ही नकार दिया था किंतु भाभीश्री ने अन्तर्धान हो चुके इन महाशय को संसार खंगालकर खोज निकाला… इन्हें अष्टभुजी पर्वत से वापस बुलवाया… बड़ी कुशलता से न केवल इनका जटिल संन्यास-हठ भंग करवाया बल्कि इनकी इच्छा के विरुद्ध तीसरी शादी भी रचवा डाली! इस दौरान इनकी क्या दशा होती रही, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं… ऐसे में इन्हें आपकी कैसी प्रबल आवश्यकता महसूस होती रही होगी, यह हमलोग भी भली-भांति समझ रहे हैं… यह सच है कि इन्हें आपसे जो मानसिक सम्बल मिल सकता है, वह किसी भी दूसरे व्यक्ति से सम्भव ही नहीं…’
सिर नीचे किये प्रसाद भाव-मग्न। अपने दारुण व्यतीत से उलझते-सुलझते रहे। दास गम्भीर मुख-मुद्रा के साथ आचार्य मिश्र की ओर ताकते रहे। वे कहते चले जा रहे हैं, ‘सौभाग्यवश आप इनके अनन्य मित्र हैं… सम्बन्धों के समग्र संजाल-संसार में सच्ची मित्रता ही एक ऐसा ठौर है जहां किसी भी स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होता… हृदय से सम्बद्ध सच्चा मित्र सिर्फ और सिर्फ शुभाकांक्षी होता है! भाई के न रहने पर तो दूसरे भाइयों का हिस्सा बढ़ जाता है, तमाम परिजन तक लाभ और हानि का हिसाब लगाने बैठ जाते हैं जबकि ऐसे क्षण में मित्र को सिर्फ और सिर्फ क्षति उठानी पड़ती है…’
दास बीते कुछ महीनों के दौरान की अपनी भाग-दौड़ का पूरा विवरण देने लगे। उन्होंने इस क्रम में यह भी जता दिया कि वे प्रसाद पर टूटे विपत्ति के पहाड़ से सूत्र रूप में अवगत हो चुके हैं। तीनों देर तक बैठे सुख-दुःख बतियाते रहे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल टहलते हुए आये तो सबने स्वागत किया। सभी चुप। पहले से चल रही चर्चा बंद। माहौल अचानक बदल-सा गया। बैठते हुए आचार्य शुक्ल ने टोका, ‘क्यों भई, मेरे आते ही आप सभी चुप हो गये! बात क्या है? आपलोग पहले से ऐसे ही मूर्ति बने बैठे हैं या मुझे देखकर अचानक काठ हो गये’
सभी आसपास जम गये। आचार्य मिश्र हंसे, ‘कहीं आपको ऐसा तो नहीं लग रहा कि आपके आने से पहले यहां आपकी ही कोई अप्रिय चर्चा चल रही थी?’
‘मुझ पर ऐसा सोचने का संदेह ही किया जाना नितांत अप्रिय व्यवहार है…’
‘ऐसा संदेह कर कि हमलोग यहां आपकी निंदा-भर्त्सना भी कर रहे हो सकते हैं, अप्रिय व्यवहार तो आप कर रहे हैं महाशय! …’ आचार्य मिश्र हंसे, ‘यों भी आप कोई कल्पना- अल्पना गढ़ने-सजाने वाले कोई सामान्य साहित्यकार तो हैं नहीं! आप तो हैं साहित्य के इतिहासकार! कहना न होगा कि इतिहासकार का काम संदेह करना नहीं बल्कि अनुसंधान करना है!’
आचार्य शुक्ल की चुटकी भर मूंछों के नीचे नुकीली मुस्कान चमकी, ‘चलिये, अब इस अनौपचारिक टीका-टिप्पणी का मंथन रोक दें… अन्यथा…’
‘अन्यथा? आचार्यप्रवर, हमें आप धमकी दे रहे हैं क्या?’ कहीं ऐसा तो नहीं कि कुद्ध होकर आप हमें इतिहास के गलियारे से धकेलकर बाहर भी फेंक दे सकते हैं?’ पूरी गम्भीरता से की जा रही चुहल में भी हास्य-भाव मिठास की तरह घुला-मिला था।
आचार्य शुक्ल हंसने लगे। उठे, ‘ऐसा है मिश्र जी, मैं अभी घाट की ओर निकलना चाह रहा हूं… घूमने का मन है…’
प्रसाद ने स्मरण कराया, ‘अब से कुछ ही अंतराल बाद तुलसीघाट पर नाग नथय्या का कार्यक्रम प्रस्तावित है… यह तो देखने लायक आयोजन होता है…’
‘तो क्यों न, हम सभी उठकर वहीं चले चलें…’ आचार्य मिश्र के स्वर में आग्रह।
‘हां.. हां…! चलना चाहिए…’ प्रसाद सहमति जताते उठ खड़े हुए। उनका संकेत पा दुकान में काम में जुटा जीतन लपककर पास आ गया। उन्होंने हाथ हिला-हिलाकर धीमे-धीमे उसे कुछ समझाया। निर्देश प्राप्तकर वह यथास्थान लौट गया। प्रसाद पीछे मुड़े तो आचार्यद्वय आगे बढ़ने लगे। बतियाते हुए तीनों बाहर आ गये। आचार्य शुक्ल ने प्रसाद की ओर देखा, ‘आपने तो मेरा सारा कार्यक्रम ही उलट दिया! मैं तो अभी टहलना चाह रहा था… पर, चलिये नागनथय्या ही देखा जाये…’
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नारियल बाजार की गली से निकलकर तीनों चौक की मुख्य सड़क पर आ गये हैं। समुद्र की लहरों की तरह उमड़ रही भीड़ बुना नाला-बांस फाटक होते गोदौलिया की ओर बढ़ रही है। आचार्य मिश्र ने टोंका, क्यों, आचार्यप्रवर! यहां से गोदौलिया होते हुए घाट तक आना-जाना क्या टहलने में शामिल नहीं हो सकता!
‘यह उमड़ता हुआ जनसैलाब देख रहे हैं न! अभी जब घाट पर पहुंचेंगे तो बात समझ में आ जायेगी… वहां तो तिल धरने की भी जगह नहीं मिलेगी… तो ऐसी भीड़ में धक्का खाते या धकियाते हुए चलना वस्तुतः टकराने जैसा कुछ, भले मान लिया जाये, इसे मैं टहलना कतई नहीं मानूंगा!’ चश्मे के गोल शीशे के पीछे आचार्य शुक्ल की फैली हुई आंखों का व्यंग्य तेज चमका। बिचके होठों के ऊपर अधकट गुच्छ की खास हरकत से भी ऐसे ही भाव। स्वर में निर्णायक दृढ़ता, ‘भई, ऐसा है कि मैं टहलना उसे ही मानता हूं जिसमें शरीर के साथ ही मन और बुद्धि को भी भरपूर उड़ान-सुख मिले व स्वतंत्रता का स्वाद भी… यह क्या कि धक्का खाते-खिलाते कराहते हुए यहां से वहां और वहां से यहां उधियाते फिरते रह जायें…’
आचार्य मिश्र ने चुटकी ली, ‘असल में वृति से प्रवृति बनती है और प्रवृति से कृति को आकार मिलता है… उसी तरह कभी-कभी यह क्रम उलटकर भी साकार हो सकता है…’ सड़क पर बहती भीड़ की उफनती धारा। तीनों जैसे तैर रहे हों! उन्होंने अपनी बात जारी रखी, ‘मैं आज यह अनुभूत कर रहा हूं कि आपकी दृष्टि में इतिहास-वृति बहुत गहरे धंसती चली जा रही है! जिस तरह इतिहास की गाथा में सामान्य पात्रों के प्रति न कोई जिज्ञासा होती है और न ही कोई लगाव का भाव, उसी तरह आपकी जीवन-दृष्टि भी एकांगी होती चली जा रही है… भीड़ और कोला
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