हिंदी के प्रसिद्ध कवि अरुण कमल से कवयित्री आभा बोधिसत्व की बातचीत- जानकी पुल.
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आप खुद की कविता और कवि से कितने संतुष्ट हैं?
संतोष से रहता हूँ। कवि हूँ भी या नहीं, कह नहीं सकता। ककहरा जानता हूँ। अक्षरों को जोड़-जोड़कर कुछ बना लेता हूं। मैं दिल से कह रहा हूं कि मुझे अपने कवि होने में संदेह है। जो गंगा और नर्मदा को देख आया है वह अपने गाँव के गड्ढे को नदी कैसे मान लेगा? मैंने थोड़ा बहुत तुलसी और शेक्सपियर को पढ़ा है। इसलिए अपने को कवि मानने में हिचक है। संतुष्ट होने का सवाल क्या है?
कवि बनने की प्रेरणा कहाँ से मिली?
कवि बनने की कोई प्रेरणा मुझे न हुई। कविता लिखने, कुछ कविता जैसा करने की इच्छा जरूर हुई। शुरू की किताबों में कविताएं पढ़ कर यह इच्छा हुई होगी – ‘भोली भाली गाय हमारी, दूध बहुत यह देती है‘ पढ़ कर जब मैंने अपनी गाय को देखा तो ‘भोली भाली‘ का अर्थ खुला। एक और कविता की याद है –‘घड़ी देख कर घोड़ा बोला है, छड़ी हिलाकर बकरा बोला खाली मेरा पेट है‘। तुकों में माजा आया। जो नहीं होता उसके होने में मजा आया। बोलने से अलग कुछ बोलने में यानी लय और संगीत में मजा आया शब्दों को ऐसे सजाने में, खेलने में और गाने में मजा आया। यह मजा बढ़ता गया, बदलता गया। आज भी कविता पढ़ कर वैसा ही करने की इच्छा होती है। कविता कितनी तरह से सुख और आनन्द और सहारा देती है, इसका अंदाज उम्र बढ़ने पर होता है। ‘रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो‘ गालिब की यह कविता अभी नये सिरे से खुली और गाढ़े वक्त पर खुली।
आप कविता क्यों लिखते हैं यानी कविता से क्या हासिल करना है?
मुझे कुछ भी हासिल नहीं करना। यह तो खोते जाने का, घाटे का व्यापार है। जो पाना चाहते हैं उनके लिए बहुत से दुनिया भर के काम और रास्ते हैं। मैं अगर लिखता हूँ तो इसलिए कि ऐसा करने के लिए मुझे कोई कहता नहीं। यहाँ मैं बिल्कुल आजाद, अपने मन का होता हूँ। हर आदमी को जिंदगी में कम से कम एक ऐसा आदमी को जिंदगी में कम से कम एक ऐसा काम करना चाहिए जिसके लिए उसे किसी के हुक्म की जरूरत न हो, जो उसकी रोजी-रोटी से जुड़ा न हो जहाँ वह वैसे ही रहे और जिए आदम और हव्वा की तरह। आदिम जंगल में – स्वांतः सुखाय।
विश्व कविता में हिंदी कविता की स्थिति?
असल में हिंदी कविता हिंदी क्षेत्र या देश के बाहर बहुत कम जानी जाती है। अनुवाद बेहद कम हुए हैं। फिर भी कविता लिखी तो जा रही है। मुझे कहने में संकोच नहीं कि हिंदी कविता, आरंभ से अब तक, दुनिया की श्रेष्ठ कविता की पंक्ति में बैठने योग्य है। आज की कविता भी समकालीन विश्व कविता के बराबर है। हिंदी ही नहीं,पूरे भारत की, सभी भाषाओं की कविता।
हिंदी कविता क्या हिंदी समाज की स्थिति का बयान कर पा रही है?
कोई भी कविता अपने समाज की स्थिति का बयान उस तरह से नहीं करती जैसे अखबार या समाचार पत्र करते हैं। वैसे देखा जाय तो कोई समाचार पत्र भी क्या सचमुच स्थिति को पूरा और सच्चा बयान करता है? नहीं करता। फिर कविता तो कविता है। लेकिन हर युग की श्रेष्ठ कविता अपने समय की मूल, आंतरिक भावदशा,मनोदशा का बयान जरूर करती है। जैसी कविता कबीर ने लिखी वैसी घनान्द ने नहीं लिखी। जैसी निराला ने लिखी वैसी नागार्जुन ने नहीं लिखी। लेकिन सब ने अपने समाज और मनुष्य की स्थिति की रचना की। आज की श्रेष्ठ कविता भी कर रही है।
‘आलोचना‘ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक के रूप में आपका अब तक का अनुभव कैसा है?
‘आलोचना‘ पत्रिका का मेरा अनुभव सम्पादन का नहीं, सह-सम्पादन का है। इसके प्रधान संपादक डॉ. नामवर सिंह जी हैं जिसके निर्देशन में मुझे सीखने का बहुत मौका मिला है वैसी सूक्ष्म दृष्टि, अध्ययन और विवके दुर्लभ है। वैसे मेरा निजी अनुभव है कि आज हिंदी में आलोचनात्मक विवेक, एक श्रेष्ठ रचना के लिए कट-मर जाने की हद तक की प्रतिबद्धता और समर्पण तथा अध्ययन-अध्यवसाय कम हुआ है। पूरे समाज में ही आलोचना करने,सुनने और सहने की ताकत कम हुई है। जनतंत्र कमजोर हुआ है। किसी भाषा में अगर श्रेष्ठ, तीक्ष्ण आलोचना कम मिले तो उस भाषा को बोलने वालों और उस समाज पर शक करो देखो, वह भीतर सड़ रहा है।
आप के लेखन का अधिकांश वह गद्य हो या पद्य केवल कविता और कवियों पर केंद्रित है, साहित्य की अन्य विधाओं से इतनी विमुखता क्यों है?
जो थोड़ा-बहुत मैं जानता समझता हूँ वह कविता के ही बारे में। वैसे मुझे उपन्यास बहुत प्रिय हैं। और किताब में अपने प्रिय उपन्यासों पर भी लिखूँगा – दुनिया के श्रेष्ठ उपन्यासों पर भी लिखूँगा। हिंदी के उपन्यास मुझे बहुत प्रिय नहीं है।
क्या आपकी अब तक की समीक्षक,आलोचक,अनुवादक की भूमिका पर्याप्त है?
अब तक की भूमिका पर्याप्त तो हरगिज नहीं है। हो भी कैसे सकती है? मैंने लिखा भी तो कम है। लिखने के अलावा और कोई सामाजिक राजनीतिक काम भी तो नहीं किया जो करना चाहिए था। केवल कवि होना पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। या पर्याप्त होता अगर वह कवि निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, विंदाकरंदीकर, कुमारन आशान या जीवनानंद दास जैसा होता। मैं तो कुकुरमुत्ता जैसा हूं – ठीक से पौधा भी नहीं, न फूल न फल, किसी का आहार भी नहीं। बरोबर?
पटना कभी हिंदी साहित्य के केन्द्र में था, बेनीपुरी जी, शिवपूजन सहाय जी, दिनकर जी, रेणु जी जैसे दिग्गज वहाँ सक्रिय रहते थे, आज वहाँ ऐसा क्या है जिससे उम्मीद की जाए?
पटना या किसी भी शहर या स्थान में कुछ नहीं होता। होता है उन लोगों में जो वहाँ रहते हैं और जो उस स्थान से एक वृक्ष की तरह जल-वायु धूप सब ग्रहण करते हैं। हमेशा नये लोग आते हैं और वो जगह नये पत्तों फूलों से भर जाती है। मुंबई भी ऐसा ही है और पटना भी।
नए लिख रहे कवियों को कोई एक नेक सलाह?