अलका सरावगी के उपन्यासों में बतकही के अंदाज में हमारे समय का जटिल यथार्थ बहुत सहजता से आता है. मेरे जैसे पाठक उनके उपन्यास का इंतज़ार करते हैं. आज अगर हिंदी उपन्यासों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होती है तो उसमें अलका जी के उपन्यासों का भी योगदान है. आपके लिए उनके नए लिखे जा रहे उपन्यास का अंश- प्रभात रंजन.
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जानकीदास तेजपाल हाऊस
‘चलते रहो। चलते रहो। पीछे मुड़कर मत देखो। तेज मत चलो। ऐसे चलो जैसे कुछ हुआ ही न हो। हाँफ क्यों रहे हो? चलते जाओ’- अपने से बात करता जयदीप उसी तरह चलता रहा। न उसने रुककर पीछे मुड़कर देखा और न अपनी चाल तेज की। यों भी जगह-जगह खुदे हुए फुटपाथ पर कुछ-कुछ को फाँदते हुए इधर-उधर पैर रखते हुए जगह बनाते हुए बहुत तेज चलना मुमकिन नहीं था। और वह आखिर क्यों भागता? भागकर जाता भी कहाँ? क्या इन्हीं लोगों के साथ जीने और मरने के लिए वह कलकत्ता नहीं लौट आया था?
‘‘अरे देखो, देखो! अमेरिकन चूतिया को देखो!’’ –किसी एक ने कहा था और फिर हँसी का कोरस फूट पड़ा था। जयदीप के अंदर भयंकर गुस्सा फूटते-फूटते फुस्स हो गया। अंदर से रुलाई जैसा कुछ उमड़ा। बचपन से आज तक उसने किसी से मार-पीट नहीं की थी। पर आज उसके हाथ कहीं से स्टेनगन आ जाती, तो वह शायद किसी अमेरिकन यूनिवर्सिटी के कोरियन लड़के की तरह पिछले दिनों के हादसे को दोहराता सब को भून डालता।
क्या वह पलटकर कम से कम इन लोगों को एक गाली ही दे डाले? देसी भद्दी गाली की जगह अमेरिकन भद्दी गाली? बास्टर्ड? मन में बेवजह गाली खा लेने का अफसोसतो न रहे। या बाँहें फैलाकर फिल्मी अन्दाज में उनसे कहे कि मेरा यकीन करो। मैं तुममें से ही एक हूँ। अमेरिका से लौटकर भी तुम्हारी तरह दो चौक के बड़ाबाजार के इस सड़े हुए मकान में रहता हूँ जहाँ बीचोबीच सामूहिक पाखाना है। वहीं हगता हूँ जहाँ तुम हगते हो। बिलकुल वैसे ही।
जयदीप रुआँसा सा चलता गया। किसी को कुछ कहने का कोई फायदा नहीं है। कहने का मतलब है कि आप कुछ सफाई देने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। बहुत हो लिया यह सब। जयदीप गुप्ता को किसी को कोई प्रमाण नहीं देना है। पैदा होने से मरने तक यही तो करना होता है इस महान देश में -सिद्ध करो कि तुम अच्छे बेटे हो। अच्छे भाई। अच्छे विद्यार्थी। अच्छे पति। अच्छे पिता। अच्छे बिजनैसमैन- वगैरह, वगैरह। क्या मजाल कि कोई एक मिनट भी अच्छा या बुरा न बनकर साँस ले ले।
जयदीप गुप्ता आखिर क्या प्रमाणित करने के लिए अमेरिका में सिस्टम्स इंजीनियरिंग की अधूरी रिसर्च छोड़कर इण्डिया लौट आया था? यही न कि वह श्रवणकुमार जैसा आज्ञाकारी बेटा है। कोई यह तो बताए कि श्रवणकुमार ने अपने कंधों पर अंधे माँ-बाप को तीर्थ कराने के अलावा भी कोई काम किया था कि नहीं?
‘चूतिया!’ हाँ जयदीप गुप्ता उर्फ जैग! तुम हो बेशक वही जो ये लोग तुमसे कह रहे हैं। एक नम्बर के बेवकूफ। तुम न जयदीप बन सके न जैग। न इधर के रहे न उधर के। तुम से बहुत समझदार तुम्हारा बेटा निकला। कहकर तो देखो उससे कि रोहित, अब बहुत हुआ, अब तू घर लौट आ। हमलोगों को बहुत अकेलापन लगता है। अव्वल तो अमेरिका के इतने बड़े बैंक में इतने ऊँचे ओहदे पर काम करनेवाले बेटे को जयदीप गुप्ता क्या कभी कह सकता है कि तू लौट आ? और अगर कह भी दे तो क्या रोहित लौट आएगा?
जयदीप के चेहरे पर हँसी की हल्की छाया दौड़ गई यह -सोचकर कि अगर वह रोहित के वाकई ऐसा कहे तो रोहित क्या कहेगा? ‘‘पापा, क्या सचमुच कैरियर की नई शुरुआत करूँ? मदर टेरेसा के ‘होम’ में कब्र में पाँव लटकाए भिखारियों की सेवा करना ठीक रहेगा?’’ मदर टेरेसा के ‘होम फार द डाइंग एंड द डेस्टिट्यूट’ वाला चुटकुला उनके बीच काफी पुराना था। पर इसीलिए वह मजेदार बना हुआ था। यों हर बार कलकत्ता के लिए रोहित के पास नए जुमले होते थे। फोन करता तो शुरुआत ऐसे ही करता- ‘‘क्या आप मदर टेरेसा के शहर से बोल रहे हैं?’’ या ‘‘क्या आप ख़ुशी-ख़ुशी हाथरिक्शा चलानेवालों की ‘सिटी ऑफ़ जॉय’ से बोल रहे हैं?’’ या फिर ‘‘क्या आप हड़प्पा, ओह सॉरी कलकत्ता शहर से बोल रहे हैं जहाँ हर समय खुदाई का काम चलता रहता है?’’
यह तो सच था कि कलकत्ता में हर समय कुछ-न-कुछ खुदाई चलती रहती थी। शुरुआत सत्तर के दशक में हुई होगी, जब भूमिगत मेट्रो रेल के लिए खुदाई का काम शुरू हुआ। तबसे यह खोदना रुका नहीं था। फिलहाल फ्लाईओवर ब्रिज बनाने के लिए शहर खोदा जा रहा था या फिर पुरानी नालियाँ-ड्रेनपाइप बदलने के लिए। कलकत्ता ऊपर से गाडि़यों से जाम था और जमीन के नीचे तीन सौ सालों के कूड़े-कीचड़-मल से। जब-तब जहाँ-तहाँ खोदनेवालों में बिजली सप्लाई और टी.वी. या मोबाइल कनेक्षनवाले भी थे, जो फुटपाथ खोदते और उनके बीच में आनेवाली सड़कें भी। अक्सर ये लोग सड़क के इस पार से उस पार तक तार फेंक देते और उन्हें बिजली के खम्भों पर गोल-गोल गुच्छों में लटका देते। इन तारों पर गौरैया और बुलबुल झूलती रहतीं। धरती क्या, इस शहर का आकाश भी खोदा हुआ था।
रोहित के बारे में सोचने से जयदीप के दिल की चुभन कम हो गई थी। आज के जमाने में ऊपर उठने के लिए सिर्फ पढ़ाई या डिग्री ही काफी नहीं है, कुछ और भी चाहिए। रोहित में वह कुछ और बात है। उसक बिंदास तरीके से मजाक में कुछ भी कह डालना लोगों को अखरता नहीं है। ऐसा लगता है कि वह खुद का ही मजाक बना रहा हो। जयदीप गुप्ता, तुम यही तो नहीं कर पाते। जाने क्यों तुम कुछ भी कहते हो, तो लोग तुरन्त बुरा मान जाते हैं। रोहित को सब कुछ साधना आता है। जयदीप का मन रोहित के प्रति गर्व से भर उठा। अपने को गाली देनेवालों के प्रति उसके दिल में तरस आया। आखिर ये बेचारे अपनी भड़ास कहाँ निकालें? ये भी उसी की तरह इस शहर से हथकड़ी से बँधे हैं। इनका बस चले तो ये आज यू.पी., बिहार लौट जाएँ। एक तरफ तो बंगालियों की हिकारत सहते हैं, तो दूसरी तरफ अपनी तरह हिन्दी बोलनेवाले मारवाडि़यों के यहाँ नौकर-ड्राइवर-मुनीम की नौकरी करते मर-खप जाना ही इनकी नियति है।
जाने कैसा सुकून होता होगा उनलोगों के जीवन में, जो ताउम्र वहीं रहते हैं जहाँ उनके पुरखे रहते थे। वे लोग ऐसे रहते होंगे जैसे कि धरती का वह टुकड़ा उनकी मिल्कियत है। कलकत्ता के बंगालियों को तो देखकर ऐसा ही लगता है। पर मजे की बात कि बंगाली भले ही दिल्ली में रहे या पेरिस या न्यूयार्क में, वह ऐसे रहता है जैसे वह प्रवासी होकर भी दूसरों पर अहसान कर रहा हो। एकाध रवीन्द्रनाथ या सत्यजित राय क्या हो गए, हर बंगाली को लगता है कि उसकी संस्कृति का साम्राज्य दुनिया भर में फैला है। वह कहीं रहे, धरती से दो कदम ऊपर चलना है। दीपंकर सेन ने अमेरिका में जयदीप के साथ पढ़ाई की। पर हमेशा अमेरिकनों का मजाक बनता रहा मजाक बनाता रहा।
जयदीप को अमेरिका में रहते हुए हर घड़ी लगता था जैसे वह किसी पराई धरती पर रहता है। दिन-रात सोचता कि किस तरह से वह उनमें से एक हो सकता है। इसी चक्कर में तो उसने कई करतब कर डाले। पर अपने निछोह गोरे रंग के बावजूद वह एक ‘ब्राउन मैन’ ही बना रहता था। अलबत्ता कई लोग उसके काले बालों के कारण उसे इटालियन या स्पेनिश समझ लेते थे। ऊपरी तौर पर सभी उससे बराबरी का व्यवहार करते। पर सबसे हँसते-ब
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