युवा लेखक गौरव सोलंकी का यह लेख मूल रूप से ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित प्रियदर्शन के लेख की प्रतिक्रिया में लिखा गया था. प्रसंग पुराना है लेकिन समस्या वही है- भारतीय ज्ञानपीठ का मनमानापन. वह लेख प्रस्तुत है गौरव सोलंकी की भूमिका के साथ- जानकी पुल.
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मूलत: यह लेख (इसका छोटा रूप) 3 जून को जनसत्ता में छपे प्रियदर्शन के एक लेख (http://www.jankipul.com/2012/06/blog-post_03.html) के जवाब में लिखा गया था. इसी उम्मीद से कि 10 जून को जनसत्ता में छप सकेगा. लेकिन जनसत्ता ने मुझे उदाहरण देकर याद दिलाया कि अभिव्यक्ति पर सेलेक्टिव सेंसरशिप किसी एक संस्था की जागीर नहीं है.
लेखकों-प्रकाशकों के बारे में और ज्ञानपीठ के विरुद्ध लड़ाई के बारे में कही गई प्रियदर्शन की कुछ सामान्य बातों और कुछ व्यक्तिगत आरोपों पर मुझे आपत्ति थी. लेकिन जनसत्ता ने मेरे लेख को छापने से इनकार कर दिया. संपादक थानवी जी को प्रियदर्शन द्वारा उठाई गई बातों के सीधे जवाब देने और साथ ही उनसे सवाल करने पर आपत्ति थी. और वे चाहते थे कि ‘कुछ बदलावों‘ के बाद अगर मेरा लेख छपे भी, तो उस पर प्रियदर्शन का जवाब भी उसी के साथ, उसी दिन छपे.
मैंने सोचा. और मुझे लगा कि जब किसी अख़बार में किसी पर सवाल उठाना या आरोप लगाना ग़लत नहीं है, तब उसी अख़बार में उनके जवाब देना कैसे ग़लत हो सकता है? और यह कैसा न्याय है कि उनके सवाल (वे भी ग़लत तथ्यों पर आधारित) छपें, तब उसके साथ प्रतिक्रिया देना तो दूर, मुझे एक हफ़्ते बाद भी अपनी बात अपने ढंग से कहने का मौका न मिले. और जब मैं अपनी बात कहूं, वह भी जनसत्ता में किए गए बदलावों के साथ, तो वह छपने से पहले ही प्रियदर्शन को पढ़वा दी जाए और वे तब उस पर एक और लेख उसी के साथ लिखें. मुझे अपनी बात बिना काटे कहने दी जाती और अख़बार में पढ़कर वे अगले हफ़्ते कुछ भी लिखते तो मुझे कोई समस्या नहीं थी. लेकिन यह 2-1 का खेल मेरी समझ में नहीं आया, जिसमें मेरी टाँगें बाँध दी जानी हैं और यह भी तय है कि आखिरी गोल वही करेंगे. यह मुझे अलोकतांत्रिक लगा और इसी ने सबसे ज़्यादा बेचैन किया. यह भी लगा कि इस तरह कहीं यह दो व्यक्तियों की लड़ाई जैसा ही बनकर न रह जाए, जबकि मेरा सारा विरोध उनकी कही बातों और उनके बेहद संदिग्ध अर्थों से है.
ये अजीब महीने हैं – एक ही वजह से बुरे भी और अच्छे भी – कि साहित्य, साहित्यकारों और मीडिया को लेकर लगातार बहुत से भ्रम टूटे हैं, कुछ समय कोफ़्त हुई है और आख़िर में मोहभंग हुआ है.
ख़ैर, अब एक यही विकल्प मेरे पास बचा है कि मैं वेबस्पेस पर ही अपनी बात कहूं, जहाँ हम सब बराबर हैं. यहाँ से भले ही मैं जनसत्ता के उन सब पाठकों तक अपनी प्रतिक्रिया न पहुंचा पाऊं, जिन्होंने वह भ्रामक लेख पढ़ा था, लेकिन यहाँ कम से कम मैं वह कहने के लिए आज़ाद तो हूं, जो कहना चाहता हूं.
इस बीच बता दूं कि मुझे यह भी सलाह दी गई कि कुछ मतभेदों या आपत्तियों के साथ कोई साथ आए, तो उसे नाराज़ करके विरोध में कर देना ठीक नहीं है. लेकिन मैं कोई राजनेता नहीं हूं जो किसी भी क़ीमत पर अपने साथ बड़ी संख्या चाहे और यह कोई नया गुट बनाने की या शक्ति-प्रदर्शन की लड़ाई भी नहीं है और न ही किसी को हराने की. हो सकता है कि बहुत से और मौकों की तरह इस मुद्दे के बहाने भी बहुत से लोग मुद्दे पर नहीं, मौका देखकर अपने शत्रु ‘ज्ञानपीठ‘ के विरुद्ध लड़ रहे हों, लेकिन मैं उस विचार और सच के लिए लड़ रहा हूं, जिस पर मुझे यक़ीन है. यह सोचकर लड़ने नहीं लगा था कि मेरे साथ कितने लोग आएँगे और कितने नहीं, कि साथ कौन है, और सामने कौन. यह मेरी अकेले की लड़ाई भी नहीं है. हम सब इसके लिए इतने ही ज़रूरी हैं और इतने ही जवाबदेह. और इसीलिए, जो भी, जब भी मुझे ग़लत लगेगा, कहूंगा, भले ही अकेला बचूं. और अपनी बात ग़लत लगेगी, तब भी कहूंगा. जिनके विरुद्ध लड़ रहा हूं, वे कुछ सही कहेंग़े तो उन्हें सही भी कहूंगा. इसे आप ज़िद या बेवकूफ़ी भी समझ सकते हैं.
फ़िलहाल इस तरह के भ्रामक लेखों पर यह मेरी आख़िरी प्रतिक्रिया समझी जाए. हालात जैसे हैं, उनमें यह विडम्बना भी संभव है कि मेरे इस लेख की (प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष) प्रतिक्रिया में मेरे विरुद्ध लिखे गए लेख या ज्ञानपीठ के विरुद्ध लड़ाई से सम्बन्धित बाकी लेख भी उसी अख़बार में छपते रहें, जहाँ यह लेख नहीं छप सका. या ऐसा ही और भी कुछ हो! लेकिन आप देख ही रहे हैं कि मै इसमें अभी कुछ नहीं कर सका, आगे भी क्या कर सकूंगा?
यह लेख लम्बा हो गया है और मेरी कोशिश रही है कि इसमें हर बात कह सकूं. इसके अलावा मेरे पास बताने को कुछ भी नया नहीं है. जिन्हें मेरी या इस लड़ाई की नीयत पर इसे पढ़ने के बाद भी संदेह होता है तो मैं फ़िलहाल उनके लिए कुछ भी करने में असमर्थ हूं. उनसे आग्रह है कि मुझ पर और हम सब पर नज़र रखें और बाद में कभी तय करें कि क्या सही था, कौन सही था, और किसने मुखौटा पहना था..
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प्रियदर्शन जी,
इंटरनेट और अख़बारों-पत्रिकाओं में लगभग पन्द्रह दिन तक बहुत बोलकर, मैं चुप हो गया था. मैंने अपनी सब बातें कह दी थीं. यह तो बहुत बार कहा कि किस वजह और मकसद से लड़ रहा हूं. जितने सवाल उठाए गए थे, संदेह किए गए थे, उनके भी कई-कई बार जवाब दे दिए थे. उनसे संदेह तो मिटते रहे, लेकिन पूर्वाग्रह जवाबों से नहीं मिटते. इसलिए फिर-फिर वही सवाल आते रहे. और इसी बीच उन्हीं सवालों का नकाब ओढ़कर कई सारी अफ़वाहें आईं, कितने ही भ्रम फैलाए गए. और यह होता ही है, जब भी एक आदमी या कुछ आदमी किसी सत्ता या व्यवस्था के खिलाफ खड़े होते हैं. सत्ता के पास ईनाम में देने को बहुत कुछ होता है, इसलिए हर ऐसी लड़ाई में वह खुद खामोश रहती है, उसकी ओर से लोग आते हैं और या तो शातिर अफ़वाहों से विद्रोहियों का चरित्र-हनन करने की कोशिश करते हैं या लड़ाई को असल मुद्दे से भटका देने की. शब्दों के खेल और झूठे हलफ़नामों से किसी गंभीर और व्यापक लड़ाई को अनावश्यक और निजी लड़ाई बना देने की बेचैन जल्दबाजी भी अन्दर से यही कोशिश है, ऊपर से भले ही वह भली और पॉलिटिकली करेक्ट दिखना चाहे. ऊपर से वह तब और संदिग्ध हो जाती है, जब वह किसी ऐसे बीच के रास्ते से समस्या को तुरंत निपटा देना चाहती है, जिस पर सत्ता पहले से ही राजी हो.
मुझ पर आएँ तो मेरी नीयत पर संदेह पैदा करने के लिए यह भ्रम कुछ लोगों ने फैलाया कि पहले कभी नहीं बोला था, खुद के साथ हुआ तो बोला. हालांकि ऐसा भी हुआ होता, तब भी क्या यह लड़ाई निजी लड़ाई होती? मैं पहले भी यह उदाहरण दे चुका हूं कि क्या आज़ादी का पूरा आंदोलन इसलिए
‘निजी’ कहा जा सकता है कि गाँधी जी ने तब अंग्रेजों का विरोध शुरू किया, जब उन्हें काला कहकर ट्रेन से फेंक दिया गया? इसके बावज़ूद आरोप लगाने वालों को मैंने अपना लिखा तहलका का अगस्त, 2011 का एक लेख दिखाया (http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/948.html), जो साहित्य की मठाधीशी के ख़िलाफ़ था. बाद में मेरे साथ जो किया गया, उसकी एक वजह वह लेख भी था.
लेकिन इन जवाबों के बहुत बाद, 3 जून को आपने जनसत्ता में यही सब लिखा ( http://www.jankipul.com/2012/06/blog-post_03.html). एक ‘संतुलित’ लेख, जिसमें आपने समाधान का बहुत आसान फ़ॉर्मूला खोज लिया और ज्ञानपीठ से ‘अपील’ की कि वह किताब छापकर ‘बड़प्पन’दिखाए और इस ‘अनावश्यक प्रसंग’ को और तूल न दे, जो एक ‘निजी टकराव’ है. वैसे यह भी सही है कि किताबें-कहानियाँ छपें तो लेखकीय सम्मान की हममें से किसी को भी क्यों फ़िक्र होनी चाहिए? साथ ही आपने रॉयल्टी की पारदर्शिता के लिए और नए लेखकों को प्रोत्साहन देने के लिए ज्ञानपीठ की कुछ प्रशंसा भी की, उसे आदर से देखा और लेखक-प्रकाशक सम्बन्धों को जटिल बताया.
यहीं से मुझे साफ़ कर देना चाहिए कि यहाँ आप और आपका लेख सिर्फ़ एक प्रतीक है, और मैं उन सब लेखकों से बात करना चाहता हूं, जिन्होंने विभिन्न वजहों से, जानबूझकर इस लड़ाई को कमज़ोर करने की कोशिश की है. कुछ के वाकई जायज संदेह थे, मैं उनकी बात नहीं कर रहा. लेकिन जो बेशर्मी से अफ़वाहें लेकर आए या फिर सवालों के जवाब देने के बाद भी हूबहू वही सवाल करते रहे, वे चार किस्म के लेखक हैं.
पहले, कहीं न कहीं ज्ञानपीठ के कृपापात्र थे या होना चाहते थे. उनमें से कई सीधे ज्ञानपीठ के पक्ष का स्टैंड लेकर आए और इसीलिए सभी को साफ़ साफ़ दिख गए. लेकिन कुछ चतुर भी थे.
दूसरे, जो बरसों से मुझसे नाराज़ थे क्योंकि उनके disgusting और irritating private messages या/और मेरे प्रति पूर्वाग्रही रवैये या/और दोहरे चरित्र से तंग आकर मैंने साल-दो साल से उन्हें फ़ेसबुक तक पर ब्लॉक कर रखा था और उनकी किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता था. उनमें से कुछ ने मेरे लेखन में ‘अश्लीलता’ ढूंढ़ी. कुछ ने इस लड़ाई को ‘असफल साहित्यिक महत्वाकांक्षा की सैद्धांतिक मुनादी’ जैसी उपमाएं दीं (इस दिलचस्प शीर्षक के हर शब्द की अच्छी चीरफाड़ श्रीकांत ने अपने इस लेख में की है – http://www.jankipul.com/2012/05/blog-post_22.html).
एक ने तो अपने अख़बार में नौकरी करने वाले एक नए लड़के को मोहरा बनाकर इस पूरे मामले को पेज थ्री गॉसिप की तरह परोसवा दिया. (ज़रूरत पड़ी तो मैं नामों और अपनी कही हर बात के सबूतों के साथ भी आ सकता हूं) मैंने तो इस बार उन तक के हर मनगढ़ंत आरोप का जवाब दिया, यह साफ-साफ जानते हुए भी कि वे लेख किसके इशारे पर या किस वजह से लिखे गए हैं. मैंने बदले में उनसे भी सवाल किए, जिनके जवाब देने के लिए उनमें से कई ने मोहलत माँगी, और गायब हो गए. उन सब लेखकों की आसान पहचान यह भी है कि उन्हें किसी मुद्दे से ज़्यादा लेना देना नहीं है, आगे भी वे हर मौके पर आपको मेरे ख़िलाफ़ लिखते दिखेंगे.
तीसरे वे थे, जो साथ आ सकते थे, अगर किसी तरह पूरे मामले से मेरा नाम मिटाया जा सकता. उनके बारे में मुझे साथ आए लेखकों ने बताया कि वे इस चिंता के कारण नहीं आ रहे कि यह लड़ाई जितनी बढ़ेगी, गौरव मशहूर होगा, और यह रोकना ज़्यादा ज़रूरी है, साहित्य के भ्रष्टाचार का तो कुछ नहीं. अब मेरे या किसी के भी नाम पर हर जगह ‘बीप’ लगाना किसी के हाथ में नहीं था, इसलिए हम कुछ कर न सके. और हम लड़ रहे लोगों के लिए तो मैं एक प्रतीक या माध्यम से ज़्यादा कुछ है भी नहीं. मैं और साथ आए सब लेखक-पाठक बार-बार यह कहते भी रहे कि यह हम सबकी साझी लड़ाई थी/है. हाँ, इस तीसरी श्रेणी के बहुत सारे लेखक विरोध में भी नहीं आए और समर्थन में भी नहीं. इतने भर के लिए हम उनके शुक्रगुज़ार हैं.
चौथी श्रेणी के लेखक वे हैं, जो सिर्फ़ इसलिए मुझ पर, मेरी नीयत पर आरोप लगाने लगे क्योंकि मैं उनकी चुप्पी पर उन्हें कायर बता रहा था. उन्होंने आख़िरकार चुप्पी तो तोड़ी लेकिन मेरे प्रति ज़हर के साथ. फिर दोहरा दूं कि उनकी बात नहीं कर रहा, जिन्होंने अपने सवालों के जवाब पाने के बाद वही सवाल नहीं दोहराए. बल्कि उनके तो हर तरह के संदेहों और सवालों का मैं पूरा आदर करता हूं, जो जेनुइन थे.
हाँ, कुछ लेखक एक से ज़्यादा श्रेणियों में भी रहे. प्रियदर्शन जी, मैं नहीं जानता कि आप किस श्रेणी में हैं. दूसरी श्रेणी में नहीं हैं, इतना कह सकता हूं. मैं हवा में कोई बात नहीं कहूंगा. तर्क और तथ्यों से अपनी बात रखूंगा और हर बात का जवाब दूंगा. कहीं ग़लत कहूं तो किसी को भी अधिकार है कि मुझे तर्क या तथ्यों से ग़लत सिद्ध करे.
आपने बार-बार कहा कि
‘फिर भी मैं गौरव के पक्ष में हूं’, इसके बावज़ूद मैं आपके लिए यह सब क्यों लिख रहा हूं, यह और स्पष्ट कर देने के लिए मैं एक उदाहरण देता हूं.
मान लीजिए कि एक कंपनी है और उसके मज़दूर हड़ताल पर हैं. उनकी माँगें हैं कि वेतन 5000 से बढ़ाकर 5500 कर दिया जाए, उसमें बेवजह की कटौतियां न हों, जो हो साफ-साफ हो, उसकी रसीदें मिलें, कुछ सुविधाएं मिलें, साथ ही शिफ़्ट इंचार्ज, मैनेजर या मालिक उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करें
– कोई भी कभी भी गाली न दे दे, मारे नहीं. मालिक के जूते साफ़ करने वाले को प्रमोशन न मिले और मेहनत से काम करने के बावज़ूद सिर्फ़ इस बात पर किसी मज़दूर को गाली देकर या मारकर नौकरी से न निकाला जाए कि उसने मालिक के जूते साफ़ करने से इनकार कर दिया.
तो मज़दूर हड़ताल पर हैं और मालिक कह रहे हैं कि ये
‘सस्ती लोकप्रियता’ के लिए ऐसा कर रहे हैं. विरोध ज़्यादा होता है तो मालिक कहते हैं कि रामप्रसाद नाम के जिस मज़दूर को जूते साफ़ न करने की सज़ा देने के लिए निकाला था, उसे हम वापस रखने को तैयार हैं. रामप्रसाद ख़ुद पहले दिन से कह रहा है कि इतना अपमानित होने के बाद उसे अब कभी वह नौकरी नहीं करनी, और यह माँग तो कभी थी ही नहीं. वे सब यह चाहते हैं कि बाकी मज़दूरों के साथ सम्मानजनक व्यवहार हो और बाकी माँगें भी मानी जाएं. लेकिन तब मालिक उनकी कोई बात सुनने या कुछ भी कहने को तैयार ही नहीं.
तब अचानक एक आदमी आता है और रोज़ बारह घंटे काम करने वाले मज़दूरों से कहता है.
“मैं तुम्हारे साथ हूं. लेकिन यह महान विरासत वाली महान कंपनी है, तुम तो ‘खराब’ कामगार हो, ‘शौकिया’तौर पर आते हो, इस कंपनी ने इसके बावज़ूद तुम्हें नौकरी और रोज़ी रोटी दी है, और सिर्फ़ कुछ करोड़ का ही तो टर्नओवर है, तुम्हारी तनख़्वाह कैसे बढ़ा दें? और यह रामप्रसाद का मालिक से कुछ निजी झगड़ा है, इसलिए इसे निकाला गया. मैं उनसे फिर भी ‘अपील’करूंगा कि यह ग़लत है और इसे वापस रख लेना चाहिए. मज़दूर और मालिक का तो रिश्ता जटिल ही होता है, लेकिन वे आदरणीय हैं, बड़े हैं, इसलिए यह ‘ग़ैरज़रूरी’हड़ताल यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए. हाँ, मैं तुम्हारे साथ हूं.”
क्या अब यह बताने की ज़रूरत है कि वह आदमी किसके साथ है?
ख़ैर, आपने बताया कि आपकी एक कहानी
‘नया ज्ञानोदय’ में जल्द ही छपने वाली है. इस बात के लिए बधाई.
बकौल आप, आप छिनाल प्रकरण पर भी ज्ञानपीठ का विरोध करते हैं और अब भी कहते हैं कि करते हैं और ज्ञानपीठ तूल तो क्या देगा, वह तो मामले को जल्दी से जल्दी अपनी कुर्सी के पाए के नीचे दबाना चाहता है. ऐसे में आपको इस
‘संतुलन’के लिए भी बधाई कि किसी संस्था के ऐसे व्यवहार और ऐसे समय के दौरान आप कहानी भेज भी देते हैं, वह स्वीकृत भी हो जाती है. आपने अपने लेख के आख़िर में पूछा है कि गौरव सोलंकी हाय-हाय क्यों मचा रहा है, वह किसके विरुद्ध और किसलिए लड़ रहा है? तो शुरू में ही यह बता देना मेरा फ़र्ज़ है कि मैं जिन चीजों से लड़ रहा हूं, उनमें दुनियावी समझदारी से भरा हिन्दी के बहुत से लेखकों का यह ‘संतुलन’भी है – कि वे अपने लेखन में और घोषणाओं में जिन संस्थाओं, व्यवहारों, अपमानों के विरोध में हैं, वे जीवन में लगातार उन्हीं संस्थाओं, व्यवहारों, अपमानों का हिस्सा भी हैं.
मुझे हैरत यह है कि आप कुछ ऊपरी मुद्दों पर
‘ज्ञानपीठ’ या अन्य प्रकाशकों की थोड़ी सी आलोचना तो करने की कोशिश करते हैं और बार-बार कहने की कि आप मेरे साथ हैं (ऐसा साथ?), लेकिन ‘ज्ञानपीठ’ की ‘महानता’ के प्रति एक मोह लगातार आपके लेख में दिखता है. ऐसा लगता है कि ज्ञानपीठ एक लाइन में भी पूरे मामले पर कोई तार्किक प्रतिक्रिया दे दे (आपके अनुसार तो किताब छापने का कह दे बस, जो कह भी रहा है) तो सब कुछ स्वर्ग हो जाएगा. इसके बाद वह लेख चिंता जताने और लेखकों-प्रकाशकों की हल्की सी आलोचना करने के बाद समझदारी बरतता है और इसीलिए आप मासूमियत से लिखते हैं- ‘शायद हिंदी के प्रकाशकों के साधनों की सीमा हो कि वह इस बाज़ार में बहुत ताकत झोंकने की हालत में ख़ुद को नहीं पाता।‘
यहीं रॉयल्टी के सब घपलों, लेखकों को लूटने और अपमानित करने के सिलसिलों पर आधा परदा तो डाल दिया जाता है. क्या करे प्रकाशक बेचारा आखिर? अपने बच्चे को भूखा मारे या लेखक को रॉयल्टी दे, अपनी छत की मरम्मत कराए या किताब का प्रचार करे, ऐसी छवि बना दी है आपने अपने लेख में उसकी, और आपको ऐसे व्यवहार के पीछे प्रकाशक का लालच, बेईमानी या बदनीयती कहीं नहीं दिखती, उसके करोड़ों के धंधे में कहीं इतने संसाधन नहीं दिखते कि वह लेखकों की दो-चार हजार की रॉयल्टी तो आधी ईमानदारी से दे दे? क्या जीवन का इतना सारा अनुभव ऐसे बचना सिखाता है सच से? क्या इतने सारे शब्द इसी काम आने थे एक दिन कि आप इतना पॉलिटिकल करेक्ट हो जाएं कि लेखक की किताबें बेचकर उसे ही कर्ज़दार करते रहने वाले और अपनी कारें खरीदते रहने वाले प्राणी आपको ऐसे ही मज़बूर दिखने लगें?
और प्रकाशकों या संस्थाओं के भ्रष्टाचार पर बाकी आधा परदा आप यह दो बातें कहकर डाल देते हैं-
1. “हिंदी में कुछ बड़े प्रकाशकों को छोड़ दें तो बाकी मेरे खयाल से रायल्टी तक नहीं देते.”
2. “नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग या फिर ज्ञानपीठ- जो फिर भी पारदर्शिता बरतते हैं और अपने लेखकों को दूसरों के मुकाबले ज़्यादा रायल्टी देते हैं।“
देखिए, न हिन्दी के बड़े प्राइवेट प्रकाशक नाराज़ हुए (पहली लाइन से) और न नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग या ज्ञानपीठ (दूसरी लाइन से). क्योंकि आपने उन्हें कीचड़ में कमल बता ही दिया. अब छोटे प्रकाशक होते रहें नाराज़, वे क्या बिगाड़ेंगे? और वही तो सब गड़बड़ी कर रहे हैं ना? कीचड़ उन्हीं ने तो बना दिया है? यह जो कमाल का
‘संतुलन’है, जिसमें ‘बड़ा’ और ‘शक्तिशाली’ कभी ग़लत नहीं हो सकता और वह जवाबदेह भी नहीं है, उससे बस ‘अपीलें’ की जा सकती हैं और ‘परम्परा’और ‘बड़प्पन’ याद दिलाए जा सकते हैं.
आपने जो तीन-चार आपत्तियां मुझ पर और लड़ाई पर की हैं, उनमें से अधिकांश के जवाब 11 मई के मेरे ज्ञानपीठ को भेजे पत्र में ही थे, (
http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/1209.html) और जिनके नहीं थे, मैंने इंटरनेट पर या अखबारों-पत्रिकाओं के माध्यम से लगातार दिए. उन्हें अपनी फ़ेसबुक वॉल पर लिखता रहा.