जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हाल में ही प्रसिद्ध लेखक देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक ‘गरुड़ पुराण’ का हिन्दी अनुवाद आया है। मृत्यु, पुनर्जन्म और अमरत्व की अवधारणाओं को समझने के लिए उनके इस भाष्य को पढ़ा जाना चाहिए। राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस किताब का अनुवाद किया है मंजुला वालिया ने। आपके लिए किताब की भूमिका प्रस्तुत है- मॉडरेटर 

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वर्षा ऋतु के पश्चात् – विघ्नहर्ता गजानन के दस दिनों के गणेशोत्सव, और नवरात्रि के माता दुर्गा के पूजन के मध्य-हिन्दू पितृ-पक्ष या पितरों का पखवाड़ा मनाते हैं। साल की अँधियारी छमाही के चंद्रमास का यह कृष्ण पक्ष है। यही समय पितरों को भोजन कराने का होता है। समस्त भारत में दक्षिणोन्मुख हो काले तिल मिश्रित मसले चावल के पेड़े जिन्हें पिंड कहा जाता है, हिन्दू-जन जलाशय के पास कुशाग्र पर रखते हैं। इन पिंडों पर एक विशेष विधि द्वारा दाहिने हाथ के अँगूठे को शरीर से बाहर निकाल कर उसके ऊपर से जल डाला जाता है जिसे तर्पण कहते हैं। यह चावल कौव्वों को खाने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। हर व्यापारी जानता है कि इन दिनों में व्यवसाय में मंदी आ जाती है। निस्संदेह, अधिकतर हिन्दू परिवार वाहनों व भवन की खरीद या नये कपड़े तक खरीदना स्थगित कर देते हैं। नये अनुबंध नहीं किये जाते। विवाह नहीं होते। यह असमंजस इस अर्थ में रुचिकर है कि यह हिन्दू समाज के अपने मृतात्माओं से अस्पष्ट संबंधों को व्यक्त करता है। पितरों का श्राद्ध होता है और उन्हें भोजन करवाया जाता है, यह सत्य है। इसके साथ ही, मृत्यु से जुड़ी सभी वस्तुएँ अशुभ व अशुद्ध मानी जाती हैं।

बेशक, सभी हिन्दू इन विधि-विधानों को नहीं मानते। हिन्दू धर्म विविध, गतिशील और जटिल है। पर प्रमुख हिन्दू मुख्यधारा में मृत्यु का बोधज्ञान गरुड़ पुराण के प्रेत-कल्प से आता है जिन्हें हज़ार साल पहले लिखा गया था और आज भी अंत्येष्टि-संस्कारों से जुड़े अनुष्ठानों में इसका पठन होता है। प्रथाओं के अद्भुत नैरंतर्य का संकेत देते हुए श्राद्ध के विधान का उल्लेख, जिसमें पितरों को पिंड प्रदान करते हैं, गृह्य-सूत्र के मोक्ष या पुनर्जन्म की आशा से मृतक की अस्थियों और भस्म का नदी में विसर्जन आनुष्ठानिक समारोह के उपरांत देवता की मिट्टी की प्रतिमा का विसर्जन साहित्य में पाया जा सकता है जो करीब 2500 वर्ष पुराना है। पितरों के लिये ‘पितृ’ शब्द का प्रयोग हिन्दुओं के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भी पाया गया है।

जहाँ मृतकों को भोजन व भेंट देने का विधान अनेक संस्कृतियों में पाया गया है, पुनर्जन्म की, ना कि पारलौकिक जीवन की अवधारणा पर आधारित होने के कारण हिन्दू प्रथाएँ विशिष्ट हैं। हिन्दुओं की मान्यता है कि जगत में कुछ भी स्थाई नहीं है, मृत्यु भी नहीं। प्रेतात्माएँ कालांतर से अशोधित ऋणों के भुगतान के लिये मृत्युलोक में वापस आती हैं। जीवन को अपने ऋणों से उऋण होने की आवश्यकता है। मृतकों को भोजन कराना अपने आप में दायित्व है, ऋणशोधन है। जो जीवित हैं, वे भी अपने जीवन और सुविधाओं के लिये मृतकों के दायी हैं। मृत्युलोक में वापसी और जीवन चक्र को चलायमान रखने के लिये मृतक जीवित प्राणियों पर निर्भर रहते हैं।

निरंतर प्रत्यावर्तन की विचारधारा हिन्दू मानस में विधि-विधानों व कथाओं द्वारा अंतर्निहित की गयी है। वैदिक काल में किसी भी यज्ञ के बाद अनुष्ठान-क्षेत्र को जला दिया जाता था-जैसे अंत्येष्टि में होता है और नई ईंटों द्वारा वेदी की पुनः रचना की जाती थी। आज गर्भाधान के दस चंद्रमास एवं नौ सौर मास का स्मरण कराने के लिये गणेश और दुर्गा के उत्सव दस दिन और नौ रातों तक मनाये जाते हैं। उत्सव के बाद मिट्टी की प्रतिमाओं को मृतकों की अस्थियों की भाँति जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस प्रकार स्वयं देवता भी अस्थाई हैं। वे इस साल चले जाते हैं, पर उपनिषदों में वर्णित पुनर्मृत्यु एवं पुनर्जन्म की सत्यता का अनुकरण करने के लिये अगले साल फिर लौटेंगे।

उड़ीसा में जगन्नाथपुरी के मंदिर में देवताओं का प्रारूप चमकीले रंग के काठ, कपड़े और रेज़िन से बनाया जाता है। लगभग हर बारह सालों के बाद देवता बूढ़े हो जाते हैं और शरीर त्यागने की स्थिति में आ जाते हैं। एक गोपनीय अनुष्ठान के अंतर्गत आँखों पर पट्टी बाँधकर एक पुजारी द्वारा देवता की

आत्मा को पुराने शरीर के गुप्त कक्ष से निकाला जाता है और नये शरीर के गुप्त कक्ष में रखा जाता है। पुराने शरीर को दबा दिया जाता है और भव्य समारोह के साथ नये शरीर की मंदिर में प्रतिष्ठा की जाती है, फिर से जीवन के दैनिक, मासिक व वार्षिक चक्र को भोगने के लिये।

हिन्दू-जगत की मृत्यु से संबंधित दूसरी अनूठी विशेषता अशुद्धि से इसका संबंध है। अगर दक्षिणावर्त गतिविधियाँ भगवान के लिये हैं तो वामावर्त गतिविधियाँ पितरों के लिये आरक्षित हैं। श्मशान-घर जानेवाले बिना स्नान के घर में प्रवेश नहीं कर सकते। जिनकी पैतृक आजीविका चिता प्रवृत्त करना थी वे अस्पृष्य माने जाते थे, ऐसी धारणा जो आज भी हिन्दू धर्म की गैरकानूनी जाति प्रथा का कारक है। स्त्रियों की अवस्था खास अच्छी नहीं थी, रजस्वला स्त्रियाँ एवं विधवाएँ भी मृत्यु द्वारा स्पर्शित थीं अतः पृथक् कर दी जाती थीं।

मरघट तो सदियों से प्रबल-शक्तियों, जादू एवं तंत्रविद्या-का अखाड़ा माना जाता है, ऐसा स्थान, जहाँ देवता भयावह रूप लेते हैं जैसे भैरव, चामुंडा। और भूतों व श्वानों के संसर्ग में घूमते हैं। अनेक स्थानीय मान्यताओं के अनुसार पितरों के भूत शमन पुजारियों के वश में होते हैं जो रंग-बिरंगे चोगे पहनते हैं और सामाजिक अनुष्ठानों में प्राणियों का मार्गदर्शन व आशीष देने के लिये ‘समाधि’ में चले जाते हैं। तांत्रिक कथाओं में ओझा अस्थी, व खोपड़ी के प्रयोग से शव-साधना कर बेताल को वश में कर सकते हैं। इसे रोकने के लिये जनता को प्रोत्साहित किया जाता था कि वे ब्राह्मणों को वैदिक मृत्यु-विधानों द्वारा शव को पूरी तरह नष्ट करने, खोपड़ी तक को भी तोड़ने दें ताकि प्रेत यमलोक की यात्रा कर सकें जहाँ वे पुनर्जन्म लेने के पहले तक निरंतर भोजन पा सकें।

हिन्दुओं के पुनर्जन्म के सिद्धांत भारतीय मूल के अन्य मतों जैसे ही हैं जैसे बौद्ध और जैन धर्म। विश्व के अधिकतर भागों में मिथकों की रचना ‘मृत्युपर्यंत कोई जीवन नहीं’ के इर्द-गिर्द की गयी है। यहाँ तक की कुछ समुदाय भारत में भी हैं-जैसे लिंगायत एवं आधुनिक बौद्ध जो पुनर्जन्म को नहीं मानते। जब आप एक ही जीवन की परिकल्पना करते हैं, तो यह शरीर और यह जीवन ‘विशेष’ हो जाता है। दोनों ही समाधि और समाधि-स्मारक के माध्यम से मनाये जाते हैं, ऐसा अभ्यास जिसे रूढ़िवादी हिन्दुओं ने खारिज कर दिया क्योंकि विचार यह था कि मृतकों को आगे चलते जाना चाहिए, यहाँ रुकना नहीं।

हिन्दू संस्कृति को इसके मृत्यु-विधानों के माध्यम से अधिक समझा जा सकता है। अस्तु, प्रस्तुत है यह पुस्तक, अपने ग्यारह अध्यायों में । ग्यारह क्यों? इस बात का स्मरण कराने के लिये कि मृत्यु-भोज के लिये आमंत्रित पुरोहितों की संख्या विषम होती है, जबकि इसके विपरीत देवताओं के भोजन के लिये आमंत्रित पुरोहितों की संख्या सम होती है।

यह एक समन्वेषी प्रयास है, शैक्षिक नहीं। यहाँ कोई तर्क या विस्तार में संदर्भ व उद्धरण नहीं हैं। जो अधिक जानकारी चाहते हैं उनके लिये पुस्तक के अंत में विस्तृत ग्रन्थ-सूची है। इस बात से मैं पूर्णतया अवगत हूँ कि अंतिम संस्कार के अनेक स्रोत हैं, अनेक स्थानीय व क्षेत्रीय विविधताएँ और व्याख्याएँ हैं। यह पुस्तक सूचनाओं की विशाल सरणी का सरलीकृत व ग्राह्य विवरण है। उद्देश्य एक कोई सत्य को ढूँढ़ना नहीं वरन् हिन्दू धर्म की असंख्य अभिव्यक्तियों को सराहना है। मेरी सभी पुस्तकों की तरह इसे भी यह ध्यान में रखते हुए पढ़ें :

अनंत पुराणों में छिपा है शाश्वत सत्य,

इसे किसने देखा है ?

वरुण के हैं नयन हज़ार, इन्द्र के सौ

आपके मेरे केवल दो

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