जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हाल में ही एक किताब आई है ‘उर्दू शायरी समझें और सराहें’। किताब के लेखक हैं बाल कृष्ण और प्रकाशक हैं राजपाल एंड संज। आज इसी किताब के दो अंश पढ़िए जो शायरों के तख़ल्लुस तथा उर्दू के दीवान यानी कविता संग्रहों को लेकर हैं- जानकी पुल 

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तख़ल्लुस उस उपनाम को कहते हैं जिसे शायर अपनी पद्य रचनाओं में अपने असली नाम की बजाय प्रयुक्त करता है। अंग्रेज़ी में इसे pen-name कहते हैं। तख़ल्लुस के आधार पर यह पता चल जाता है कि अमुक रचना किस कवि की है। पद्य-रचनाओं में तख़ल्लुस का प्रयोग (जहाँ तक हमारी जानकारी है) अरबी, फ़ारसी तथा उर्दू भाषाओं की ही विशेषता रही है। पूर्वकाल में हिन्दी आदि में कवियों ने अपने नाम का एक भाग अपनी रचनाओं में प्रयुक्त किया-जैसे ‘कहे कबीर…’, ‘सूर स्याम’, ‘मीरा के प्रभु गिरधर नागर’ आदि, किन्तु उन्होंने अपने नाम के स्थान पर किसी अन्य शब्द का प्रयोग नहीं किया। हाँ, आधुनिक युग में अब हिन्दी में भी तख़ल्लुस रखने की प्रवृत्ति चल पड़ी है, जैसे ‘निराला’, ‘नीरज’, ‘बेढब’ उपनाम रखे गए हैं, किन्तु जो कवि अपने उपनाम रखते भी हैं वे भी अपनी रचनाओं के बीच में उनका समावेश नहीं करते। अंग्रेज़ी तथा योरुपीय भाषाओं में भी कोई-कोई लेखक pen-name रख लेते हैं किन्तु वे भी उनका समावेश अपनी रचनाओं में नहीं करते। किन्तु अरबी, फ़ारसी तथा उर्दू में कवि लोग केवल अपना उपनाम रखते ही नहीं, बल्कि उसे अपनी रचनाओं में अवश्य डालते हैं। साथ ही एक यह भी दिलचस्प बात है कि वे आम तौर पर अपनी रचनाओं में अपने उपनाम का प्रयोग इस तरह करते हैं जैसे वह कोई अन्य व्यक्ति हो। वे उसे सम्बोधन करके कोई बात इस तरह कहते हैं मानो वह कोई अन्य व्यक्ति है जिसे वे सम्बोधित कर रहे हैं।

उर्दू में तख़ल्लुस दो तरह के रखे जाते हैं :

1. कुछ कवि अपने वास्तविक नाम का एक अंश तख़ल्लुस के रूप में अपना लेते हैं। इस प्रकार के तख़ल्लुस के कुछ उदाहरण ये हैं : असद अल्लाह खां ‘असद’ (‘ग़ालिब’ का वास्तविक नाम असद अल्लाह ख़ां था। प्रारम्भ में उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘असद’ रखा था और बहुत वर्षों तक वे इसी का प्रयोग करते रहे। बाद में उन्होंने ‘ग़ालिब’ तख़ल्लुस रखा, किन्तु ‘असद’ का भी प्रयोग करते रहे), मुहम्मद मोमिन ख़ां ‘मोमिन’, इन्शा अल्लाह ख़ां ‘इन्शा’, मुंशी अमीर, ‘अमीर’ (मीनाई), सर मुहम्मद इक़बाल ‘इक़बाल’, मुहम्मद हफ़ीज़ ‘हफ़ीज़’ (जालंधरी), असग़र हुसैन ‘असग़र’ (गौंडवी), अख़्तर-उल-ईमान ‘अख़्तर’, फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’, शकील अहमद ‘शक़ील’ (बदायूँनी) आदि । किन्तु यह बात स्पष्ट है कि अपने नामों का अंश तख़ल्लुस के तौर पर इस्तेमाल करने वाले कवि तभी ऐसा करते हैं जब वे महसूस करते हैं कि उन नामांशों में ऐसा अर्थ है कि उन्हें खूबी के साथ तख़ल्लुस के रूप में अपनाया जा सकता है।

2. अधिकांश कवि कोई ऐसा शब्द तख़ल्लुस के लिए चुनते हैं जिसका शायरी की मूल भावना के साथ सम्बन्ध हो और जिसे वे अपने मानस अथवा भाव-भूमि का द्योतक समझें। कुछ उदाहरण देखिए-मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी ‘सौदा’ (सौदा=पागलपन), शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ‘ज़ौक़’ (ज़ौक = काव्य में उच्च कोटि की अभिरुचि), ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ (ज़फ़र-विजय), नव्वाब मिर्ज़ा ख़ां ‘दाग़’ (दाग़ = दिल पर लगा हुआ घाव, अथवा उसका निशान, दुख, रंज), हरिचन्द ‘अख़्तर’ (अख़्तर=तारा), अब्दुल हई ‘साहिर’ (साहिर-जादूगर), शौकत अली ख़ां ‘फ़ानी’ (फ़ानी = नश्वर), रघुपति सहाय फ़िराक़ (फ़िराक़ वियोग) आदि ।

अब केवल कुछ तख़ल्लुस देने पर ही हम सन्तोष करेंगे (इनके अर्थ भी साथ दिए जा रहे हैं ताकि पाठक तख़ल्लुस के सम्बन्ध में कवियों की एप्रोच को समझ सकें): नसीम (ठण्डी और धीमी हवा) शाद (प्रसन्न), शादां (प्रसन्न), बेखुद (आत्मविस्मृत), साइल (प्रार्थी), अकबर (महान), सुरूर (आनन्द), जोश, सीमाब (पारा), अज़ीज़, हस्रत (अफ़सोस, अपूर्ण अभिलाषा), नज़र, महरूम (वंचित), वफ़ा, अर्श (सबसे ऊँचा अर्थात सातवां आसमान), अदम (अनस्तित्व), मज़रूह (घायल), बिस्मिल (घायल), मुनव्वर (प्रकाशमान, रौशन), ताबां (रौशन), दिल, जिगर, मजनूं, तमन्ना (तीव्र इच्छा), शोला, आज़ाद, आसी (दुखी), तालिब (माँगने वाला, चाहने वाला), ज़िया (रौशनी, चमक), मेह (सूरज), कौसर (स्वर्ग में बहने वाली शराब की नहर), तस्नीम (स्वर्ग में बहने वाली दूध या शहद की नहर), अश्क (आँसू), अबद (अनन्तता, अनश्वरता की स्थिति), कैफ़ (आनन्द, दीन, दुखी), आदि, आदि ।

• कुछ कवियों का तख़ल्लुस इतना विख्यात हो जाता है कि लोग उनका असली नाम भूल ही जाते हैं और उन्हें केवल तख़ल्लुस से ही याद रखते हैं।

कुछ कवि अपने तख़ल्लुस के बाद अपने जन्म-स्थान का नाम भी जोड़ देते हैं। इसके अनेक उदारहण हैं, जैसे- ‘नज़ीर अकबराबादी (अकबराबाद आगरे को कहते हैं), ‘फ़ानी’ बदायूंनी, ‘हाली’ पानीपती, ‘अज़ीज’ लखनवी, ‘अकबर’ इलाहाबादी, ‘इस्माइल’ मेरठी, ‘शाद’ अज़ीमाबादी (अज़ीमाबाद पटना को कहते हैं), ‘जिगर’ मुरादाबादी, ‘अबद’ सरहिन्दी, आदि। किन्तु कविता में तख़ल्लुस के साथ जन्म-स्थान नहीं लिखा जाता। उदाहरण- कविता में ‘जिगर’ शब्द लिखेंगे, ‘जिगर मुरादाबादी’ नहीं।

कुछ कवि अपने तख़ल्लुस के बाद अपने उस्ताद के तख़ल्लुस का भी संकेत दे देते हैं। वे अपने उस्ताद के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए ऐसा करते हैं। किन्तु कविता में उस्ताद का तख़ल्लुस कवि के तख़ल्लुस के साथ नहीं जोड़ा जाता। उदाहरण-‘अबद’ सीमाबी (अबद के उस्ताद ‘सीमाब’ थे), ‘अब्र’ अहसनी (‘अहसन’ के शागिर्द ‘अब्र’), ‘ज़ार’ अल्लामी (‘अल्लाम’ के शागिर्द ‘ज़ार’ थे), आदि ।

उर्दू में एकाध कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने कोई तख़ल्लुस ग्रहण नहीं किया, जैसे-पंडित बृजनारायण चकबस्त लखनवी (चकबस्त उनकी उपजाति थी) ।

तख़ल्लुस के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी कवि का अपने तख़ल्लुस पर एकाधिकार नहीं होता। किसी भी तख़ल्लुस को कितने ही कवि धारण कर सकते हैं। ‘अख़्तर’ कम-से-कम छह विख्यात कवियों का तख़ल्लुस है। ‘साहिर’ केवल पंजाब में ही चार विख्यात कवियों ने अपना तख़ल्लुस रखा। ‘जिगर’, ‘तालिब’, ‘जोश’ आदि अनेक तख़ल्लुस एक से अधिक कवियों ने धारण किए हैं। नैतिक दृष्टि से हमें यह बात अनुचित लगती है, क्योंकि यदि दो या दो से अधिक कवियों ने एक ही तख़ल्लुस धारण किया हुआ हो तो यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कौन-सी रचना किस कवि की है।

दीवान’ तथा काव्य-ग्रन्थों में रचनाओं का क्रम

किसी कवि की रचनाओं के संग्रह को दीवान कहते हैं। यह शब्द तथा संग्रह की यह विशेष पद्धति फ़ारसी साहित्य-जगत में प्रचलित थी, वहीं से यह उर्दू में आई। सामान्यतः ‘दीवान’ में पहले ग़ज़लें होती हैं, उनके समाप्त होने के बाद क़िते, रुबाई तथा अन्य रचनाएँ। मसनवी, मर्सिये आदि दीवान में सम्मिलित 

नहीं किए जाते थे। दीवान को तरतीब देने का क़ायदा यह है कि उर्दू वर्णमाला के अक्षर (अलिफ़, बे, ते, वे, टे आदि) जिस क्रम में आते हैं उसे दृष्टि में रखकर प्रत्येक ग़ज़ल के शेरों के दूसरे मिस्त्रे के अन्तिम शब्द का जो अन्तिम अक्षर हो उसी क्रम में ग़ज़लों को तरतीब दे दी जाती है। जिन ग़ज़लों का अन्तिम अक्षर ‘अलिफ़’ है वे सबसे पहले आएँगी, फिर ‘बे’ अक्षरों वाली, इत्यादि। इस तरतीब में रचना-काल-क्रम से रचनाएँ रखने का प्रश्न ही नहीं उठता। एक ही अक्षर की ग़ज़लें भी रचनाकाल के क्रम में नहीं रखी जातीं-उन्हें भी मनमाने ढंग से आगे-पीछे रख दिया जाता है।

कुछ कवि अपने जीवन में एक से अधिक दीवान रच देते हैं। किसी आयु तक एक दीवान पूरा हो गया, तो उसे प्रकाशित कर दिया, बाद में कुछ वर्षों बाद दीवान तैयार हो गया तो उसे प्रकाशित कर दिया। किन्तु एक से अधिक दीवान रचने वालों की संख्या अधिक नहीं है। मीर तक़ी ‘मीर’ ने (सन् 1724-18 10) जो आज तक ग़ज़ल के ‘बादशाह’ कहलाते हैं, उर्दू में छह दीवान छोड़े।

दूसरा

‘आतिश’ के दो ‘दीवान’ हैं।

पूर्व काल में प्रत्येक कवि की यह हार्दिक अभिलाषा होती थी कि वह साहबे-दीवान कहलाए, अर्थात कम-से-कम एक दीवान की अवश्य रचना कर सके। ‘दीवान’ के लिए यह भी आवश्यक माना जाता था कि उर्दू वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर पर ग़ज़लें हों। उर्दू में कई अक्षर ऐसे हैं जिन पर समाप्त होने वाले शब्द बहुत कम हैं। ऐसे शब्दों के क़ाफ़िये मिलने बहुत मुश्किल होते हैं। फिर भी कवि लोग दीवान पूरा करने की इच्छा पूर्ति के लिए ऐसे अक्षरों वाले शेर कहने का भी प्रयास करते थे। फिर भी कुछ अक्षर रह ही जाते थे।

दीवान में ग़ज़लों की संख्या निर्धारित नहीं है। कुछ शायरों के दीवान बहुत बड़े हैं, कुछ के मध्यम और कुछ के छोटे भी हैं।

दीवान को तरतीब देने की परम्परागत परिपाटी में एक बहुत बड़ा दोष था और वह यह कि चूँकि उसमें रचनाएँ रचना-काल-क्रम से एक-दूसरे के बाद नहीं रखी जाती थीं, इसलिए दीवान के आधार पर आधुनिक युग की समीक्षा-पद्धति के अनुसार कवि की काव्य कला के क्रमिक विकास तथा रचनाओं के इतिहास का कुछ पता नहीं लग पाता, और उसकी उचित समीक्षा नहीं हो पाती। अस्तु।

आजकल ‘दीवान’ के रूप में रचनाओं को तरतीब देने की परिपाटी बहुत कम हो गई है। आजकल जिन्हें ‘नज़्म’ कहते हैं उनके लिखने का रिवाज़ 60- 70 वर्ष पहले था ही नहीं, किन्तु आजकल शायद ही कोई ऐसा कवि हो जो 

थोड़ी-बहुत नज़्में न कहता हो। अब रचनाओं के संग्रहों को दो तरह तरतीब दी जाती है- (1) पहले सारी ग़ज़लें रख दीं, फिर नज़्में (या पहले नज़्में, फिर ग़ज़लें), उसके बाद रुबाइयाँ, क़िते, क़सीदे, विविध शे’र, ‘तारीखें’ आदि । अथवा (2) सब रचनाओं को रचना-काल के अनुसार क्रमिक रूप से रख दिया। इस क्रम में कहीं ग़ज़ल आ गई, कहीं नज़्म, कहीं क़िता आदि। ग़ज़लों और नज़्मों को अलग-अलग छपवाने में भी कभी-कभी शायर इन उपविधाओं को रचना- काल-क्रम में रखता है। कोई ‘बढ़िया’ रचनाएँ पहले देता है, हल्की बाद में। कोई कवि ग़ज़लों, रुबाइयों और क़ितों को एक पुस्तक में तथा नज़्मों को दूसरी पुस्तक में देता है। कुछ ने रुबाइयाँ अलग पुस्तक में छपवाई हैं। सारांश यह कि आजकल पुस्तक में रचनाओं का कोई क्रम निश्चित नहीं है।

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