जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर पढ़िए कुमारी रोहिणी का यह लेख जो स्त्री और भाषा को लेकर है। कुमारी रोहिणी कोरियन भाषा की अध्येता हैं और कोरियन, हिन्दी तथा अंग्रेज़ी में नियमित रूप से लिखती हैं- मॉडरेटर

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महिलाओं की भाषा या भाषाओं में महिलाएँ, ये दोनों ही विचार ऐसे हैं जो अक्सर मुझे अपनी ओर खींचते रहते हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं, एक तो यह कि मैं ख़ुद एक स्त्री हों और दूसरा यह कि स्त्री होने के साथ ही अपना काम भी भाषाओं के इर्द-गिर्द ही है। भाषा चाहे देशी हो, मातृ हो या विदेशी, तीनों ही परिस्थितियों में मुझे एक ही समस्या या यूँ कहें कि उलझन का सामना करना पड़ा या पड़ता रहता है। तीन भाषाओं में आवाजाही करते रहने से चाहे-अनचाहे दिमाग़ तुलना करता ही रहता है। मेरी मातृ भाषा हिन्दी है, अध्यन-अध्यापन की भाषा कोरियाई और कामकाज और एक हद तक रोजमर्रा के जीवन में भाषा का माध्यम अंग्रेज़ी ही होता है। ऐसे में संभव ही नहीं कि आप भाषाओं, उन भाषाओं के नुआंस और सुन्दरता के साथ ही उनकी सीमाओं के बारे में सोचे बिना रह सकें।

मैं अक्सर अपने लिखे-कहे में इस बात का ज़िक्र करती आई हूँ कि कोरियाई और अंग्रेज़ी में एक समानता और मेरे अपने शब्दों में कहूँ तो एक सुंदरता यह है कि इन दोनों भाषाओं के निर्माताओं ने अपनी भाषा को बहुत हद तक लिंग की सीमा से मुक्त रखा है। अंग्रेज़ी में तो फिर भी ही (He) और शी (She) जैसे पद हैं भी, लेकिन कोरियाई तो इससे भी मुक्त है। लेकिन जब हम हिन्दी को देखते और उसकी बारीकियों में जाते हैं तो हमें लैंगिक विशेषणों और पदों की भरमार मिलती है। कहने का तात्पर्य यह बिलकुल नहीं है कि हिन्दी एक मिसोजिनिस्ट भाषा है या फिर इसमें महिलाओं के लिए जगह नहीं है। लेकिन हम इस बात से मुकर भी नहीं सकते कि चीजों तक को स्त्रीलिंग और पुलिंग में बाँट देने वाली भाषा इस विभेद से मुक्त होगी! फिर हम सोचने लग जाते हैं उस भाषा के इतिहास और विकास के बारे में और पाते हैं कि भाषाओं के निर्माण के केंद्र में भी तो पुरुष ही रहे हैं (कम से कम लिखित रूप में)। ख़ैर, अब स्थिति में थोड़ा परिवर्तन है या महिलाओं की स्थिति धीरे-धीरे ही सही बदल रही और बदले जाने की संभवनाएँ भी प्रबल होती जा रही हैं।

भाषा का एक अर्थ है बोलचाल, और बोलचाल का अर्थ हुआ संप्रेषण, अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति अपने विचारों की, विचार जो कई बार एक्वायर्ड होते हैं तो कई बार स्वतः ही उपजते हैं। भाषा के मामले में भी ऐसा ही है। जिस तरह स्वतः उपजे गये विचार स्वच्छंद और बंधनमुक्त होते हैं लेकिन पढ़-लिख कर या ग़ैर-प्राथमिक स्रोतों से निर्मित विचार नहीं, उसी तरह एक्वायर्ड की गई भाषा स्वच्छंद और उन्मुक्त होती है। बिलकुल उस बच्चे की तरह जो बिना किसी व्याकरण और लैंगिक भेद के कुछ बोलता है और हम उसकी बोली सुन सुन अघाते नहीं हैं। लेकिन फिर उसी स्वच्छंद भाषा को समाज, संस्कृति और अंत में लैंगिक अंतरों का जामा पहना दिया जाता है।

दूसरा बिंदु है भाषा का उपयोग। हमारे द्वारा बोली जाने वाली भाषा एक हद तक संदर्भात्मक अर्थ और दृष्टिकोण को भी दर्शाती है। महिलाओं की भाषा और महिलाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा दोनों ही पुरुषों द्वारा और पुरुषों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा से अलग होती है। इसलिए महिलाओं और पुरुषों द्वारा इस्तेमाल में लाई गई भाषाओं द्वारा हम उनके दृष्टिकोण, उनके सोचने-समझने और जीवन में उनकी प्राथमिकताओं को एक स्तर तक समझ भी सकते हैं। तो महिलाओं की भाषा का आधार क्या है फिर? दरअसल महिलाओं की भाषा का आधार यह विचार है कि जीवन के ज़रूरी समझे जाने वाले मुद्दों में महिलाओं की भूमिका या तो नगण्य है या फिर गौण। इस बात को भाषाविद् रॉबिन लैकॉफ के इस कथन से समझा जा सकता है कि  “लिंग हमारी पहचान की भावना का आधार है: बहुत कम उम्र से ही, हम कौन हैं और हमें क्या करना चाहिए और क्या कर सकते हैं, ये सभी सवाल इस बात पर निर्भर करते हैं कि हमने बचपन में ही सीख लिया है कि हम लड़की हैं या लड़का।”

इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि अपने वैज्ञानिक ढाँचे से परे जाकर कोई भी भाषा लैंगिक स्तर पर अपने उपयोग और प्रयोग के आधार पर भी विभाजित होती है या इस बात की संभावना बनाए रखती है। लैंगिक आधार पर भाषाओं के उपयोग को विषय बनाकर काम करने वाले लोगों का कहना है कि महिलाओं की भाषा बहुत मायनों में पुरुषों की भाषा से एकदम अलग होती है। महिलाएँ आपसी सामंजस्य वाली बातचीत को तरजीह देतीं हैं, लोगों के बीच समर्थन और सौहार्द की भावना को विकसित और प्रोत्साहित करने वाली शब्दावलियों का इस्तेमाल करती हैं। जबकि पुरुषों की भाषा का विश्लेषण करने पर उनमें भावनाओं की कमी देखी जा सकती है। महिलाओं की भाषाओं के केंद्र में, उनके द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली शब्दावलियों का उद्देश्य इनक्लूसिवेंस होता है। वहीं पुरुष अपनी भाषा में ज्ञान, तथ्य, कौशल, क्षमता आदि जैसे विषयों पर जोर देते हैं। आम बातचीत के दौरान महिलाओं की भाषा से राय या सलाह देने जैसी भावना का बोध होता है, जबकि इसके ठीक उलट पुरुषों की भाषा अनुभवों, तथ्यों, अध्ययनों और साक्ष्यों के आधार पर निष्कर्षात्मक सुनाई देती है। महिलाएँ केवल सामाजिक स्तर पर ही नहीं बल्कि भाषिक स्तर पर भी कम मुखर पाई गई। मनोवैज्ञानिक टिमोथी जे का कहना है कि एक अमरीकी पुरुष एक अमरीकी महिला की तुलना में तीन गुना अधिक गालियों का इस्तेमाल करता है।

इसके अलावा जहां तक बात है संवाद से जुड़े प्रबंधन की तो, महिलाओं में अनौपचारिक वातावरण में बातचीत करने की सहज प्रवृति होती है। कुछ अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि महिलाएं भाषायी रूप से बातचीत में अधिक सहायक होती हैं – वे अपनी बात को बनाए रखने और उसे ही आगे बढ़ाने के लिए अधिक मेहनत करती हैं, जबकि पुरुष कुछ-कुछ अंतराल पर अपनी बातचीत में नई विषयों को शामिल कर लेते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि भाषा और संवाद पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक महत्व रखते हैं, महिलाएँ अपनी भाषा को लेकर सचेत होती हैं क्योंकि इससे कहीं ना कहीं उनकी सामाजिक स्थिति को परिभाषित किया जाता है। अगर भाषा के कौशल की बात करें, तो ऊपर की बातों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महिलाओं का भाषिक कौशल पुरुषों की तुलना में उम्दा है और उनमें भाषा को बरतने और संवारने का हुनर भी।

भाषा को प्रतिस्पर्धा में आगे जाने के लिए एक टूल की तरह इस्तेमाल करने वाले पुरुषों की तुलना में महिलाओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा सहयोगी प्रवृत्ति की होती है जो समानता और सौहार्द की उनकी पसंद को भी दर्शाती है।

इसलिए कहना ग़लत नहीं होगा कि इस आधी आबादी को चुप नहीं रहना चाहिए क्योंकि वे जब भी बोलेंगी (भले कितना बुरा ही क्यों ना बोलें) पुरुषों से बेहतर ही बोलेंगी, क्योंकि ना तो उनका नियत ख़राब है और ना ही उनकी भाषा।

ख़ैर, वैश्विक स्तर पर महिलाओं की स्थिति में आ रहे सकारात्मक बदलावों और तेज़ी से इस बदलते समय के साथ भाषिक स्तर पर किए गये ये शोध-आधारित विभाजन और विश्लेषण कब तक और किस हद तक प्रासंगिक रहेंगे इस पर भी सोचा जाना ज़रूरी है। क्योंकि चाहे वह रुचि हो, गतिविधि हो, कौशल हो या क्षमता, स्त्रियों के लिए इन सबका स्वरूप बदल रहा है और बदलते स्वरूप के साथ परिभाषाओं को भी बदले जाने की ज़रूरत है।

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