उड़िया भाषा के प्रसिद्ध कवि रमाकान्त रथ का कल भुबनेश्वर में निधन हो गया। उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत अनेक बड़े पुरस्कार-सम्मान मिले थे। भारत सरकार ने उनको पद्मभूषण से भी सम्मानित किया था। आइये आज उनकी कुछ कविताएँ पढ़ते हैं। अनुवाद दिनेश कुमार माली का है- मॉडरेटर
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संबंध
१
पिछले जन्म में सिर धोकर
बाल सुखाते समय उसका हँसना
रो धोकर उसका आँसू पोंछना
मैंने देखा है.
ऐसा हुआ उस दिन
उसके भीगे बाल भीगे ही रह गए
इससे वजन इतना बढ़ा कि उसकी गर्दन झुक गई
उस झुकी गर्दन पर किसी ने प्रहार किया.
ऐसा हुआ उस दिन
बाल सूखने से पहले उसके आँसू बह गए
आँसू गिरे जहां
उस जगह पर बहुत पहले
पत्थर का रथ और पहिया बन रहे थे
वहां पर बसन्त ऋतु में
मेरा कोई साथी नहीं था ,
झाऊँ-वन, नारियल पेड़ों के झुरमुट में
खिलते कमल के फूल
बटोहियों का मन मोह रहे थे.
२
उस दिन के बाद प्रार्थना बंद हो गई
फिर न तो मन के भीतर घंटी बजी
और न ही घी के दीये की रोशनी में
आँखों में वह चमक उभरी
उस दिन के बाद बादलों और समुद्र के
देवताओं में बातचीत बंद हो गई
उस दिन से बादलों में जल-वाष्प और
समुद्र में बचा था केवल थोड़ा नमकीन पानी
आकाश में केवल चमकीले तारे और
रास्ता बन गया हत्यारों की छावनी
भाषा झूठे कथाकारों का रहस्य
समय कुछ भी नहीं
मेरे और भगवान् के झूठे संबंधों की
षडऋतु अनुयायी
एक अलिखित किताब के छह अध्याय
३
उसके बाद इतना डर कि
चन्द्र-किरणों या तारों के सौन्दर्य की कथा किसी को याद नहीं
सारे वर्तमान सपनों की कुत्सित कहानी
कौन है वह अवसर देखते ही छीन लेता है प्रफुल्लित चेहरों की आभा?
नर्क का इतना लम्बा समय!
कब ख़त्म होगा?
ममता के निषिद्ध शब्द की परिपूर्ण आत्मकथा?
मै चीत्कार करता हूँ
मेरे भाग्य को धिक्कारता हूँ
धिक्कार के उस प्रकाश को मैंने देखा था
किसी पिछले जन्म में
फिर भी मन को ऐसा लग रहा है
उसकी स्मृति इस जन्म में भी मौजूद है
लगता है आशा और इतिहास मेरे नहीं है
दूसरे अनेक लोगों की तरह
उस स्मृति में सड़े मांस की बदबू आती है
और अगरबत्ती की खुशबू
जो जला रही है माता के मंदिर में
भीगे बालों वाली एक बेटी को !
बहुत सालों बाद इस सूखी जमीन पर
भीगे बादल उतर रहे हैं
मेरी मृत्यु के आस-पास
मेरे जीवन के आखिरी समय
4.परमायु
एक भी प्रश्न पूछे बिना
मैंने तुमको अपना जीवन दिया
जीवनदान स्वभाविक था क्योंकि तुमने
मौत की तरह आँचल पसार रखे थे
नहीं तो, मौत के भय का भयानक चेहरा
मेरे आगे क्यों फेंक दिया?
तुम्हारे पास तो हर समय नील गगन था
नरम नरम धूप थी
हल्के सफ़ेद बादलों की घटा थी
अरण्य में भटकते निर्वासित लोगों
की मासूम हँसी थी
चिड़ियों की चहचहाहट थी
जीवित पहाड़ों की अचानक जोर-जोर से
लेने वाली साँस थी
मैं तुम्हें कई बार समझ नहीं पाया
तुम किससे बने हो?
हमारे असंख्य भय के अन्दर छिपे साहस से
या चांदनी में पड़ी बन्दूक की नाल से
जल्लाद की आँखों के किसी कोने में
चमकते हुए आंसू से।
तुम क्या वह समय हो,
जो पृथ्वी के बरामदे में चुपचाप खड़े हो गए थे?
जब सड़कें खून से धोई जा रही थीं
जब इस्पात और शिशुओं की अस्थियों से
दीवार को मजबूत किया जा रहा था
मैंने कुछ भी नहीं पूछा,
केवल देखा जितनी दूर तक मेरी निगाहें जा सकती थीं
चारों तरफ फूल ही फूल
पत्थर का हर टुकड़ा माणिक और हर सड़ी हुई लाश
खड़ी होकर शरीर से कीचड़ पोंछ रही थीं
हर झूठी बात जलकर राख बन रही थी
हर हिंसक हाथ धूल में मिल रहा था
हर यंत्रणा ऐसे लग रही थी मानो
स्मृति-विभ्रम के सिवाय और कुछ भी नहीं हो.
तुम्हारी साँस के अन्दर जाते समय मुझे
कहीं कोई अमंगलकारी खबर नहीं मिली
असमय उल्लू के रोने की आवाज नहीं सुनाई पड़ी
ना ही किसी सियार या कुत्ते के भोंकने का स्वर सुनाई पड़ा
बल्कि बहुत दिन पुराना सपना साकार होते दिखा
मरुभूमि श्यामल दिखने लगी
धरती के समस्त अनाथालयों के
सारे बच्चें चलते बनें.
सारे जेलखानों को लेकर सारे पहरेदार रफू-चक्कर हो गए
मैंने देखा तुम्हारे सिर पर एक भी सफ़ेद
बाल नहीं था और ना ही
तुम्हारे शरीर पर किसी चोट का कोई नामोनिशान था
मैं बिना मरे कैसे रह पाता,
युगों-युगों से ताकने वाली आँखों के इशारों के बाद
तुमको छूने मात्र से मुझे लगा
असंख्य पुरानी यात्राओं की उत्तेजना
फिर से प्रज्ज्वलित हो गई हो
मेरे मांस, मेरी शिरा-धमनियों में
और मैं एक जहाज की तरह
तैरता जा रहा हूँ
थलकूलविहीन अंतरंग समुद्र में