आज महेश कुमार का यह शोध अलेख पढिए जिसमें उन्होंने मेक्सिको के आदिवासियों के जापटिस्ट आन्दोलन का भारत के समकालीन आदिवासी आंदोलन और आदिवासी उपन्यासों में समानता की पड़ताल की है और उसका परिणाम क्या हुआ क्या हो सकता था/ है इसे भी रेखांकित किया है। महेश काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं । उनके कई शोध-आलेख, समीक्षाएँ पक्षधर, वागर्थ, आलोचना, सबलोग, जानकीपुल, समकालीन जनमत, पोषम पा, सुचेता, फॉरवर्ड प्रेस आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं – अनुरंजनी
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जापटिस्ट आंदोलन के जनक एमिलियानो जापाटा थे। वे जिस समय में हुए उस दौर में मेक्सिको के आदिवासी हेसिंडा (hacienda) से अपनी खेती और जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे। एमिलियानो का संबंध चियापास के इलाके से था। किशोरावस्था से ही वो समान भूमि वितरण और कृषि सुधार के लिए प्रतिबद्ध थे। वे मदेरो (madero) सरकार की तरफ से प्रोर्फिरियो डियाज (prorfirio diaz) के खिलाफ इस शर्त पर लड़े कि जीतने के बाद आदिवासियों और किसानों को उनकी जमीन वापस मिल जाएगी और वृक्षारोपण की जगह खेती ही होगी। डियाज के हारने के बाद मदेरो का इरादा बदल गया। 1910-11 में एमिलियानो ने ‘प्लान ऑफ अयाला’ (plan of ayala) बनाया जिसका उद्देश्य मदेरो की सरकार को चुनौती देना तथा हेसिंडा से जमीन वापस लेकर समान वितरण करना था। इस आंदोलन का प्रचलित नारा ‘जमीन और स्वायत्तता’ (land and liberty) का था। इस नारे का प्रभाव एमिलियानो के हत्या के बाद भी उनके सैनिकों को प्रेरित करता रहा। 10अप्रैल 1919 को उनकी हत्या कर दी गयी। उनकी हत्या के बाद जापटिस्ट सेना चियापास के जंगलों में और आसपास के शहरों में जनसपंर्क अभियान में जुट गए। इस बीच आदिवासियों का शांतिपूर्ण आंदोलन चियापास में चलता रहा। उनकी माँग कृषि कानूनों में सुधार और जमीन के बँटवारे को लेकर थी। उनकी कुछ माँगे मान ली गयी। “1950-60 का दशक चियापास में आर्थिक समृद्धि का रहा लेकिन भूमि अधिग्रहण और वन कटाई लगातार होती रही और विकास मेक्सिको का हुआ। चियापास के आदिवासी अब शांतिपूर्ण आंदोलन से ऊबने लगे। इधर 1969 में जापटिस्ट सैनिकों ने नेशनल लिबरेशन फ़ोर्स बनाकर और बिशप सैमुएल रयूज़ के सहयोग से आदिवासियों के साथ एक मजबूत सामाजिक रिश्ता बनाया। 1974 में बिशप ने फर्स्ट इंडियन कांग्रेसी के जरिये आदिवासियों का सम्मलेन किया। 1983 में मेक्सिको के शहरी जापटिस्ट लड़ाकों, पूर्वी चियापास के आदिवासियों ने मिलकर एक नया दल बनाया जिसका नाम पड़ा ‘जापटिस्ट आर्मी ऑफ नेशनल लिबरेशन’ (EZLN)।”[1] यहाँ दो तरह के जीवन दर्शन, विचारधारा और गुरिल्ला तकनीक का गठजोड़ हुआ जिसकी ताकत 1994 में पूरा मेक्सिको जान गया।
दुनिया की नजरों में यह आंदोलन 1994 में आया जब जापटिस्ट सेना मेक्सिको तक चली आयी। इस आंदोलन ने दुनिया को प्रचलित शासन व्यवस्था से इतर एक वैकल्पिक स्वशासन व्यवस्था और जीवनशैली से परिचित कराया जो आपस की नेटवर्किंग और श्रम के उचित सम्मान से स्थापित हुआ था। यह आंदोलन दो तरह के विचारधाराओं के सहियापन से पैदा हुआ था। आदिवासियों के संघर्ष की विचारधारा और पद्धति तथा मार्क्सवादी सिद्धांत की क्रांति संबंधी पद्धति के गठजोड़ से यह आंदोलन उभरा और दुनिया के शोषित किसान, मजदूर और आदिवासी समुदाय को वैकल्पिक शासन व्यवस्था के संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
“इस तरह नब्बे के दशक में मेक्सिको के आदिवासियों के बीच जापटिस्ट केंद्रीय नायकों की तरह उभरे।”[2] यही कारण है कि रोजर बरबाख़(Roger Burbach) यह मानते हैं कि “जापटिस्ट आंदोलन पहला उत्तर-आधुनिक क्रांति है। (उत्तर आधुनिक का तात्पर्य यहाँ उस काल से है जब घोषणा की जा रही थी कि 20वीं सदी का आखिरी दशक के समय को उत्तर-आधुनिक कहा जाना चाहिए) इसका कारण उनके द्वारा इंटरनेट का उपयोग, सधी हुई भाषा का प्रयोग (clever language) और सांकेतिक रूप से सत्ता को अपदस्थ करना (symbolic subversion of power) है।”[3] जापटिस्ट आंदोलन के महान नेतृत्वकर्ता मार्कोस के मिथकीय व्यक्तिव और उनके द्वारा निर्मित किए गए अंतर्राष्ट्रीय पहचान से ऐसा संभव हुआ। मार्कोस नकाबपोश थे। अपने इस रूप को उन्होंने तीन तरह से विस्तार दिया।
1. “व्यक्ति मार्कोस को उन्होंने यूनिवर्सल मार्कोस में बदल दिया।
2. चियापास के लोगों को वीर लड़ाकू बनाया जो बेहतर भविष्य के लिए अतीत से लड़ रहे हैं।
3. उन्होंने मेक्सिकन सरकार को नव-उदारवादी व्यापारिक नीतियों के प्रतिनिधि के रूप में देखा और जनता में इसे नव-उदारवादी आदमखोर(neo- liberal beast) की तरह प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की।”[4]
जापटिस्ट आंदोलन को उत्तर-आधुनिक कहने का कारण यह है कि इन्होंने अपने आंदोलन में अत्याधुनिक और वैकल्पिक सूचना तंत्रों का उपयोग करते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन समर्थक बनाए। मुख्यधारा की मीडिया में अपने ऊपर होने वाले हमलों और नकारात्मक छवि को अपदस्थ करने के लिए उन्होंने सोशल मीडिया, ईमेल और अन्य वैकल्पिक माध्यम चुने और छवि निर्माण को उत्पाद में बदल दिया।
“बारह भाषाओं में जापटिस्ट ने साइट्स बनाए जिसमें बौद्धिक आलेख, फोटोग्राफी और जापटिस्ट उत्पादों के विज्ञापन प्रकाशित होते थे। कार्टून, टीशर्ट और यहाँ तक कि कंडोम बनाए गए जिसे चियापास के मजदूर बनाते थे और उसपर मार्कोस के फ़ोटो और स्टाम्प लगा रहता था।”[5] मार्कोस के मिथकीय चरित्र का जलवा यह था कि “दक्षिण अफ्रीका वालों के लिए वह अश्वेत था, इजरायल के लिए फिलिस्तीनी और महिलाओं के लिए मेट्रो में यात्रा करने वाली साधारण महिला। उसने एक बार मजाक में कह दिया कि वह ‘गे’ है तो मेक्सिकन मीडिया ने सच मानकर मुखपृष्ठ पर छापा। मार्कोस लोगों में एक कलाकर, स्त्रीवादी, मजदूर और बहुभाषिक व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध था।”[6]
उसके इस व्यापक मिथकीय चरित्र ने “उत्तरी अमेरिका के मजदूरों को उत्तरी अमेरिकन मुक्त व्यापार समझौता (NAFTA) का विरोध करने के लिए एकजुट किया। सेन फ्रांसिस्को में एंटी-ग्लोबलाइजेशन डीजे समूह ने उसपर संगीत बनाए, 1997 में पीमा (pima) समूह ने जापटिस्टों पर एक परफॉर्मेंस किया। चियापास के विभिन्न सांस्कृतिक और भाषिक समूह के लोगों ने आपस में मिलकर काम करना शुरू किया।”[7] इस तरह मार्कोस के मिथकीय चरित्र ने यह साबित किया कि मिथक के जरिये लोगों को एकजुट किया जा सकता है। “मार्कोस की एक और सबसे बड़ी सफलता रही कि उसने ‘फ्री ट्रेड’ के बदले ‘फेयर ट्रेड’ ”[8] को मेक्सिको में लोकप्रिय बनाया।
मार्कोस की विरासत ने दो महत्वपूर्ण काम किए। पहला, “आदिवासियों के अधिकार और संस्कृति को कानूनी तरीके से संरक्षित किया। इसके लिए जापटिस्ट आर्मी ऑफ नेशनल लिबरेशन (EZLN) ने मेक्सिकन सरकार के साथ सेन आंद्रे एकॉर्ड (san andre’s accord) पर जनवरी 1996 पर हस्ताक्षर किया जो अंततः अप्रैल 2001 में लागू हुआ। दूसरा, आदिवासियों की स्वायत्तता (autonomy) को लागू करते हुए जापटिस्ट सेना ने समानांतर सरकार बनाई जिसे उन्होंने ‘म्युनिसिपास ऑटोनॉमस’ (municipas autonomous) कहा।”[9]
आदिवासियों की स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए जापटिस्ट सेना मेक्सिकन सरकार से बातचीत के चार सत्रों में शामिल हुई। इन वार्त्ताओं में “स्वतंत्र म्युनिसिपॉल्टी बनाने की माँग की गई, सांस्कृतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करने को कहा गया तथा वैसे जनसरोकार के मुद्दे जिससे आदिवासियों का जीवन प्रभावित होता हो, उनमें उनकी सहभागिता सुनिश्चित करने पर बल दिया गया।”[10]
स्वायत्तता की इस माँग को ‘कोकोपा’ (cocopa) प्रपोजल कहा गया। अर्नेस्ट जेडीलो (Ernest zedillo) को इसमें ‘बाल्कनीकरण’ (Balkanization) का खतरा लगा और वार्त्ता टूट गई, तब ईजेडएलएन (EZLN) ने जापटिस्ट समर्थित आदिवासी क्षेत्रों में स्वतंत्र म्युनिसिपॉल्टी की स्थापना की। स्थानीय जनता ने आम सहमति से अपना नेता चुनकर पूर्ण शैक्षणिक और प्रशासनिक ढाँचा खड़ा कर लिया। इसकी लोकप्रियता ने संवैधानिक म्युनिसिपॉल्टी व्यवस्था को अपदस्थ कर दिया। जब सरकार ने दमन तेज किया तब उन्होंने दो काम किए। पहला, अप्रैल 2001 में जापटिस्ट समर्थकों ने पूरे मेक्सिको में घूमकर अपने विचार रखे, प्रदर्शन किया और अपनी माँगे मेक्सिकन जनता के सामने रखी। इस काम में उन्होंने डिजिटल प्लेटफार्म का रचनात्मक उपयोग किया। इसमें उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, कलाकारों और बौद्धिकों से सहयोग माँगा जो भरपूर मात्रा में मिला भी। दूसरा काम उन्होंने अपने म्युनिसिपॉल्टी व्यवस्था का पुनर्गठन करके किया।
इस नई व्यवस्था का नाम दिया गया ‘जून्टा डि बेउन गोबियरनो’ (junta de beun gobierno)। “पाँच-सात म्युनिसिपॉल्टी मिलाकर एक जेबीजी (JBG) बनता था। इनके आपसी सम्मेलन को कैराकोल्स (caracoles) कहा गया। इस व्यवस्था ने तीन महत्वपूर्ण काम किए। पहला, जापटिस्ट सेना को सरकारी कामकाज से दूर किया गया। नागरिक व्यवस्था को देखना अब जेबीजी का काम था। सेना को अब नागरिकों की सुरक्षा व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी मिली। दूसरा, अपने सदस्यों को गाँव के जनता से जोड़ते हुए विभिन्न गाँवों में वस्तुओं के असमान वितरण को व्यवस्थित किया। इसके बाद हर गाँव के हर परिवार के बीच समान वितरण व्यवस्था को सुनिश्चित किया।
तीसरा काम यह हुआ कि जेबीजी ने गैर जापटिस्ट नागरिकों के लिए जापटिस्ट म्युनिसिपॉल्टी के दरवाजे खोल दिए। स्कूलों में प्रवेश की अनुमति दी और इस तरह गैर जापटिस्ट नागरिकों से उनके रिश्ते मजबूत हुए। इससे डरकर मेक्सिकन सरकार ने जेबीजी को असंवैधानिक घोषित कर दिया।”[11]
जापटिस्ट आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने माजाहुआँ (Mazahuan) में 2003-2007 तक जल संरक्षण के लिए लम्बा संघर्ष किया। इसका उत्तर-आधुनिक समय में ईको-फेमिनिस्ट नजरिए से विश्लेषण करना अभी बाकी है। “बाल्सा बेसिन (balsa basin) से मेक्सिकन शहर को 21% पानी जाता है।”[12] इस इलाके में पानी, बिजली और बाँध परियोजना से सात म्युनिसिपॉल्टी प्रभावित हो रहे थे। इस आंदोलन की नेतृत्वकर्ता मारिया क्रुजपाज (Maria Cruzpaz) का कहना था कि “हमारी सरकार ने हमपर ध्यान नहीं दिया। पता नहीं क्यों! आदिवासी होने के कारण, गरीब होने के कारण या महिला होने के कारण।”[13] महिलाओं को पानी के लिए चार किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था । वे बाँध के पानी का उपयोग नहीं कर सकती थीं। इसको पढ़ते हुए मुझे मसानजोर बाँध की याद आयी जिसके तट पर बसे आदिवासियों ने बताया था कि उनके गाँव में चार साल से सूखा है। जब मयूराक्षी नदी पर बाँध नहीं था तब वे पानी का उपयोग करते थे। अब यह सारा पानी बगल के रिसोर्ट को मिलता है। वे पानी के लिए 2-3किलोमीटर जाते हैं। उस गाँव में तब दो-तीन चापाकल थे। यह घटना 2018-19 की है।
अपने संघर्ष के बारे में आइरिस क्रिसेंटोमो (Iris crisantomo) का कहना है कि “वे एमिलियानो जापाटा की तरह अपनी जमीन और गरिमा बचाने के लिए लड़ रही हैं।”[14] 2004 में जल मंत्रालय के साथ उनका समझौता हुआ जिसमें “नुकसान की भरपाई, जमीन की वापसी,पानी की उपलब्धता और इलाके का सुनियोजित विकास के वादे किए गए।”[15]वादे पूरे नहीं किए गए। “2006 में मारिया क्रुजपाज के नेतृत्व में पुनः समझौता हुआ और 49मिलियन पेशो मुद्रा देने और 733 ईकोलॉजिकल वॉशरूम बनवाने की बात हुई।”[16]
जापटिस्ट आंदोलन सेंट्रल मेक्सिको में ज्यादा जोर न पकड़ ले इसके लिए बाद में “सरकारों ने गरीब महिलाओं को सरकारी नौकरियों का प्रलोभन देकर, एनजीओ को सक्रिय करके तथा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम लागू करके उनके आंदोलन को कमजोर करने का प्रयास किया।”[17]
यह लैटिन अमेरिका में जापटिस्ट आंदोलन के काम करने का तरीका है। वहाँ मार्कोस ने मार्क्सवादी क्रांति के तरीकों को और आदिवासियों के आंदोलन के तरीके को मिलाकर एक प्रयोग किया। एक तरह से उन्होंने मार्क्सवादी सिद्धांतों का आदिवासीकरण (tribalisation) कर दिया। इसके अलावा उन्होंने उत्तर-आधुनिक तकनीकों का सहारा लेते हुए जंगलों से निकलकर मेक्सिको की शहरी जनता तक पहुँच बनाई। हिंसात्मक क्रान्ति को एकमात्र तरीका न मानकर वैकल्पिक सरकार बनाया और जनता को सरकार चलाने का विकल्प दिया। वे सहकारी और सामूहिक संस्था से आजतक सफल सरकार चला रहे हैं। यह सब लिया उन्होंने आदिवासी मूल्यबोध से और उनके द्वारा प्रतिपादित लोकतांत्रिक मूल्यों से।
भारत में अबतक यह सम्भव नहीं हुआ है। 5वीं और 6ठी अनुसूची में जो विधान बताए गए हैं उसका समुचित पालन होता तब उसका स्वरूप जापटिस्ट म्युनिसिपॉल्टी जैसा ही होता और टकराव की कोई स्थिति नहीं बनती। 5वीं अनुसूची में ‘ट्राइब्स एडवाइजरी कौंसिल’ में यह निर्देश है कि “इसके तीन-चौथाई सदस्य आदिवासी होंगे जो आदिवासियों के ‘वेलफेयर और एडवांसमेंट’ के लिए सलाह देंगे।”[18] इसी तरह 6ठी अनुसूची में ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ डिस्ट्रिक्ट कौंसिल और रीजनल कौंसिल’[19] का विस्तार से वर्णन है। जंगल के संसाधनों पर उनके अधिकार, माइनिंग पर उनकी सहमति और हिस्से पर बात तो है ही सबसे महत्वपूर्ण है कि “डिस्ट्रिक्ट कौंसिल को प्राथमिक विद्यालय स्थापित करने का अधिकार है।”[20] जापटिस्ट अपने यहाँ यही सब काम तो कर रहे थे। भारतीय संविधान ने यह सब अधिकार भारतीय आदिवासियों को दिया हुआ है। इसे नियमबद्ध तरीके से लागू करने के बाद यहाँ राज्य और आदिवासी समूहों के बीच तमाम मतभेद और टकराव को न्यूनतम किया जा सकता था। संविधान द्वारा प्रदत्त इन अधिकारों के दमन के कारण से आदिवासी अपने अधिकार और अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं।
भारत के वामपंथी और माओवादी संगठन खुद को आदिवासियों के हितों का पक्षधर कहते हैं। उनके संगठनों में आदिवासियों की उपस्थिति भी रही है लेकिन इन संगठनों ने अबतक जापटिस्ट सेना की तरह खुद का आदिवासीकरण नहीं किया है। अर्चना प्रसाद अपने लेख में दो घटनाओं का जिक्र करती हैं जो 2017-18 की है। एक पत्थरगढ़ी और दूसरा अखिल भारतीय किसान सभा (महाराष्ट्र) । दोनों में आदिवासी ही थे। एक आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का हिस्सा था दूसरा वर्ग और मजदूर से जुड़ा हुआ मुद्दा था। वो कहती हैं कि अभी की जरूरत “दोनों मुद्दों पर (अस्मिता और वर्ग) एक साथ जॉइंट प्लेटफार्म पर उठाने की जरूरत है।”[21] लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
माओवादी हों या चुनाव में भाग लेने वाले वाम संगठन, ये आज भी पारंपरिक तरीके से ही काम कर रहे हैं। इन्होंने उत्तर-आधुनिक संचार माध्यमों का रचनात्मक प्रयोग अबतक नहीं किया है। आदिवासी जनता को साथ लेकर मुख्यधारा के जनता के बीच अपनी वैधता ये नहीं बना सके (जैसा जापटिस्ट ने मेक्सिको शहर में घूम कर किया)। यहाँ तक कि जब पत्थरगढ़ी आंदोलन चला तो मुख्यधारा के वाम पार्टी हों या जंगल में सक्रिय माओवादी, वे कहीं प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं दिखाई दिए। आदिवासियों का यह आंदोलन बिल्कुल जापटिस्ट पद्धति से मिलता-जुलता था। इसे अखिल भारतीय समर्थन मिला होता तो आज इसकी तस्वीर भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रगतिकामी होती। “खूंटी में लोग स्कूलों का बहिष्कार कर रहे थे क्योंकि स्कूलों में शिक्षक नहीं थे। उन्होंने अपने ग्राम सभा को ही वास्तविक संवैधानिक ईकाई माना।”[22] सेना के प्रवेश पर रोक लगा दिया गया। इस आंदोलन में “छोटू वसावा जैसे लोग गिरफ्तार हुए। उन्हें नक्सली बताया गया।”[23] ये आश्चर्य की बात है कि इस पूरे आंदोलन में कोई भी बड़ा वाम नेता और माओवादी नेता गिरफ्तार नहीं हुआ। उन्हें स्पष्ट समर्थन भी नहीं मिला। अकादमिक जगत के बुद्धिजीवी इस आंदोलन से अनजान बने रहे और महानगरों की सिविल सोसाइटी सुसुप्तावस्था में बजी रही। अभी तक जितने बड़े आंदोलन हुए हैं जिनमें जापटिस्ट पद्धति को चिन्हित किया जा सकता है उनके सभी बड़े नेता आदिवासी रहे हैं। 1992-95 के आसपास कोयलकरो आंदोलन के दस्तावेजों को देखिए तो “जोहार सकम, जनहक, प्रभात खबर और डाउन टू अर्थ में तमाम नेतृत्वकर्ता आदिवासी हैं। इस पूरे आंदोलन में महिलाओं की भूमिका वही थी जो माजाहुआँ में 2003-07 के बीच महिलाओं की थी। दयामणि ‘जनहक’ में विस्तार से महिलाओं के भागीदारी के बारे में लिख रही थीं।”[24] इस आंदोलन में पैदल मार्च, अहिंसक विरोध, अख़बार में रिपोर्टिंग करना, पर्चे वितरित करना, स्थानीय और हिंदी भाषा में बाँध से होने वाले खतरे से अवगत कराना तथा जन समर्थन जुटाना शामिल था। इधर भारतीय आदिवासी कला और संचार माध्यम ने उत्तर-आधुनिक रणनीतियों से विशाल भारतीय जनसमूह से संवाद करना शुरू किया है। एस. चौधरी ने अपने लेख ‘स्पीक अप रेवोलुशन’ में “संचार माध्यमों के लोकतांत्रिकरण”[25] की जरूरत पर बल दिया है। उन्होंने ‘सीजीस्वरानेट’ (CGswaranet), जो गोंडवाना क्षेत्र के आदिवासियों की आज आवाज बन गया है, उसके महत्व पर विस्तार से लिखा है। जैसे-जैसे वैकल्पिक मीडिया पर उनकी आवाज पहुँचेगी और समाधान के लिए भारतीय जनता का समर्थन मिलेगा वैसे-वैसे राज्य के आदिवासियों के अधिकार हनन की नीतियों पर अंकुश लगेगा। इधर झारखंडी फिल्मकार दीपक बारा की डॉक्यूमेंट्री ‘अग्ली साइड ऑफ द ब्यूटी’ को जापान “सस्टेनेबल डेवलपमेंट पुरस्कार”[26] मिला है। नागपुरी शार्ट फ़िल्म ‘बांधा खेत’ को भारत के कई फ़िल्म फेस्टिवल के साथ “साउथ अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड फिल्म फेस्टिवल के लिए चुना गया।”[27] इस तरह आदिवासी कलाकार, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट उत्तर-आधुनिक रणनीतियों से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जनसमूह को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। जापटिस्ट आंदोलन ने दो तरीके अपनाए थे। पहला जमीनी स्तर पर जनसंपर्क बनाकर लंबे संघर्ष के लिए समर्थन जुटाना, आर्थिक और शैक्षणिक रणनीतियाँ बनाना और दूसरा, आभासी पटल पर जुड़ने के लिए ऑनलाइन कार्यक्रम करना, वेबसाइट बनाना और विचारों को कलात्मक अभिव्यक्ति देना। भारतीय आदिवासी समूह भी इस ओर बढ़ रहे हैं। हिंदी के दो उपन्यासों में इसकी अभिव्यक्ति है। उदाहरणत: रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ और महुआ माजी का ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ की अंतिम पंक्ति है “राजधानी के यूनिवर्सिटी हॉस्टल से सुनील असुर अपने साथियों के साथ कोयलबीघा, पाट के लिए निकल रहा था। लड़ाई की बागडोर अब उसे संभालनी थी।”[28] राजधानी से लौटकर यदि सुनील असुर गाँव जा रहा है इसका मतलब है वह नई रणनीतियों के साथ जाएगा। वह केवल पारंपरिक पुरखा विचारों से काम न लेकर मुख्यधारा के तमाम दांव-पेंच, राज्य हिंसा से निपटने के तरीके तथा विश्वभर में चल रहे ‘नव और उत्तर’ (neo and post) हिंसात्मक विचारधाराओं के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों के रणनीतियों से काम लेगा। रणेन्द्र एक शिक्षित असुर को आदिवासी संघर्ष का नेतृत्व अनायास नहीं दे रहे हैं। यह वर्तमान आदिवासी आंदोलनों की जरूरत है कि आदिवासियत से लैस युवा इसका नेतृत्व अपने पुरखों के मार्गदर्शन में नई रणनीतियों के साथ करे। ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ तो ऐसा लगता है कि जापटिस्ट आंदोलन पद्धति का भारतीय संस्करण है। सगेन एक शिक्षित और आदिवासी अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध युवा है। चारु एक समर्पित पत्रकार और आदिवासियों पर हुए राज्य हिंसा के खिलाफ लड़ने वाली युवती है। “आदित्यश्री एक गैर आदिवासी परंतु, आदिवासियों के मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्ध युवा है। आदित्यश्री अपने डॉक्यूमेंट्री से माइनिंग के दुष्प्रभाव को जापान फ़िल्म फेस्टिवल में ले जाता है। सगेन मरंग गोड़ा में रहकर आसपास के लोगों में अपने संस्थान ‘मरंग गोड़ाज आर्गेनाईजेशन अगेंस्ट रेडिएशन’ के तहत जागरूक करता है। वह पैदल मार्च करता है, अपनी बात गाँव से शहर तक ले जाता है, सुमेघा पणिकर जैसी विश्वविख्यात सामाजिक कार्यकर्ता से जुड़ता है और अपने भाषणों से दुनियाभर से समर्थन माँगता है। चारिबा अपने पत्रकारिता से इन मुद्दों को राष्ट्रीय खबर बनाती है। इस उपन्यास का लक्ष्य ही आंदोलन को जंगल से लेकर अंतर्राष्ट्रीय फोरम तक ले जाना है।”[29]
इस तरह जापटिस्ट आंदोलन की रणनीतियों को भारत के आदिवासी आंदोलन के रणनीति से जोड़कर देखें तो पाते हैं कि कोयलकरो, पत्थरगढ़ी और स्वायत्तता से जुड़े अन्य आंदोलनों में अबतक आदिवासी सामाजिक एक्टिविस्ट ही आगे रहे हैं। नई पीढ़ी आज वही रास्ता अपना रही है जो मार्कोस ने अपनाया। आज केवल जंगल में रहकर सशस्त्र संघर्ष से लंबी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। उसके लिए जापटिस्ट रास्ता अपनाना होगा और जंगल से बाहर निकलकर सभी उत्तर-आधुनिक तरीकों का उपयोग करते हुए अपने लिए ‘मसीहाई प्रतिबद्धता’[30] (उत्थान और कल्याण करने की भावना घृणित मानसिकता है इसके बदले इस शब्द का प्रयोग हो अंतरात्मा से, स्वेच्छा से सहयोग की भावना) रखने वाले मुख्यधारा की विशाल जनता से जुड़कर एक दवाब समूह बनाना होगा।
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