कुमाऊँ की होली ख़ास होती है। जब तक मेरे गुरु मनोहर श्याम जोशी जीवित थे कुमाऊँ की होली का रंग हर साल देखता रहा। आज जब दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्राध्यापिका शुभ्रा पंत कोठारी का यह आलेख पढ़ा तो वे दिन याद आ गये- प्रभात रंजन
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हमारे कुमाऊँ में होली सिर्फ़ रंग से सराबोर नहीं है, उसका पक्का रंग उसके पक्के सुर और ताल में है या कहूँ था क्योंकि ये रंग फीके पड़ने लगे हैं। होली कुमाऊँनी समाज का अंतरंग रही और इस समाज को प्लेटो के कम्यून में बदल देती। जब ना मोबाइल और ना ही सभी के पास टेलीफोन की सुविधा थी। पर बात निकली तो दूर तलक चली जाती थी। अब वो विसाले सनम ढूँढते हुए गलियों गलियों गाते घूमते या कहीं जम कर बैठकी लगाते। मैंने दिल्ली में कुमाऊँ को इन्ही होलियों के द्वारा जिया और उस समाज के मिज़ाज को जाना भी, चाहे वो हमारी भाषा हो या हमारे व्यंजन या हमारी खूबसूरत होलियाँ।
हमारी इन्ना यानी हमारी नानी, मुझे आज भी अचंभित करती हैं। एक उच्चकुलीन ब्राह्मण समाज की सादी दिखने वाली दबंग स्त्री थी, जो अपने अनुभव को ही अपनी शिक्षा मानती। उनके आत्मविश्वास के क्या कहने, थकन और शिकन तो पानी माँगे। दिल्ली की बसों में ऐसे सवार होती जैसे झाँसी की रानी घोड़े पर और मैं उनके साथ दुबक जाती निश्चिंत होकर सैर पर निकल पड़ती। कुमाऊँ समाज के लिए होली एक या दो दिन का त्योहार नहीं बल्कि पूरे फागुन मास में मनाये जाने वाला ठहरा। हर दिन किसी ना किसी के घर बैठकी होली उठायी जाती और नानी हमारी घोर कुमाऊँनी समाजी जिन्हें बड़े अदब से बुलाया जाता ।
क्या मजमा होता था, हाँ ये कैसे भूल गई कि ये हमारी होलियाँ भी कम सिध्दांतीय नहीं हैं। इनकी प्रकार भी और अलंकार भी हैं, तीव्र भी और माध्यम भी; हास्य भी और तंज़ भी। बैठकी होली स्त्री स्पेशल और खड़ी होली पुरुष स्पेशल होती रही। पारंपरिक समाज की सोच से लदी, जहां बैठकी होली कुमाऊनी महिलाओं द्वारा और खड़ी होली पुरुषों के द्वारा उठायी जाती। परम्पराएँ नदियों के समान गाँव से शहर की और बहती ज़रूर हैं पर शहर तक आते आते बेचारी दुबली पतली हो जाती हैं। हम सभी कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में आज भी उस ग्रामीण पथ पर आश्रित हैं और ये ही हमारी विविधताओं का परिचायक है।
गाँव में जहां पुरुष पलटन लिए पारंपरिक परिधानों (चूड़ीदार पायजामा, कुरता, और टोपी),ढोलक और हुड़्की लिए रंगों के साथ गाते बजाते एक घर के आँगन में एकत्रित हो राग और फाग से पूरा समाँ बांधते। यह होली एकदम अलग अंदाज में मनाई जाती है।
पुरुष स्पेशल होली में शास्त्रीय और लोक संगीत का मिश्रण देखने को मिलता है जो ज़्यादातर बड़े ख़याल में गयी जाती, उदाहरण के लिए आँगन बोलत कागा पिया के आवंन को शगुन भयो री। ये होली में जब तक कागा आँगन में काव काव ना कर दे, होली का राग ख़त्म ना हो। सुर और लय का ख़ास ख़याल रखा जाता। मोहन उप्रेती से लेकर गिर्दा को याद किया जाता। गाँवों और कस्बों में लोग टोलियों में घूमते हैं और एक-दूसरे के साथ उत्साहपूर्वक होली खेलते हैं।
नब्बे के दशक तक दिल्ली में खड़ी होली रात के समय सरकारी क्वॉर्टर में कूच करती थी। रात भर के आयोजन में गाना,बजाना, आलू के गुटक, इमली की हरी सौंठ, नमकपारे, लड़ू, गुजिया और रंग भरी थाली लाज़मी थी। पर इसके अलावा देसी ठहाके, छींट और विस्की सोने पे सुहागा ठहरा। जहां धर्मपत्नियाँ पूरे आयोजन का ध्यान रख अपना करम निभाती तो उन्हें छेड़कर, हँसाकर और भरपूर मनोरंजन की गैरंटी देकर धर्मपति अपना कर्तव्य निभाते। पत्नियों के डर के साये में छिपकर धीरे धीरे पीने का प्रोग्राम चलता और सुर और बेहतरीन लग जाते, मुर्कियाँ लबालब लगती। वैसे एक कीड़ा मुझे काटता रहा के ये पुरुष खड़ी होली और महिला बैठकी होली का पर्याय क्यूँ हैं? पितृसत्ता की जड़ बहुत गहरी है जो सोचने पर मजबूर करती है कि सामाजिक ढाँचे किस तरह गढ़े गए। लेकिन मैंने इन होलियों में किसी एक स्त्री को चुनौती देते नहीं देखा। यहाँ सब व्यवस्थिक है, सब अपनी पगडंडी पकड़े चल रहे हैं जब तक कोई गहरा ग़ड्डा या ख़तरा ना हो। फिर चाहे होलियों की प्रकार हो या आम ज़िंदगी की बयार।
दूसरी ओर बैठकी होली महिलाओं द्वारा दिन में मनायी जाती। यहाँ होली का सुर और लय थोड़ा फ़ास्ट रहता, राग और फाग में इस दौरान लोकसंगीत की धुनों पर ठुमके और हंसी-मज़ाक का भी खूब आनंद लिया जाता है। मैंने पाया कि यह महिलाओं को सामाजिक रूप से जोड़ने, खट्टी मीठी बातें और गाँव की खबर को साझा करने और उत्सव का आनंद लेने का एक खास अवसर होता है। गाना बजाने के बीच बीच में सौंफ़ और इलाइची बाँटी जाती ताकि सुर सधे रहें। हम जब नानी के साथ इन होलियों में शामिल होते तो बस ठुमके लगाते और सभी महिलाओं का मनोरंजन करते। फिर हमारी तारीफ़ होती और खूब सारा दुलार और बढ़िया बढ़िया व्यंजन खाने के लिए मिलते। आज होली पर सब याद आ रहा है। एक उम्र के पड़ाव पर पीछे मुड़कर देखो तो लगता है बस अभी वहीं पहुँच गए जिन गलियों में भीगकर आए थे। रास्ते भर नानी डीटीसी की बस में ज्ञान परोसती और बताती कि कुमाऊँनी होली उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाने वाला एक अनोखा और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध उत्सव है। यह सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं है, बल्कि इसमें संगीत, भक्ति, और सामूहिक उल्लास का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह हमारी सांस्कृति और परंपरा का परिचायक है। नानी कहती की होली के संगीत में भगवान कृष्ण की लीलाओं, प्रेम, और अध्यात्म का वर्णन होता है। नानी ने मुझे कमाऊँ की संस्कृति से मिलवाया भी और ढेर सारी जानकारी के द्वारा अपने इतिहास को जानने की रुचि पैदा की। पर उनकी लाख कोशिश के बाद भी मैं कुमाऊँनी बोलना सीख नहीं पायी और अब एक चेष्टा जागी है।
सोशल मीडिया की मदद से आज हम कुमाऊँ की संस्कृति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फल फूल रही है। कुमाऊनी होली का शास्त्रीय संगीत से जुड़ाव लोगों तक पहुँच रहा है, यूटूब में विभिन्न रागों जैसे यमन, भैरव, पहाड़ी, खमाज, आदि से सराबोर होलियाँ देखी और सुनी जा सकती हैं।गाँव के बुजुर्ग, महिलाएँ और नौजवान साथी रील्ज़ के माध्यम से कुमाऊनी संस्कृति की हुड़्की बजा रहे हैं।
आज भी कुमाऊँनी होली सिर्फ रंगों का नहीं, बल्कि संस्कृति, संगीत, और भक्ति का उत्सव है। यह लोगों के बीच आपसी प्रेम, मेल-जोल और आनंद का प्रतीक है, जो कुमाऊँ (उत्तराखंड) की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है।
नानी और दिल्ली हमेशा साथ लिए चलती हूँ। दिल से जुड़े रहना ही फाग खेलना है। हर होली की टोली का एक राग; हो हो होलक रे।
विस्मय है रंग देखकर रंगों को आज
उड़ रहे हैं हवा में रंग हज़ार
सात रंग मेरी थाली में गूँथे
कभी शब्दों से कभी कहकर
कभी हँसकर कभी रोकर
तो कभी नग़मा गाकर
और कभी ख़ुद में खोकर
पर शायद ये काफ़ी ना था
एक रंग कहीं छुपा था
मिलकर येही लगा था
शायद वो सफ़ेद था
जो गूँथकर कर बना था,
जो तलब सा महका था
मेरे हिस्से में आ चहका था,
चाँद सा बादलों में लटका था
क्या होली भी सतरंगी बनकर निकली
क्या होली भी सरगम बनकर उछली
उस एक सफ़ेद से मिलने,
जैसे बहती झूमती नदी
चल पड़ी नदीश से मिलने।।