कल हरदिल अज़ीज़ शायर शहरयार का इंतकाल हो गया. उनकी स्मृति को प्रणाम. प्रस्तुत है उनसे बातचीत पर आधारित यह लेख, जो अभी तक अप्रकाशित था. त्रिपुरारि की यह बातचीत शहरयार के अंदाज़, उनकी शायरी के कुछ अनजान पहलुओं से हमें रूबरू करवाती है – मॉडरेटर
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वो सुबह बहुत हसीन थी जब केलेंडर ने चुपके से मुझे कहा, “आज 30 नवम्बर 2010 है।” वह सर्दी की पहली सुबह थी जब मैं बिस्तर की बेक़रार बाहों को छोड़ कर लगभग 6 बजे कमरे के बाहर आ गया था। वजह ये थी कि मुझे 9 बजे ‘शहरयार साहब’ से मिलना था। वो भी पहली दफ़ा। पिछली रात कुछ अजीब हुआ। तमाम रात मेरी नींद की सतह पर वो उगते रहे। ख़ैर, किसी तरह सुबह हुई। मेट्रो की गुफ़ा में बैठ कर एक सफ़र ख़त्म हुआ और दूसरे सफ़र की इब्तिदा हुई। अब मुझे उनसे मिलना था जिनका मुझे मुद्दत से इंतज़ार था। कई सालों से मेरी बेजान आँखों को उन्हें देखने की तमन्ना थी। वो एक हसरत हक़ीक़त में तब्दील होने वाली थी। मैं बताई हुई जगह पर पहुँच गया। इंडिया हैबिटाट सेंटर, कमरा नम्बर 102… 9:10 बजे मेरी उंगलियों ने दरवाज़े पर हल्की-सी दस्तक दी। एक जोड़ी तज़ुर्बे से भरी गहरी आँखों ने चुपके से दरवाज़ा खोला। ये आँखें जिस चेहरे पर चिपकी हुई थीं, वह चेहरा ‘शहरयार साहब’ का था।
मशहूर शायर कुंवर अख़लाक़ मोहम्मद ख़ान ‘शहरयार’। एक बुद्धिजीवी व्यक्ति। जिनकी शायरी की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि हर एक शेर ज़ेहन में एक तवील ख़ामोशी छोड़ जाती है। एक ऐसी ख़ामोशी जो अल्फ़ाज़ से ज़्यादा असरदार होती है। ‘कमलेश्वर’ की क़लम की ज़ुबानी कहें तो, “शहरयार एक ख़ामोश शायर हैं जो बात को ऊँची आवाज में पेश करना मुनासिब नहीं समझते, लेकिन जो कुछ उनके अन्दर के बियाबान में बीतता और ज़हनी सतह पर घटित होता है, वह जब इस कठिन दौर की खामोशी से जुड़ता है तो एक समवेत चीखती आवाज़ में बदल जाता है। बड़े अनकहे तरीके से अपनी ख़ामोशी-भरी शाइस्ता आवाज़ को रचनात्मक चीख में बदल देने का यह फ़न शहरयार की महत्त्वपूर्ण कलात्मक उपलब्धि है जो बरास्ते फ़ैज़ और फ़िराक़ से कतरा कर उन्होंने हासिल की है।”
छठे दशक की शुरुआत में जब शहरयार का पहला काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ, तो बहुत तारीफ़ की गई। संग्रह में शामिल “सीने में जलन आँखों में तूफ़ान-सा क्यूँ है / इस शहर में हर शख़्स पेरेशान-सा क्यूँ है” जैसी ग़ज़लों ने शहरयार का नाम उर्दू भाषा के नए और महत्वपूर्ण शायरों में शुमार कर दिया। उन्हीं दिनों अली सरदार जाफ़री ने शहरयार के लिए एक नज़्म भी लिखी थी। वो ऐसा दौर था जब उर्दू अदब में दो तरह की शायरी लिखी जा रही थी। एक वो शायरी, जो परम्परागत नज़रिए को सिरे से नकार कर अपना वजूद कायम करना चाहती थी। दूसरी वो शायरी, जिसका आधार महज अनुभव था। शहरयार ने अनुभव के आधार पर लिखना स्वीकार किया। न परम्परा और न ही परम्परा के खिलाफ़। एक साक्षीभाव के साथ लेखन। उदाहरण के तौर पर…
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
शहरयार को पढ़ते हुए बहुत सी बातें सोच की सतह पर उभरती है। उनकी शायरी में अजीब किस्म की उदासी मिलती है। ऐसी उदासी, जो दूसरों को उदास देखकर आती है। ऐसी उदासी जो खुशी और ग़म के बीच में बसर करती है। ऐसी उदासी जो एक अनोखे ऊर्जा से भरी हुई होती है। जब वे कहते हैं :
ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ यह ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है और कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली-सी नहीं, कुछ कम है
शहयार की ख़्वाहिश कि सब सकून से रहें। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों की तहों में पोशीदा होता है। उनकी हमेशा यही कोशिश रही कि वे सामाजिक गतिविधियों को शायरी में शामिल करते चलें। एक इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ मुहब्बत को वे हमेशा तरज़ीह देते हैं। इस क्रम में अगर उन्हें अपनी आवाज़ की धार को तेज़ भी करना पड़े तो वे नहीं चूकते। जब वे ऐलान करते हुए कहते हैं :
सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो
कि आगे के तमाम मोड़ पर वो नहीं हैं
चींटियों ने हाथियों की सूँड में पनाह ली
थके-थके से लग रहे हो,
धुंध के ग़िलाफ़ में, उधर वो चाँद रेगे-आसमान से
तुम्हें सदाएँ दे रहा है, सुन रहे हो
तुम्हारी याद्दाश्त का कोई बरक़ नहीं बचा
तो क्या हुआ
गुज़िश्ता रोज़ो-शब से आज आज मुख़्तलिफ़ हैं
आने वाला कल के इंतज़ार का
सजाओ ख़्वाब आँख में
जलाओ फिर से आफताब आँख में
सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो।
इस बात का ऐलान करते हुए भी अपनी आवाज़ की नर्मी को भूलते नहीं। वो बात तो जोश की करते हैं मगर उस जोश में भी होश नहीं खोते। या यूँ कह लीजिए कि वो पूरे होश के साथ नशे में होते हैं। एक संजीदगी, एक बयान का वज़न उनके कथन में छुपा होता है। ज़िंदगी को पूरे का पूरा देखने की कोशिश में वो खुशी और ग़म दोनों को साथ लिए सफ़र करते हैं। शायद ये सोचकर कि जाने क्या कब काम आ जाए? जाने कौन-सा अनुभव किस घड़ी को सहारा दे दे। उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेरों में यह बात देखी जा सकती है :
बेताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हमको
आवारा हैं और दश्त का सौदा नहीं हमको
ग़ैरों की मोहब्बत पे यक़ीं आने लगा है
यारों से अगरचे कोई शिकवा नहीं हमको
या तेरे अलावा भी किसी शै की तलब है
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हमको
शहरयार की शायरी के एक विशेष पक्ष को सामने रखते हुए ‘कमलेश्वर’ ने लिखा है, “शहरयार की शायरी में एक अन्दरूनी सन्नाटा है। वह बिना कहे अपने वक्त के तमाम तरह के सन्नाटो से बाबस्ता हो जाता है…सोच में डूबे हुए यह सन्नाटे जब दिल की बेचैन बस्ती में गूँजते हैं तो कभी निहायत निजी बात कहते हैं, कभी इतिहास के पन्ने पलट देते हैं, कभी डायरी की इबारत बन जाते हैं। कभी उसी इबारत पर पड़े आँसुओं के छीटों से मिट गए या बदशक्ल हो गए अल्फाज़ को नए अहसास के सांस से दुबारा ज़िन्दा कर देते हैं…शायद इसलिए शहरयार की शायरी मुझे एकान्तिक खलिश और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी लगती है, जो दिलो-दिमाग़ की बंजर बनाती गई जमीन को सींचती है।” शहरयार की ग़ज़लों में ही नहीं बल्कि नज़्मों में भी उनका यह रंग कई ‘शेड्स’ में मौजूद है। एक नज़्म में वे महसूस करते हैं:
लबों पे रेत हाथों में गुलाब
और कानों में किसी नदी की काँपती सदा
ये सारी अजनबी फ़िज़ा
मेरे बदन के आस पास आज कौन है
उम्मीद उनकी शायरी का अहम हिस्सा है। वक़्त चाहे कोई भी हो, उम्मीद का दामन थाम कर वो आगे तूफान में चल निकलते हैं। ये बात जानते हुए भी कि सफ़र में साथ कोई न होगा। शायद रास्ता ही एक मात्र हमसफ़र होगा। यह भाव इन शेरों में देखा जा सकता है :
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ
वो जब दर्द भी बयान करते हैं तो एक गरिमा होती है। जिसमें न तो दर्द का दामन गीला होता है और न ही शहरयार का लहज़ा कमतर। दोनों समानांतर चलते हैं। अपने ही साए के नीचे-नीचे। एक बानगी :
किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का
ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का
ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का
वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का
शहरयार की शायरी में एक सूनापन है। एक बेआवाज़ धड़कन है, जो सुने जाने के लिए एक दिल की माँग करता है। एक रूह है, जो बदन की उम्मीद रखती है। एक साँस है, जो अपने गर्माहट की महफ़ूजगी का वादा चाहती है। आप भी एक नज़र देखिए :
जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में
फँस गया फिर जिस्म के गिरदाब में
तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया
मेरा सबकुछ बह गया सैलाब में
मेरी आँखों का भी हिस्सा है बहुत
तेरे इस चेहरे की आब-ओ-ताब में
तुझमें और मुझमें तअल्लुक़ है वही
है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में
मेरा वादा है कि सारी ज़िंदगी
तुझसे मैं मिलता रहूँगा ख़्वाब में
घड़ी का इशारा 10:46 की तरफ था। अब मुझे शहरयार साहब को अलविदा कहना था। वो अलीगढ़ के लिए रवाना होने वाले थे। कार नीचे पार्किंग में इंतज़ार कर रही थी। पल तो बहुत मुश्किल था। मगर सच था। मैंने उनको अलविदा कहा और चल पड़ा। जब तक उनके सामने रहा… मेरा हाल कुछ ऐसा था जो उनके ही एक शेर से बयाँ होता है:
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तेरी रवानी को
9 Comments
Our respectful tributes to the great urdu poet,loved his lyrics.He will live forever thru his rare contribution to Urdu poetry.How beautiful:
"Pehle nahayee os mein phir aansuon mein raat,
Yun boond boond utri,Hamare gharon mein raat;
Aankhon ko sabki neend bhi di ,Khwab bhi diye'
Hamko shumar karti rahi dushmano mein raat."
उनकी स्मृति को प्रणाम!
इस प्रस्तुति के लिए आभार!
some people outlive life and live beyond death!
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