आज मनोहर श्याम जोशी जीवित होते तो 81 साल के होते. उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ और उनके ऊपर लिखी जा रही अपनी किताब का एक अंश आपके लिए जो उनसे मेरी पहली मुलाकात को लेकर है- मॉडरेटर.
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उदयप्रकाश ने एक दिन एक पतला-सा उपन्यास दिया ‘स्ट्रीट ऑफ क्रोकोडायल्स’. देते हुए कहा इसे मनोहर श्याम जोशी के घर देने जाना है. लेखक थे ब्रुनो शुल्ज, जिसके बारे में पहले भी उदय जी कई बार बता चुके थे, कि पोलैंड के इस यहूदी लेखक की महज पचास साल की उम्र में हत्या कर दी गई, कि उसके दो उपन्यासों में उत्तर-आधुनिक उपन्यासों के आरंभिक बीज मिलते हैं. यथार्थ में विश्वासों-मान्यताओं के मिश्रण की शैली में लिखे गए उनके उपन्यासों में जादुई यथार्थवाद के दर्शन होते हैं. वे कहते कि उनकी चर्चा नहीं होती, लेकिन उनके पास उनके दोनों उपन्यास हैं और वे उनके माध्यम से उत्तर-आधुनिकता पर कुछ लिखना चाहते हैं. जल्दी ही कुछ लिखेंगे. हालाँकि उन्होंने कुछ लिखा हो ब्रुनो शुल्ज पर मुझे ध्यान नहीं आता. ब्रुनो शुल्ज के दूसरे उपन्यास का नाम है ‘सैनेटोरियम अंडर द साइन ऑफ द आवरग्लास’.
ब्रुनो शुल्ज के उपन्यास को देते हुए उदयप्रकाश ने कहा कि यह उपन्यास उनको दे देना. आप उनके ऊपर पी.एच.डी. कर रहे हैं तो आपके लिए अच्छा रहेगा कि उनसे मुलाकात भी कर लें. उदयप्रकाश का यह प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा. अपने एक प्रिय लेखक से मिलने का मौका जो मिलने वाला था. कुछ दिन पहले ही मानसरोवर हास्टल में उनके लिखे धारावाहिक ‘जमीन-आसमान’ को नियमित देखते और उसको लेकर अपने सीनियर संजीव जी से चर्चा करते. वे हमारे आदर्श तो नहीं लेकिन मन ही मन हमारी महत्वाकांक्षा के शिखर-पुरुष थे. केवल 35 साल की उम्र में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी लोकप्रिय पत्रिका का संपादक बन जाना, 47 साल की उम्र में पहला उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ लिखकर आलोचकों का ध्यान खींच लेना, हमलोग, बुनियाद जैसे धारावाहिक लिख कर टेलीविजन धारावाहिकों के इतिहास में अमर हो जाने वाला, जिसे देखने की हसरत में हमारे घर में टेलीविजन आया, वेस्टन का ब्लैक एंड व्हाइट. ३६ इंच वाला, जो १२ वोल्ट की बैटरी से भी चल जाता था. उसी मनोहर श्याम जोशी से मिलने का मौका था. ब्रुनो शुल्ज के एक उपन्यास ‘स्ट्रीट ऑफ क्रोकोडायल्स’ के माध्यम से वह मौका मिलने वाला था.
मैं सहर्ष तैयार हो गया. उदय जी ने जोशी जी का फोन नंबर दिया. वह लैंडलाइन फोन का जमाना था, वैसे भी मनोहर श्याम जोशी ने अपने जीवन में कभी मोबाइल फोन नहीं रखा. मैंने उनको फोन किया, मिलने का समय लिया. समय देने के साथ उन्होंने पूरा रास्ता समझाया कि साकेत में उनके घर कैसे पहुंचना है, कौन-सी बस कहां से मिलेगी- बस अड्डे से साकेत ५०१ नंबर की बस चलती है, मेरे मानसरोवर हॉस्टल से बस अंतरराज्यीय बस अड्डा पास पड़ता है- सब उनको पता था. उदय प्रकाश जी ने उनको मेरे बारे में बता दिया था, कि मैं उनके उपन्यासों पर पीएच.डी. कर रहा हूं. मैंने पीएच.डी. में नामांकन करवाया ही था तब, ले-दे कर वही एक परिचय बनता था. लेखन के नाम पर कुछ भी ऐसा खास नहीं था कि अपना परिचय लेखक के रूप में दे पाता.
जोशी जी से मिलने नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया. प्रसंगवश, वे इस बात का खास ध्यान रखते थे कि जो उनसे मिलने आये समय लेकर आये. बिना बताये मिलने पहुँच जाने वालों पर कई बार वे प्रकट तौर पर नाराज हो जाते थे. इसका एक कारण यह था कि वे नियम से सुबह १० बजे से शाम पांच बजे तक लेखन का काम करते. लेखन क्या वाचन करते. वे बोलते जाते, उनका टाइपिस्ट टाइप करता जाता. कभी कोई उपन्यास, कभी कोई कहानी, कोई टीवी धारावाहिक, किसी फिल्म की पटकथा, अखबार या किसी मैग्जीन के लिए लेख. बरसों मैंने उनके लेखन की यही दिनचर्या देखी. जिसमें कभी-कभी ही बाधा आती. प्रसंगवश, उनके लिए इन रचनाओं को टाइप करने वाले शम्भूदत्त सती भी बाद में लेखक बने. शम्भूदत्त सती का एक उपन्यास बाद में भारतीय ज्ञानपीठ से छपा, ‘ओ इजा’ के नाम से.
बहरहाल, उनके घर के पास वाले स्टॉप पर बस से उतर कर जब मैं उनके घर पहुँच तो वे मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मुझे याद है शाम के पांच-सवा पांच बजे थे. उनकी शाम की चाय का समय यही होता. उस समय वे बहुत अच्छे मूड में होते, खूब कहानियां सुनाते. चाय फीकी पीते थे और गुड़ का टुकड़ा अलग से रखते. कुतर-कुतर कर गुड़ खाते और चाय का सिप लेते हुए वे इतनी बातें करते कि सामने वाला इस भ्रम में आ जाता कि वे उसे अपना अन्तरंग समझने लगे हैं.
मैं उनके घर पहली बार गया था. उस लेखक के घर जिसे मैं स्कूल के दिनों से ही पढ़ता आया था. पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के कॉलम ‘नेताजी कहिन’, फिर बाद में जब कुछ बड़ा हुआ तो सीतामढ़ी के सनातन धर्म पुस्तकालय से उनके उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ को लाकर पढ़ने की असफल कोशिश की थी. तब मुझे वे ‘केवल वयस्कों के लिए’ टाइप लेखक लगे थे. उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में ‘केवल वयस्कों के लिए’ फ़िल्में होती हैं. बल्कि इस अर्थ में कि उसको समझ पाना मुश्किल लगा, कुछ-कुछ दुरूह, उसकी मुम्बईया हिंदी मुझ देहाती के जुबान नहीं चढ़ी. इस बात से भी चिढ़ हुई कि यह कैसा लेखक है? सीधे-सीधे कुछ कहता ही नहीं है. बाद में पूर्ण वयस्क होने के बाद जब दोबारा ‘कुरु कुरु स्वाहा’ पढ़ा तब उसका आस्वाद ले पाया. मुझे कई अर्थों में वह उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास लगता है. भाषा, कहने का ढंग, किस्सागोई, आत्मकथात्मक टुकड़े, समाज का बदलता चेहरा… वह अपनी सम्पूर्णता में उपन्यास है. अपनी कहानी के लिए नहीं, कभी पात्रों के लिए, कभी प्रसंगों के लिए याद आता है. ‘कसप’ ने भी अपने पहले पाठ में मुझे बहुत प्रभावित किया था, एक गहरा अवसाद मन पर छा गया था. मार्च का महीना था. हिंदू कॉलेज हॉस्टल के कमरे में मैं घंटों बत्ती बुझाकर पड़ा रहता- बेबी-डीडी की प्रेम कहानी के बारे में सोचता रहता.
कई दिनों तक.
वह ‘कसप’ का पहला पाठ था.
बाद में वह प्रभाव जाता रहा.
‘हमलोग’, ‘बुनियाद’ के लेखक के रूप में मैं क्या सारा टीवी समाज उनको जानता था. हाल में ही उनका लिखा और महेश भट्ट का निर्देशित किया हुआ धारावाहिक ‘जमीन-आसमान’ का प्रसारण डीडी पर पूरा हुआ था. वे तब भी एक ‘सेलिब्रिटी’ की तरह लगते थे.
मैं कुछ घबड़ाया हुआ-सा उनके ड्राइंग रूम में पीछे-पीछे घुसा. मध्यवर्गीय मानसिकता का मारा मैं एक ‘सेलिब्रिटी’ लेखक के ड्राइंग रूम में घुसते हुए डर रहा था. जिनके ऐश्वर्य के किस्से सुने थे. एक-एक एपिसोड के हजारों लेने वाले लेखक का ड्राइंग रूम पता नहीं कैसा हो? लेकिन अंदर जाते ही कुछ भी ऐसा नहीं दिखा जो हमारे मध्यवर्गीय घरों में न होता हो. साधारण सोफे, अति साधारण साज-सज्जा, जूते तो मैं A-53, साकेत के उस डीडीए फ़्लैट के बाहर ही खोल आया था, लेकिन वहां के कालीन में भी कुछ ऐसा नहीं था मेरे जूतों से जिसके गंदे होने का डर हो. वहां बैठते ही मैं सहज होने लगा. सर्दियों के दिन थे लेकिन मैंने देख लिया था कमरे में एसी तक नहीं लगा था.
जोशी जी ने अपनी बातों से और सहज बना दिया. मैंने बैठते ही उनके हाथों में उदय प्रकाश का दिया हुआ ब्रुनो शुल्ज का उपन्यास रख दिया. पहले उस उपन्यास के बारे में मुझसे पूछा. सच बताऊँ तो मैंने उपन्यास पढ़ नहीं रखा था लेकिन उदय प्रकाश ने उसके बारे में मुझे इतना बताया था कि उसी के आधार पर उत्तर-आधुनिकता के अपने अधकचरे ज्ञान का छौंक लगा कर उनको उस उपन्यास के बारे में कुछ-कुछ बता दिया- यह उपन्यास पारंपरिक नैरेटिव में एक बहुत बड़ा शिफ्ट है, कि इसमें आधुनिक तार्किकता को प्रश्नित किया गया है.
वे बड़े ध्यान से सुनते रहे. फिर उन्होंने पूछा, ‘प्रभात रंजन जी, आप क्या कर रहे हैं?’
‘सर, मैंने अभी एम.फिल. किया उदय प्रकाश की कहानियों पर, अब पीएचडी में रजिस्ट्रेशन करवाया है. शीर्षक है ‘उत्तर-आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास’, मेरे शोध निर्देशक हैं सुधीश पचौरी.’ सुनकर उनके चेहरे पर किसी तरह का भाव आया हो मुझे याद नहीं आता. अलबत्ता उन्होंने हिंदी विभागों में होने वाले शोधों को लेकर एक कहानी अवश्य सुनाई, जिसमें उनके कहानी-उपन्यासों की तरह ही गहरा व्यंग्य था, खिलंदड़ापन था और वह सिनिसिज्म जो बाद में उनके लेखन का एक तरह से स्थायी भाव बन गया था. मैं थोड़ा निराश हुआ क्योंकि हमें हमारे गुरुओं ने समझाया था कि किसी लेखक की रचनाओं पर शोध करना असल में उस लेखक का कल्याण करना होता है, कुछ-कुछ अहसान सरीखा या उद्धार करना समझ लीजिए. मैं पहले एम.फिल. में उदयप्रकाश का ‘कल्याण’ कर चुका था, अब मनोहर श्याम जोशी का करने निकला था. लेकिन उनके इस बेपरवाह अंदाज से मुझे भान हो गया कि इस तरह के कल्याण में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. वे तो अपना उद्धार करवाना चाहते ही नहीं थे. बाद में जाना वे इन सब चीजों से परे थे. न शोध के इतिहास में अमर होना चाहते थे, न पुरस्कारों की होड़ में पड़ते थे. हिंदी के बड़े-छोटे आलोचक-पाठक भी उनको ‘बड़ा’ उपन्यासकार मानते रहे, लेकिन पूरे जीवन में ठीक-ठिकाने का एक ही पुरस्कार उनको मिला-साहित्य अकादेमी. वह भी जीवन के अंतिम साल में.
इसी बीच उनकी पत्नी भगवती जोशी, जो तब लेडी श्रीराम कॉलेज में पढ़ाती थीं, खुद चाय लेकर आ गईं. कुल मिलाकर, बड़ा घरेलू टाइप माहौल लगा. मेरी पढ़ाई लिखाई के बारे में बात करते रहे. बीच-बीच में कहते, आज अच्छे मौके पर आये हो. एक बहुत बड़े आदमी आने वाले हैं उनसे तुम्हारी मुलाकात हो जायेगी. मैं सोच रहा था कि पता नहीं इतना बड़ा लेखक- टीवी-फिल्मों के ग्लैमर में जीने वाला लेखक कह रहा है कि बड़ा आदमी आने वाला है, तो पता नहीं कौन हो? इसी लोभ में मैं चाय धीरे-धीरे पी रहा था कि पता नहीं अगर चाय समाप्त हो गई तो कहीं जोशी जी जाने के लिए न कह दें.
आखिरकार ‘वे’ आये. छोटे कद के कुछ खोए-खोए से. जोशीजी उठ खड़े हुए. मुझसे कहा जल्दी से उठकर पांव छुओ, ये वागीश शुक्ल हैं. इतने बड़े विद्वान से मिलने का अवसर मिल रहा है तुमको. मैंने पढ़ा था उनको, पूर्वग्रह में, समास में. उनका लिखा कुछ खास पल्ले नहीं पड़ता था इसलिए हम भी उनको बड़ा विद्वान मानते थे. मैं झट से उठ खड़ा हुआ और वागीश जी के पैरों पर झुक गया. वागीश जी ने ‘खुश रहिये’ कहते हुए पूछा, ‘कहां के रहने वाले हैं?’ मैंने कहा, ‘मुजफ्फरपुर के’. ‘तो आप वैशाली के हैं’
‘नहीं लिच्छवी गणराज्य के,’ मैंने जवाब दिया.
वागीश जी चुपचाप मुझे देखने लगे. मैंने जोशी जी से आज्ञा ली और चलने के लिए पीछे मुड गया.
यह वागीश जी से भी मेरी पहली मुलाकात थी. अब उनका प्रसंग चल ही निकला है तो यह भी बता दूँ कि हिंदी समाज में अपने बहुपठित होने के आतंक से सबको आतंकित कर देने वाले मनोहर श्याम जोशी जिस एक विद्वान के ज्ञान से आतंकित रहते थे वे वागीश शुक्ल ही थे. प्रकाश मनु को दिए एक इंटरव्यू में जोशी जी ने वागीश जी के लिए लिखा है कि वे एक लिटररी जायंट’ हैं. वे उनका बड़ा सम्मान करते थे. मुझे एक बार उन्होंने बताया था कि ‘कसप’ के बाद उनका अगला उपन्यास ‘हरिया हरक्युलीज की हैरानी’ दस साल से भी अधिक के अंतराल पर आया तो इसके पीछे एक बड़ा कारण यह था कि उन्होंने वागीश शुक्ल के लिखे जा रहे उपन्यास के अंश पढ़ लिए थे. जिसके बाद उनको डिप्रेशन हो गया. क्योंकि जिस तरह का पांडित्य और लालित्य एक साथ उनको वागीश जी के उपन्यास ‘अथ याज्ञवल्कोपाख्यानाम’ में दिखे वह हिंदी में दुर्लभ था. असल में जोशी जी स्वयं अर्जेंटीनी लेखक बोर्खेस की तरह ऐसा साहित्य लिखना चाहते थे जिसमें गहरा पांडित्य भी हो रोचकता भी, लेकिन उसमें मार्केस की सी लोकप्रियता अधिक आ गई- कई बार कहते थे. उनको लगा कि वे वैसा नहीं लिख पाएंगे जैसा वागीश जी ने लिखा है. इसलिए उपन्यास लेखन से वे विमुख हो गए. प्रसंगवश, वागीश शुक्ल के इस उपन्यास के कुछ अंश जरू छपे लेकिन उनका यह उपन्यास अधूरा ही रह गया.
अब प्रसंग चल ही रहा है तो बता दूं कि जोशी जी के उपन्यासों ‘हरिया हरक्युलीज की हैरानी’ और ‘हमजाद’ का ब्लर्ब वागीश शुक्ल ने ही लिखा है, सो भी बिना नाम के. अपनी लिखी जा रही रचनाओं के बारे में जोशी जी वागीश जी से नियमित चर्चा करते. अक्सर शाम में आइआईटी कैम्पस चले जाते. दोनों घंटों आइआईटी के परिसर में टहलते रहते. जोशी जी के उपन्यास ‘कसप’ की एक उम्दा समीक्षा वागीश शुक्ल ने भी लिखी है.
बहरहाल, विषयान्तर से आपस विषय पर लौटते हैं-
‘फोन करना तुमसे कुछ काम है’, मैं दरवाजे से बाहर निकल गया था कि पीछे से जोशी जी की आवाज आई.
‘जी’, मैंने बाहर से दरवाजा भिड़काते हुए कहा.
असल में बात यह थी कि मनोहर श्याम जोशी से मिलने के पीछे एक लोभ यह भी समाहित था कि इतने बड़े पटकथा लेखक हैं, बड़े-बड़े फिल्मकार उनकी तारीफ करते हैं. मैंने रमेश सिप्पी, कमल हासन के इंटरव्यू भी पढ़े थे, जिन्होंने उनके लेखन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी. तो कहीं न कहीं मन में यह बात भी थी कि जोशी जी अगर किसी टीवी सीरियल के प्रोड्यूसर से कह दें या किसी फिल्म वाले से तो पटकथा लेखन में अपना भी नंबर लग जाए. इसलिए जब उन्होंने कहा कि फोन करना तो मन में यह बात भी आई कि हो न हो वही बात होगी जो मैं सोच रहा हूं. अपना भी नाम किसी सीरियल या फिल्म के क्रेडिट रोल में आएगा. पांच अंकों में पैसे मिलेंगे… और कम से कम मैं तो जोशी जी तरह इतनी कंजूसी से नहीं रहने वाला. शान से रहूँगा, दुनिया घूमूँगा… उस दिन लौटते वक्त बस के करीब १ घंटे के सफर में मन में यही सब चलता रहा.
आखिर मुझ अकिंचन से उनको ऐसा कौन-सा काम होगा जो उन्होंने फोन करने के लिए कहा?
हॉस्टल वापस आने के बाद फिर वही पुराना संकोच उभर आया. इतने बड़े आदमी को फोन कैसे करूँ? मन कहता था कर लो फोन. चलते समय उन्होंने स्वयं कहा था. फोन तक जाता भी था लेकिन याद आ जाता कि उन्होंने हिंदी विभागों में होने वाले रिसर्च को लेकर क्या कहा था? फिर कुछ-कुछ डर कुछ संकोच मन के उस ख़याल पर हावी हो जाता. फोन करना टलता रहा…
खैर, कुछ दिनों बाद ही दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन हुआ. उन दिनों अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का नियमित आयोजन दिल्ली में ही होता था, सीरी फोर्ट में. अपने एक दोस्त की कृपा से मुझे एक ‘सिल्वर पास’ मिल गया. जिसे गले में लटकाए फिल्म वालों के बीच मुझे भी घूमने का अवसर मिल गया. मैंने वहां कौन-कौन सी फ़िल्में देखी यह तो याद नहीं लेकिन किन-किन फिल्मकारों से मिला यह अवश्य याद है. मेरा एक दोस्त नरेश शर्मा उन दिनों एफटीआई से सिनेमाटोग्राफी का कोर्स करके निकला था. फिल्म फेस्टिवल में १० दिनों के लिए उसने घर ही बना लिया था. अहले-सुबह आ जाता, देर रात तक वहीं डोलता रहता. उसके सौजन्य से अमोल पालेकर के साथ मैंने चाय पी, कुमार शाहनी के साथ फोटो खिंचवाई. जीवन में पहली बार इस तरह का अनुभव मिला था, उसके एक-एक पल का मैं लाभ उठा रहा था.
दूसरे या तीसरे दिन वहां मनोहर श्याम जोशी मिल गए. गले में बड़ा सा पास लटकाए अकेले वे एक हॉल की तरफ बढ़े जा रहे थे कि मैं उनकी ओर लपका. मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता कि उन्होंने मुझे पहचान लिया. पहचानते ही कहा, ‘तुमने फोन नहीं किया?’ उसके बाद तो मैं बहुत बेतकल्लुफ हो गया. उनके सीरियल ‘जमीन आसमान के बारे में बात करने लगा. मैंने कहा कि मुझे तो यह सीरियल ‘मिलियनायार्स डॉटर’ की कथा से प्रभावित लगा. उन्होंने कहा कि वैसा नहीं है. बहरहाल, इस तरह की बातें करता हुआ मैं उनके साथ सीरी फोर्ट परिसर में घूम रहा था और लोग उनसे अधिक मुझे देख रहे थे क्योंकि उन दिनों दिल्ली के कला-सर्किल में जोशीजी किसी स्टार से काम दर्जा नहीं रखते थे. लोग देख रहे थे कि इतने बड़े स्टार के साथ यह लड़का कौन घूम रहा है? मैं और बेतकल्लुफ होता जा रहा था उनके हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’ के बारे में बात करने लगा.
जब अधिक देर हो गई तो उन्होंने अचानक मुझसे पूछा- ‘कमल को कहीं देखा है?’ मैं उनका मुँह देखने लगा. वे कमल यानी कमल हासन की बात कर रहे थे.
मेरी वह बेतकल्लुफी जाती रही. जिस बात को उनके साथ बातचीत में मैं भूला हुआ था वह फिर से याद आ गई. वे एक स्टार थे और मैं हिंदी विभाग का शोधार्थी. जो नजदीकी मैं उनके साथ महसूस कर रहा था अचानक वह दूरी में बदलने लगी. उनके एक सवाल ने हमारे बीच एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी. बाद में मैंने महसूस किया कि यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी- आपसे ऐसे बात करने लगते जैसे कि आपके बहुत पुराने दोस्त हों और अचानक कुछ ऐसा कह देते कि वे आपको अपने से बहुत दूर लगने लगते- एक महान शख्सियत की तरह.
उस दिन मुझे इस बात का पहला अनुभव हुआ. पहली बार.
‘कमल कहीं दिखे तो कहना मैं हॉल नंबर दो में जा रहा हूं. शो का टाइम हो गया है. और हाँ… कल-परसों में फोन जरू
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