सी-सैट को समाप्त करने के लिए युवाओं के आन्दोलन के पीछे एक बड़ा तर्क अनुवाद के सम्बन्ध में दिया जा रहा है. जिस तरह की भाषा में प्रश्न पत्र का अनुवाद हो रहा है उसे खुद अनुवादक कैसे समझ लेता है यह दिलचस्प है. बहरहाल, इसी प्रसंग को ध्यान में रखते हुए वरिष्ठ लेखक प्रेमपाल शर्मा ने यह विचारोत्तेजक लेख लिखा है. आप भी पढ़िए- जानकी पुल.
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संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा विवाद की जड़ में अनुवाद की खामियां विशेष रूप से उजागर हुई हैं और हों भी क्यों न। जिस परीक्षा के माध्यम से आप देश की सबसे बड़ी नौकरी के लिए लाखों मेधावी नौजवानों के बीच से चुनाव कर रहे हों और उसका परचा ऐसी भाषा में पूछा जाए कि जिसे न हिन्दी वाले समझ पाएं न अंग्रेजी वाले तो इसे देश का दुर्भाग्य नहीं माने तो क्या माने। आजादी के तुरंत बाद के दशकों में एक अधिनियम के तहत यह फैसला किया गया कि अंग्रेजी अगले पन्द्रह वर्षों तक चलती रहेगी और इन वर्षों में हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं में ऐसा साहित्य अनुदित किया जाएगा या मौलिक रूप से लिखा जाएगा जिससे कि उसके बाद भारतीय भाषाओं में काम किया जा सके। लेकिन हुआ उलटा। शुरू के दो-तीन दशकों तक तो भी राजभाषा और अनुवाद के काम में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वे लोग भी लगे जो जाने-माने साहित्यकार थे जैसे बच्चन, दिनकर बालकृष्ण राव, अज्ञेय आदि। स्वयं प्रेमचंद ने अंग्रेजी की कई किताबों के अनुवाद किये जिसमें जवाहर लाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ भी शामिल हैं। अनुवाद को इन सभी ने इतना ही महत्वपूर्ण माना जितना कि मौलिक लेखन और यही कारण है कि उन दिनों के किसी अनुवाद को पढ़कर कभी लगता नहीं कि आप मूल कृति पढ़ रहे हैं या अनुवाद।
लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में ऐसा अनुवाद सामने आ रहा है जिसको पढ़ने के बजाए आप मूल भाषा में पढ़ना बेहतर समझते हैं। सरकार द्वारा जारी परिपत्रों में तो बार-बार यह कहा ही जाता है कि जहां भी समझने में शक-सुबहा हो तो अंग्रेजी को प्रामाणिक माना जाए। नतीजा धीरे-धीरे यह हुआ कि कम से कम सरकारी अनुवाद तो इतनी लापरवाही से होने लगा है जिसका प्रमाण हाल ही में सी-सैट की परीक्षा से उजागर हुआ है जहां ‘कांफिडेस बिल्डिंग’ का अनुवाद ‘विश्वास भवन’ और ‘लैंड रिफॉर्म’ का ‘आर्थिक सुधार’ किया गया है। और जो भाषा इस्तेमाल की गई है उसे गूगल या कंप्यूटर भले ही समझ ले किसी हाड़मॉंस का आदमी उसे नहीं समझ सकता। यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि जब आप परीक्षा भवन में बैठे होते हैं तो आपके पास अटकलें लगाने या मूल प्रश्न से भटकने का समय भी नहीं होता। संघ लोक सेवा आयोग के एक पूर्व अधिकारी ने बातचीत के बाद जब यह समस्या स्वीकार करते हुए कहा कि आखिर अच्छे अनुवादक कहां से लाएं तो लगा कि समस्या पर पूरे समाज और सरकार को विचार करने की जरूरत है। आखिर अनुवादक भी तो इसी शिक्षा व्यवस्था या देश की उपज हैं।
सबसे पहली खामी तो शायद अनुवादक या हिन्दी अधिकारी की भर्ती प्रक्रिया की है। भर्ती नियम कहते हैं कि हिन्दी अधिकारी या अनुवादक बनने के लिए हिन्दी, संस्कृत या अंग्रेजी भाषा में एम.ए. होना चाहिए और डिग्री स्तर पर दूसरी भाषा। बात ऊपर से देखने पर तो ठीक लगती है लेकिन सारा कबाड़ा इसी नीति ने किया है। कम से कम हिन्दी पट्टी के विश्वविद्यालयों से जिन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया है वे सूर कबीर, तुलसीदास जायसी को तो जानते समझते हैं, भाषाओं, बदलते विश्व के आधुनिक ज्ञान, मुहावरों को नहीं, जिसमें रोजाना का जीवन राजनीति समाज और जटिलताएं झलकती हैं। इसके दोषी वे नहीं है बल्कि वह पाठ्यक्रम है जिसकी इतिहास, राजनीति शास्त्र, भूगोल या विज्ञान के विषयों में कभी आवा-जाही रही ही नहीं। वे संस्कृत साहित्य या तुलसीदास के मर्मज्ञ हो सकते हैं अनुवाद के विशेषज्ञ नहीं। बेरोजगारी के इस दौर में भी जितनी आसानी से प्रवेश हिन्दी अधिकारी या अनुवादक की नौकरी में होता है उतना देश की किसी दूसरी नौकरी में नहीं। नौकरी में आने के बाद इन्हें फिर शायद ही अच्छे अनुवाद या सरल भाषा में अपनी बात कहने का कोई विधिवत शिक्षण-प्रशिक्षण नियमित अंतराल से दिया जाता हो। इसीलिए आपने अधिकांश मामलों में देखा होगा कि इनके अनुवाद की भाषा कठिन बोझिल ज्यादातर मामलों में संस्कृत के शब्दों से लदी हुई या ऐसी टकसाली भाषा होती है जिसका बोलचाल की भाषा से दूर-दूर तक कोई संबंध ही नहीं होता। उर्दू या बोलचाल की हिन्दुस्तानी से दूरी भी इसमें एक प्रमुख भूमिका निभाती है। पुरानी पीढ़ी के संस्कृत के मारे प्रशिक्षक राजभाषा के नाम पर इन्हें ऐसा करने पर और पीठ थपथपाते हैं। इस कमी को पूरा किया जा सकता है बशर्ते कि आप लगातार उस साहित्य और पत्रिकाओं के सम्पर्क में रहें। पिछले कई दशकों के अनुभव के बाद कहा जा सकता है कि सरकार के हिन्दी विभागों में काम करने वाले ज्यादातर कर्मचारी नौकरी में आने के बाद पढ़ने-लिखने से शायद ही कोई संबंध रखते हों और यही कारण है कि धीरे-धीरे उनके पास शब्द भंडार और सरल शब्दों का क्षय होता जाता है।
प्रश्न उठता है कि आखिर वे हिन्दी की किताब क्यों पढ़ें? और क्यों अपनी भाषा को सरल बोधगम्य पठनीय बनाए? पहले तो उनको सरकारी मशीनरी का हर विभाग देखता ही ऐसे नजरिए से है कि जैसे वे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हों। जिन सरकारी बाबूओं को दूर-दूर तक अंग्रेजी नहीं आती वे भी हिन्दी विभाग में काम करने वालों को एक अस्पृश्य नजरिए से देखता है। यानि ऐसा विभाग जो खुशामद करते हुए काम कराता हो, सितंबर के महीने में जो टॉफी, चॉकलेट या दूसरे उपहारों को बांट कर भीड़ जुटाता हो, क्या इन विभागों के शीर्ष पर बैठे हुए बड़े अफसरों ने भी इस ओर कभी ध्यान दिया, कभी अनुवाद को बेहतर करने की सूझी? और क्या दिल्ली के सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले ये तथाकथित अंग्रेजीदां छोटे-छोटे काम आवेदनों के जवाब, टिप्पण आदि हिन्दी में नहीं कर सकते? कब तक आप चंद अनुवादकों के सहारे इतने बड़े सचिवालय या देश का बोझ ठोएंगे ? साठ वर्ष के बाद या राजभाषा अधिनियम की पन्द्रह वर्ष की अवधि समाप्त होने के बाद क्या हमें हिन्दी में काम करने के योग्य नहीं हो जाना चाहिए था?
इसीलिये एक तुरंत समाधान तो अनुवादकों की गुणवत्ता बेहतर करने का यह है कि अनुवादकों के भर्ती नियम तुरंत बदले जायें। हिन्दी अनुवादकों की भर्ती एक परीक्षा के माध्यम से होती है और जब प्रतियोगी परीक्षा ले ही रहे हैं तो उनमें किसी भी विषय में डिग्री या स्नातकोत्तर ही पर्याप्त माना जाए । किसी भाषा विशेष में स्नातक या स्नातकोत्तर होना नहीं । क्या सिविल सेवा परीक्षा समेत कर्मचारी चयन आयोग, बैंक आदि की ज्यादातर परीक्षाओं में केवल ग्रेजुएट डिग्री ही पर्याप्त नहीं मानी जाती? इससे मेधावी, प्रखर, भाषा ज्ञान रखने वाले वे भी चुने जा सकते हैं जिन्होंने हिन्दी माध्यम से राजनीति शास्त्र, इतिहास या विज्ञान विषयक कोई भी पढ़ाई पूरी की है। इसका उलटा भी कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े जाने वाले वे नौजवान भी इसमें आराम से चुने जा सकते हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दी रही हो। भाषाओं से इतर योग्यता रखने वाले को विषयों का बेहतर ज्ञान होने के कारण अनुवाद में वे गलतियों नहीं आएंगी जो संघ लोकसेवा आयोग की सी-सैट परीक्षा से उजागर हुई हैं । आधुनिक विषयों का ज्ञान रखने वाले अनुवादक ऐसी गंभीर गलतियां । भी नहीं करेंगे।
दूसरे भारतीय भाषा-भाषी हिन्दी अनुवादकों में शामिल हों पायें तो सबसे अच्छा रहे। उन्हें परीक्षा में रियायत देकर भी राजभाषा विभागों में नौकरी देनी चाहिये। इससे वह पाप भी धुलेगा जो हिन्दी भाषियों ने त्रिभाषा सूत्र को धोखा देकर दक्षिण की कोई भाषा न सीखकर किया है । क्या भारतीय भाषाओं की एकता राष्ट्रीय एकता के समतुल्य नहीं है?
अनुवाद की चक्कियों के बीच पिसते राजभाषा हिन्दी के कर्मचारियों को शायद ही कभी समकालीन साहित्य को पढ़ने की फुर्सत मिलती हो। एक पुस्तक चयन समिति के दौरान कुछ विवाद बढ़ने पर एक हिन्दी अधिकारी ने सफाई दी ‘मुझे क्या पता कौन सी किताब अच्छी है या बुरी। मैंने तो पिछले पन्द्रह साल से कोई नयी किताब नहीं पढ़ी। अनुवाद से फुर्सत मिले तब न।‘ आश्चर्यजनक पक्ष यह है कि ऐसे अधिकारी न पढ़ने के बावजूद भी आखिर पुस्तक चयन समिति में क्यों बने रहना चाहते हैं? एक अधिकारी का दर्द और उभरकर सामने आया। पहले तो अनुवाद से फुर्सत नहीं मिलती उसके बाद संसदीय समितियों के साठ-सत्तर पेजों के ब्यौरे, फार्म, अनुलग्नक, प्रपत्र । कितने कंप्यूटर खरीदे गये ? उसमें कितने द्विभाषी थे? कितने कर्मचारी हैं, कितनो को प्रबोध, प्रवीण का ज्ञान है, कितने पत्र ‘क’ क्षेत्र को गये कितने ‘ख’ क्षेत्र को और कितने विज्ञापन अंग्रेजी में गये कितने दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में? और फिर उन्हें लगातार यह डर रहता है कि संसदीय समिति इन आंकड़ों को जोड़ कर देखने पर कोई गलती न निकाल दे। हिन्दी विभाग न हो कोई गणित की प्रयोगशाला हो गया। यानि कि उन्हें राजभाषा का गणित और समितियों को खुश रखने का बीजगणित तो सिखाया जाता है भाषा को सहज, लोकप्रिय बनाने का बुनियादी पक्ष नहीं। इस निरीक्षण ने ऐसा आतंकित कर रखा है कि देश भर में इन आंकड़ों, परिपत्रों को भरने वाले राजभाषा अधिकारियों ने सेवानिवृत्ति के बाद एजेन्सी या दुकानें खोल ली हैं। वे प्रश्न और पूरक प्रश्नों की सूची भी देते हैं और समिति के निरीक्षण के बाद पाते हैं विभागों से भरपूर, मुआवला फीस। भाषा गयी भाड़ में आंकड़ों की वाह-वाह। एक और अनुभव। एक ऐसे ही हिन्दी अधिकारियों की बैठक में भाग लेने का मौका हुआ । निदेशक महोदय बड़े उत्साह से बताते कि ये अमुक हैं संयुक्त सचिव हैं और लेखक भी। कई चेहरों के विचित्र भावों को देख के जब प्रश्न पूछा कि क्या कभी कुछ पढ़ा है कोई पत्रिका, किताब आदि तो सबका एक सा ही निरीह जवाब था कि पढ़ने को फुर्सत कहां मिलती है । क्या भाषा के प्रचार-प्रसार से जुड़े हुए किसी कर्मचारी से ऐसी उम्मीद कर सकते हैं कि जो अपने वक्त के साहित्य और विमर्श से इतना अलग हो।
कुछ व्यक्तिगत अनुभवों का जिक्र करना भी जरूरी लगता है। वर्ष 1979 सिविल सेवा परीक्षा समेत कई प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के क्रम में मैंने एक बैंक में एक हिन्दी अधिकारी पद के लिए भी आवेदन कर दिया जब फीस दी थी तो लिखित परीक्षा के लिए बुलावा भी आया और लिखित में पास भी हो गया । साक्षात्कार के समय उन्होंने पेंच लगाए कि आप हिन्दी में स्नातकोत्तर तो हैं लेकिन बी.ए. में तो आपके पास विज्ञान था । न हिन्दी थी, न अंग्रेजी । मैंने समझाने की कोशिश भी की कि बी.एस.सी. अंग्रेजी माध्यम में थी जिसे अंग्रेजी के एक विषय से बेहतर नहीं तो बराबर माना जा सकता है लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए क्योंकि उनके भर्ती नियमों में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कितना किसी को अनुवाद और भाषा ज्ञान है महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने उन विषयों में डिग्री ली है या नहीं । इनके भर्ती नियमों के अनुसार तो रामचंद्र शुक्ल न बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफसर बन सकते थे न ये उन्हें हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने देते। आप सब जानते होंगे कि उर्दू के कथाकार मंटो बारहवीं में दो बार उर्दू विषय में फेल हुए थे। लेकिन उर्दू साहित्य में उनका शानी पूरे महाद्वीप में कोई नहीं। एक दशक पहले मंत्रालय में निदेशक राजभाषा के पद पर प्रतिनियुक्ति से आवेदन मांगे गये थे। एक आवेदनकर्त्ता विज्ञान और हिन्दी दोनों में स्नातकोत्तर था । लेकिन उसे साक्षात्कार के लिये भी इसलिये नहीं बुलाया गया कि डिग्री स्तर के विषयों में हिन्दी या अंग्रेजी का उल्लेख नहीं है । यहां भी वही पेंच । क्या अंग्रेजी माध्यम से विज्ञान पढ़ना अंग्रेजी विषय की पूर्ति नहीं करता ? काश इन नियमों में अपेक्षित परिवर्तन किया जाये तो विज्ञान या हिन्दीतर दूसरे विषयों को पढ़कर आने वाले मौजूदा अनुवादकों से कहीं ज्यादा अच्छे साबित होंगे ।
आखिरी बात कि अनुवाद के सहारे कब तक? कम से कम दिल्ली स्थित केन्द्र सरकार के पिचानवे प्रतिशत कर्मचारी, अधिकारी हिन्दी जानते, समझते, बोलते हैं । संसदीय समितियां भी यहीं हैं और राजभाषा के सर्वोच्च विभाग भी । क्यों ये अपनी बात फाइलों पर अपनी भाषा में कहने में हिचकते हैं ? इसकी शुरूआत उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों से करनी होगी । पिछले तीस वर्षों में हिन्दी माध्यम से चुने गये अधिकारियों का तो यह थोड़ा-बहुत नैतिक दायित्व बनता ही है कि जिस भाषा के बूते वे इन प्रतिष्ठित सेवाओं में आये हैं, उसमें कुछ काम भी किया जाये और राजभाषा विभाग का बोझ कुछ हल्का करें । इनमें से अधिकांश कविता तो लिखते हैं, फाइल पर नोट, या पत्र नहीं । वहां तो कई बार ये दूसरों से बेहतर अंग्रेजी लिखने की दौड में शामिल हो जाते हैं । इसका प्रमाण मिला दक्षिण भारत के एक सरकारी कार्यालय में । हिन्दी प्रेमी दक्षिण भारतीयों का कहना था कि यहां उत्तर प्रदेश, बिहार से बड़ी संख्या में अधिकारी तैनात हैं । हम चाहते थे कि इनके साथ रहकर हमारी हिन्दी ठीक हो जायेगी क्योंकि हमें भी दिल्ली या दूसरे हिन्दी क्षेत्रों में जाना होता है । उन्होंने अफसोस के साथ बताया कि उत्तर के ये अधिकारी तो अंग्रेजी सुधारने में लगे रहते हैं । क्या भारतीय भाषाओं या हिन्दी के लिये सड़कों पर आंदोलनरत ये छात्र देश को यह यकीन दिला सकते हैं कि प्रशासन के इस दुर्ग में प्रवेश पाने के बाद वे जनता से जनता की भाषा में ही बात करेंगे ? पिछले तीस बरस का अनुभव तो कुछ उल्टा ही कहता है कि ये और ज्यादा और जल्दी अंग्रेजी सीखकर अमेरिका, इंग्लैंड उड़ जाना चाहते हैं ? लेकिन यह प्रश्न और बड़ा होकर वापस लौटता है कि क्या मानव मूल्यों, बराबरी, जाति, धर्म से ऊपर उठने की बात करने और लिखने वाले लेखक बुद्धिजीवी अपने जीवन में ऐसा हो पाते हैं ? क्या संविधान की शपथ लेने वाले मंत्री घंटे दो घंटे भी उसे याद रखते हैं?
सी-सैट के प्रश्नों के हिन्दी अनुवादकों को बरखास्तगी की मांगभी कुछ लोगों ने की है । लेकिन क्या इसमें उनका कसूरकम है जो हिन्दी क्षेत्रों में हैं उसी में पढ़े हैं लेकिन अपनी भाषा से उतनी ही दूरी बनाने में फख्र करते हैं । हमें आयोग के समक्ष अनुवाद की चुनौती को समझने की भी जरूरत है । जरा सी चूक हुई तो प्रश्न पत्र लीक हो सकता है और पूरी प्रतिष्ठा दांव पर । इसलिय हर हालत में यू.पी.एस.सी. में ही कुछ विशेष प्रावधान करके सर्वश्रेष्ठ अनुवादकों की भर्ती की जरूरत है ।
सी-सैट विवाद के मुद्दे ने अनुवाद की खामियों की ओर पूरे देश का ध्यान खींचा है लेकिन यदि हम समस्याओं को समाधान चाहते हैं तो हमें भर्ती नियमों और उनकी योग्यता आदि के प्रावधानों में तुरंत बदलाव करने होंगे और दीर्घजीवी समाधन तो यही है कि जब तक स्कूल, कॉलिजों में शिक्षा अपनी भाषाओं में नहीं दी जायेगी, इस समस्या का पूरा हल संभव नहीं होगा। और दीर्घजीवी समाधान तो यही है कि जब तक स्कूल, कॉलिजों में शिक्षा अपनी भाषा में नहीं दी जाएगी इस समस्या का पूरा समाधान संभव नहीं होगा।
‘जनसत्ता’ से साभार
‘जनसत्ता’ से साभार
प्रेमपाल शर्मा
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