प्रचण्ड प्रवीर विश्व सिनेमा पर सीरिज लिख रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है ‘हॉरर’ फिल्मों पर. इस लेख में न सिर्फ कुछ महान हॉरर फिल्मों का उन्होंने सूक्ष्म विश्लेषण किया है बल्कि शास्त्रों के भयानक रस के आधार पर भी उन्हें देखने का प्रयास किया है. सिनेमा और रस सिद्धांत का यह मेल अगर चलता रहा तो हिंदी में सिनेमा पर एक नायाब किताब बन जाएगी- मौलिक. जानकी पुल अगर अब तक नहीं टूटा है ऐसे ही मौलिक लेखकों के लेखन एक दम पर. समय निकाल कर न सिर्फ लेख पढ़िए बल्कि इन फिल्मों को देखने का समय भी निकालिए. अब देखिये न, मैंने तो अशोक कुमार की फिल्म ‘महल’ तक नहीं देखी है- प्रभात रंजन
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इस लेखमाला में अब तक आपने पढ़ा:
- भारतीय दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र : http://www.jankipul.com/2014/07/blog-post_89.html
इसी में दूसरी कड़ी है भयानक रस की विश्व की महान फिल्में।
अब आगे :-
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भयावह फिल्मों का अनूठा संसार
फिल्मों का पारंपरिक अध्ययन फिल्मों के कथानक के प्रकारों की भिन्नता पर आधारित होती है जैसे कि रहस्य प्रधान, संगीत प्रधान, वैज्ञानिक फंतासी, प्रेम कहानी वगैरह। हालांकि गोदार्द सरीखे निर्देशक फिल्मों को पूरी तरह कला मानने से इनकार करते हैं, और इसे जीवन और कला के बीच एक नए तरह का अभिव्यक्ति कह कर संबोधित करते हैं। इस लेखमाला में प्राचीन भारतीय सौंदर्यशास्त्रों के सिद्धांत से हम फिल्मों का रस के अनुसार अध्ययन करेंगे। इस तरह से कथानक के दांव–पेंच, तकनीक की उत्कृष्टता और नवीनता, रंगों का खूबसूरत प्रयोग, हमारी चर्चा में वरीयता में नहीं होंगे। हमारे अध्ययन का केंद्र बिंदु स्वयं की संवेदना और अनुभूति है।
सन १९४९ में बॉम्बे टाकीज की फिल्म आयी थी – महल! अशोक कुमार और कमाल अमरोही की इस फिल्म ने लता मंगेशकर और मधुबाला को स्थापित कर दिया। यह हिन्दी फिल्म कई मायनों में डरावनी थी। इस यादगार फिल्म की उल्लेखनीय शुरुआत नेपथ्य में एक अधेड़ आदमी की बुलंद कर्कश सी आवाज़ से होती है –
“तीस बरस पहले, बरसात की इक तूफानी
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