कमलेश्वर का उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ सन 2000 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास के अभी तक 18 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और हिंदी के आलोचकों द्वारा नज़रअन्दाज़ किए गए इस उपन्यास को पाठकों का भरपूर प्यार मिला। उपन्यास में एक अदीब है जो जैसे सभ्यता समीक्षा कर रहा है। इतिहास का मंथन कर रहा है।इसी उपन्यास पर एक काव्यात्मक टिप्पणी की है यतीश कुमार ने, जो अपनी काव्यात्मक समीक्षाओं से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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1.
समय की उल्टी दिशा में
दशकों से भटक रहा है अतीत..
और मानव-सभ्यता की तहक़ीक़ात
अभी ज़ारी है
सच की अदालत में
फ़ैसला होना बाक़ी है अदीब
रूहों से भी गुफ़्तगू होनी है
कितने और विस्थापनों को अभी रोकना है
सभ्यता बदली है, समय भी बदला है
लेकिन बदलती सभ्यता के साथ
जो नहीं बदल सका
वह अब भी इतिहास में लहू बहा रहा है
आने वाली सभ्यता पिछली सदी के
रक्त-बीज से जन्मती रही है
और इनके बीच
ख़ामोशी एक तवील रात है
सबसे बड़ा आकर्षण है ख़ामोशी
और ख़ामोश आकर्षण की दुनिया
जिन आँखों से दिखे
उन्हें ढूंढता फिर रहा हूँ …
2.
आँखों में समय की दूरबीन लगी है
“संजय” को बचा लेना चाहता हूँ
नज़रों के बदलते दृश्य में
आँखें अय्यार हो गई हैं
अबाबील की आँखों में झाँका तो
उजड़े किले, अंधे गुंबद
अधजली मशाल, सफेद आँखें
वक़्त को ताकती-झाँकती दिखीं
सिलाबी आँखों से देखा तो
पानी के दाग़ की तरह
वजूद की लिबास पर
सुर्ख़ छींटे नक्श से दिखे
निस्बत से भी देखता हूँ
तो दुनिया धुंधली
समय स्तब्ध, प्रेम निःशब्द
और मेरा देश धूल-धूसरित दीखता है
देखते-देखते ताजमहल के आधार में गिर पड़ा
खून से लथपथ पहली ईंट से
गुंबद की नक़्क़ाशी और आयतों तक की
उत्कीर्ण दास्तानें गूंजने लगीं
सुर्ख़ छींटे, खाल के आबले
फोड़ों के अँखुए
पीप से भरे पीपे
असँख्य रुण्ड .. एकस्वर कराहने लगे
पुतलियों की कोटर में
तहज़ीब की लौ जलती दिखी
वक़्त ने उसके टुकड़े बाज दफा किया
बस सिर कलम एक बार किया
3.
मोमबत्तियों की ऐसी क़ायनात दिखी
जो बुझ कर शाश्वत अंधेरा दिए जा रही थी
समूची धरती पर
एक जैसी अनगिन कहानियाँ दिखीं
जिनके सिरे एक-दूसरे से अछूते थे
लेकिन वे समय के साथ बस बहे जा रहे थे
वह कलयुग ही था
जो काले उड़ते आसमान के पर्दों के परे
झंझावत के बीच भी झांक रहा था
तभी कच्छ के नमकीले कछार
दलदल की गीली दीवारों से मिल कर
लहरों में बदलते दिखे
मौत के योगफल से
निर्धारित होता हुआ
युद्ध का फ़ैसला दिखा
अक्षौहिणी-चतुर्दशी विनाश के साथ दिखा
प्रश्नों से उपराम ईश्वर
4.
तलवार की नोक पर धर्म को देख
भकाभक कर रो पड़ा बादल
इतना कि उसकी आँखें सूज गईं
बारिश का चेहरा रेगिस्तानी हो गया
हज़ारों निशीथ में टहलते हुए
नक्षत्रों से दोस्ती कर ली
युगों के तल्प पर सोया
समय के शिगाफ़ से झाँका
मुग़लताओं का ज़खीरा देख लिया
यह भी देखा कि मनुष्यहन्ता का
अप्रत्याशित मौतों पर अन्वेषण का दौर
ख़त्म ही नहीं हो पा रहा.
इस बीच
युगों तक टहलता हुआ
लहू पर फिसलते-फिसलते
वक़्त इक्कीसवीं सदी में दाख़िल हो गया
तब पराशक्ति से पूछा मैंने
यह सब क्या हो रहा है ?
मौन में जवाब मिला
परशिव से पूछो
जब शिव के पास गया तो देखा
मेरी दस्तक से पहले
तमाम दूसरी दस्तकें वहाँ मौजूद थीं
5
आदमी और मनुष्य
दोनों के शाब्दिक अर्थ एक हैं
फिर क्यों इनकी आवाज़ें आपस में टकरा रही हैं
ये आवाज़ें ख़्वाबों के रेशों पर
शोर की किरचियाँ चला रही हैं
सबकुछ तहस-नहस हो रहा है
खेतों में बारूद और बंदूकें उग रही हैं
जबकि यह तो सबको पता है
कि हथियार बनेंगे तो एक दिन चलेंगे भी
6
आवाज़ें फ़रार हो चुकी हैं
इच्छाएँ अब बंदी नहीं हो सकतीं
धमनियों में रक्तकणों के साथ
आवाज़ें भी पैबस्त हो चुकी हैं
थके हुए लकड़बग्घे
खा-पकाकर विश्राम पर हैं
महापुरुषों का अवसान
शोकगीत के साथ हो रहा है
आइंस्टाइन आज भी पछता रहे हैं
गांधी अपने रास्ते पर अडिग हैं
पछतावे और पराजय की ग्लानि ढोते
पछता रहा है वर्तमान !
इतिहास है जो कभी भी नहीं पछताता
7
चलना अपनी जगह है
चल कर पहुँचना अपनी जगह
सोचना कितना आसान है
और सोचे हुए को जीना कितना मुश्किल !
उसने कहा बहुत ख़ूबसूरत हो तुम
तपाक से जवाब मिला
कि तक़सीम नहीं हुई होती
तो क़ायनात भी ख़ूबसूरत होती
उसने देश और आदेश के साथ
मुहब्बत को तक़सीम होते देखा
प्रेम छिपकली की पूंछ है
बिछड़ कर मरती नहीं
और ज़्यादा तड़पती है
पलकों की लहरें
तेजी से उठने-गिरने लगीं
होंठ तितलियों के पंख की तरह
खुलने और कांपने लगे
नीम की पीली पत्तियां झरने लगीं
पत्तियों का झरना अंधेरे का मौसम है
या यह अंधेरा ही है
जो पत्ती-पत्ती झर रहा है !
पेड़ के सारे पत्ते झर गए
बस एक ख़लिश के साथ
टँगा रह गया चाँद
8
यादें छोटी-बड़ी नहीं होतीं
बस घटती-बढ़ती आहटें होती हैं
हथेलियों पर मोती बरसे
और मोतियों के दाग़
हथेलियों पर उग आए
कई बरसों बाद
आंसुओं की परछाइयां दिखीं मुझे
आंसुओं का मर्सिया गूंज उठा …
कोख़ में सांस का भी दम घोंटा जा रहा है
सैकड़ों आंखें कफ़न की
तलब में बुझती जा रही हैं
बिना आग के भी पत्तियां झुलस गईं
रेहन में रख दिया गया प्रेम
मां बनते ही हर औरत की
शक़्ल एक जैसी हो जाती है
इच्छाओं में माँ एक संभावना है
और संभावनाएँ हमेशा ज़िंदा रहती हैं
9
उलझा हुआ आदमी
सबसे ज़्यादा मुस्कुराता है
उसकी मुस्कुराहट में
एक कड़वाहट घुली होती है
अकेले का रोना
अनगिन नदियों का समंदर होना होता है
वक़्त के आसपास ही
दबे पांव चलता रहता है बदवक़्त
दोनों के अदृश्य जंग में
बदलती रहती है आंसुओं की हम हिस्सेदारी
10
तहज़ीब अगर टूटती है
फ़िरक़ावाराना हौले से दाखिल होता है वहाँ
आदिम राग और रिश्तों में बंधने के लिए
आदम आठ-आठ आंसू रोता है !
जब-जब यह आवाज़ आई
“यक़ीन जानिए”तब-तब
इंसानियत का क़त्ल हुआ
और, अब इतिहास पर यक़ीन करना मुश्किल है
कोई मुश्किल लाइलाज़ नहीं
इंसान का दुःख एकात्म हो सकता है
लेकिन निदान देने वाला ईश्वर
तो पहले एक हो जाए !
11
एक आवाज़ बारहां गूंजती है
आर्य-अहंकारों से बाहर निकलो
धर्म का शरणार्थी होने से बचो
स्वयं का दीप बनो
मृत्यु से नहीं
उसके भय से मुक्त हो
निर्वाण का पुनर्जन्म नहीं होता
ज़ेहन में बुद्ध मुस्कुराते हैं …
सुख मन का पूरापन नहीं
उसे खाली रखना है
गुलदान से गोया गिर कर
फूलों की पत्तियों में लिपट गया है
उसे बीनना ही सुख है ..
धर्म बदल लेने से
इतिहास की जड़ें नहीं बदलती
दरअसल सच यही है
कि आँखें जिसकी खुल जाए
वही सूरदास है
12
सियासत के अलाव में
धर्म का दोगलापन
अपना जिस्म सेंक रहा है
वहाँ मुझे जिस्म की कब्र में
परछाइयां ज़्यादा दिखीं
सांस लेते मनुष्य कम दिखे
धर्म-परिवर्तन भी एक सहूलियत है
कमोबेश ठीक उसी तरह
जिस तरह जंग के दरमियान
बदल दिए जाते हैं घायल घोड़े
विलाप का चँदोवा और फैला
भूख और भीख को समेटे
वक़्त के हरकारे ग़ायब कर दिए गए
परिंदों के परवाज़ नदारत
चाँद कुम्हलाया, सूरज स्तब्ध
आसमान खाली, सीठे हुए खजूर …
संस्कृति की नदी सूखने लगी
उसूल आत्महत्या करने लगे
तभी बिजली कड़की, बादल गरजे
पंख उड़े और फिर बिखर गए
चांदी के चार पंख
धरती ने रख लिए
फरिश्तों के सदमे से कंपन हुआ था
उसी कंपन ने गिराए थे चार पंख
दारा शिकोह अब
फरिश्तों के पंख बन कर धरती पर है
वक़्त ने ताक़ीद की
हर सदी में दारा शिकोह के साथ-साथ
आलमगीर के पैदा होने के
दस्तूर को बदलना होगा
और एक स्वर हो गईं समवेत चीखें …
13
ग़ुलामी अगर बादशाह की हो
तब भी सिर क़लम करती है
और अगर प्रजा की हो
तो ख़ुद ही क़लम हो जाती है
चांदनी चौक के पीपल पर
दारा और गुरु तेग बहादुर
दोनों के सिर क़लम हुए
पर शीश नहीं झुके
इन हादसों के बीच
आंसुओं से पवित्र दूसरी चीज़
ढूंढने में आदम खोया रहा
मंदिरों की बाती
और मरघट के दिए के बीच
हम भटकते रहे
इन सब के बीच तिरोहित हुई आवाज़ें
सिसकियों के साथ उभरती हुई कहती हैं –
“ईश्वर के अवतरण का इंतज़ार ही
ज़िंदा रखती हैं संस्कृति और सभ्यताओं को”
14
नदियाँ जब ऐंठती हैं
तो गुज़रने वाले शहरों की भाषा में ऐंठन छोड़ जाती हैं
इतिहास इन्हीं भाषाओं में साँसें लेता है
वही इतिहास हमने जिया
जो तर्को और स्वार्थों के फावड़े से
बनाए गए पोखर भर इतिहास से लिखा गया
जबकि नदियों के साथ बहता रहा इतिहास
हम उस ओर गए ही नहीं ..
समय का दहकता सूरज
निगलता-सुखाता गया उन बहावों को
अब तलाश रहे हैं सरस्वती को चिराग़ लिए
और, यमुना मिली भी तो दामन फटा मिला
ताबड़तोड़ पैंतरे और बेवक़्त अंधड़ से
टपकी आज़ादी की कलाइयों पर
आज भी सिक्कड़ के दाग़ हैं..
कोई रबड़ नहीं मिल रही
कि उन दाग़ों के नक़्शे-पां मिटाए जा सकें
15.
1757 में कुछ चूहों ने
बिल बनाने शुरू कर दिए
छुपते-निकलते वे फैलते रहे
जिस दिन वे सब बाहर आए
ढहाते हुए एक साथ अपने बिलों को
पूरे सल्तनत की नींवें हिल गईं
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, बाज़ारवाद
हर एक कड़ी अपनी शक़्ल बदलती गई
और बुद्ध मुस्कुराता रहा
स्वयं से स्वतंत्र होने की बात करता रहा…
पूंजी की नाभिनाल से
बाज़ार का कमल खिलता रहा
तब से साम्राज्य से पूंजी
और पूंजी से बाज़ार के
चक्रवृद्धि वृत की परिधि
फैलती जा रही है
बाज़ार के विस्तार में
निकलता है खोजी नाविक
लिए बंदूक और धर्म प्रचारक को एक साथ
इनकी गंठजोड़ ही
बाज़ार में सफलता की कुंजी है
बाज़ार के फैलाव के साथ बदलती सभ्यता
कृत्रिम उत्सव और उल्लास के बीच
लाशों की सड़ांध पर
छिड़कती है इत्र बेशुमार
कपास-अनाज से ज़्यादा तस्करी है अफीम की
ज्ञान के प्यासे भिक्षुक
श्रमिक आंदोलन के बाद
भिखारी बन कर पैदा लेने लगे
एक समय था
आदम की परछाइयों से बातें करता था अदीब
अब आदम ख़ुद बिना परछाइयों के हैं
और ये बातें भी नहीं करते !
पूर्वज हमारी परछाईं हैं
इतिहास पर कलम चलाना
अपनी परछाईं को मिटाना है
16
1857 की कौमी एकता के बरक्स
1946 का डायरेक्ट एक्शन डे
सवाल-जवाब की तरह दर्ज़ है
संसार के महाभोज में
बार-बार परोसा गया है भारत
जब खाली पत्तल बचे
और नीला रंग सुर्ख हो गया
गोरे हड़बड़ाहट में भागने लगे
हाथ में रह गया
दीमक लगा पाकिस्तान
और लंगड़ाता हुआ हिंदुस्तान
अपने-अपने खोखलेपन में कराहता हुआ
सरहद के आरपार
किसानों और सिपाहियों के
मज़हब मुख़्तलिफ़ हो सकते हैं
पर मौसम और मिज़ाज नहीं.
17.
यश-अपयश का अंतर्विरोध
अब पहले सा नहीं रहा …
प्रमथ्यु का गिद्ध थक चुका है बेतरह
गिलगमेश बुद्ध से मिलकर ख़ुद को ढूंढ रहा है
अंधे अदीब को सब साफ-साफ दिखता है
कबीर पोखरण में बौद्ध वृक्ष लगा रहा है
और आदम मोक्ष की बजाए
मृत्यु के अन्वेषण में
ज़्यादा दिलचस्पी ले रहा है
जरायमान का फैलाव इस कदर है
कि नारा दीवारें लगा रही हैं
आज हौसलों से नहीं
इश्तेहार से लड़े जा रहे हैं युद्ध
युद्ध के बाहर और भीतर
पराजय और दुर्भाग्य
रेल की दो पटरियों-सी
साथ-साथ चल रही है
इन सभी दृश्यों के बीच
सवाल अब भी आँखे तरेरे खड़ा है
कि और कितने पाकिस्तान ???????
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