समकालीन लेखकों में अम्बर पाण्डेय ऐसे हैं जिनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है। परंपरा की गहरी समझ है तो आधुनिक दृष्टि भी है। आप उनसे असहमत हो सकते हैं लेकिन उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। प्रस्तुत है उनसे यह लंबी बातचीत- प्रभात रंजन
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प्रश्न : आप लेखन और साहित्य लेखन में आपके हिसाब से क्या अंतर होता है या किन आधारों पर दोनों तरह के लेखन में अलगाव देखा जा सकता है? आपसे यह सवाल इसलिए क्योंकि आप ने अनेक विधाओं में, अनेक तरह की शैलियों में लेखन किया है।
उत्तर : लिख सभी सकते है, अधिकतर लिखते भी है। हम सभी ने पत्र, आवेदन, कइयों ने रोज़नामचे और युवावस्था में कविताएँ भी लिखी होती है किन्तु इसका अधिकांश साहित्य नहीं होता। फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहीं कहा है इश्क़ तो कोई भी कर लेता है, इश्क़िया शायरी करना बड़ी मुश्किल चीज़ है। लिखा हुआ जो परम्परा में, संस्कृति का जो सदियों पुराना क्रम है उसमें यदि उपस्थित हो जाता है, फिट हो जाता है तो साहित्य बन जाता है। साहित्य मूलतः परंपरा है, निश्चय ही परंपराएं टूटती भी है तब परंपरा का टूटने की भी साहित्य में परंपरा है। अज्ञेय ने सम्भवतः कहा है कि भाषा हमें परम्परा से प्राप्त होती है और उसके सभी रंग हमें प्राप्त होते है ऐसा नहीं है कि भाषा का केवल पितृसत्तात्मक पक्ष ही परंपराप्रदत्त, अर्थ, व्याकरण, मुहावरे सभी हमें परंपरा से प्राप्त होते है। अब इस परंपरा प्रदत्त भाषा को हम किस परंपरा में स्थापित करते है यह हम पर है। कोई दर्शन की परंपरा में इसे लोकेट करता है कोई साहित्य की तो कोई पत्रकारिता की।
जो परम्परा से रहित है वह व्यक्तिगत है, कई बार इसमें व्यतिक्रम भी होता है जैसे अंग्रेजी की कन्फ़ेशनल कविता में हुआ फिर उसकी परंपरा बन जाती है।
प्रश्न : अम्बर जी आपने परंपरा और संस्कृति की बात की तो इससे ध्यान आया कि इस समय ये दोनों शब्द बहुत विवादित हैं। इसलिए यह जानना चाहता हूँ कि आपकी निगाह में लेखक के लिए संस्कृति और परंपरा का क्या अर्थ हो सकता है? ख़ासकर हिन्दी भाषा के लेखक के लिए?
उत्तर: दोनों शब्द संस्कृति और परंपरा इसलिए विवाद के विषय रहे है क्योंकि इन्हें प्रत्येक विचारधारा या वर्चस्वशाली ने इनका अर्थ संकुचित करने पर ज़ोर दिया है। एक या पहली परंपरा जैसा शब्द इसी का परिणाम है। जैसे मैं यदि कहूँ बहुलता, बहुध्वन्यात्मकता, समस्वरता हमारी परंपरा है तो तुरंत इसके प्रतिवाद में हमारी परंपरा पर कोई नई स्थापना खड़ी हो जाएगी कि मूलतः हमारी परंपरा एक वर्ग विशेष की परंपरा है। दूसरा पक्ष इसका प्रतिवाद करेगा तो ऐसे परंपरा का एक तीसरा पक्ष उजागर होगा कि हमारी परंपरा वाद-विवाद की भी परंपरा है। मीमांसा से आगे वेदांत आया फिर जैन और बौद्ध आए, उसके बाद नाथ, तंत्र और अन्य शाक्त परंपराओं का उदय हुआ। फिर देखते है भक्ति आंदोलन चला तो सब के सब यह अपने पिछले से विवाद करते हुए आए, अपने पूर्ववर्ती का विकास थे।
यहाँ तक कि वामपंथी भी भारत में ख़ुद को लोकायत जैसे पुरातन दर्शन से जब जोड़ते है तो एक परंपरा का पुनराविष्कार ही कर रहे होते है। आर्कटाइप की खोज से पहले प्रोटोटाइप खोजा जाता है तो परंपरा को ही खोजा जाता है। राधावल्लभ त्रिपाठी ने ऐसे कई संस्कृत मुक्तकों का संग्रह बनाया है जिसमें नितांत सामान्य जीवन और दैनंदिन की कविताएँ है, दरिद्रता में लोग कैसा जीवन पहले व्यतीत करते थे या कृषकों के जीवन संबंधी कविताएँ है यह आज की वामपंथी की परंपरा खोजने का ही प्रयास है।
अनेक परंपराएं हिंदुस्तान में है और जब जिसका वर्चस्व होता है वे मुख्यधारा की परंपरा बन जाती है। साहित्य में आप देखेंगे आज़ादी के बाद से ही वामपंथ का ज़ोर रहा, उनकी अपनी परंपरा बनी और जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि उन्होंने भारत के पुरातन दर्शनों और परम्पराओं से भी ख़ुद को जोड़ा। उनके पास वर्चस्व था, सत्ता से उनकी निकटता थी इसलिए इस परंपरा का प्रसार भी साहित्य में खूब हुआ। फिर जैसा कि होता है वामपंथी साहित्य मात्र टोकन लिटरेचर बनकर रह गया, उसके अंतर्संघर्ष और जन साधारण से उसका संबंध बिल्कुल कटता गया। दक्षिणपंथी दर्शन सत्ता में आ गया मगर वामपंथियों को न इसका पहले अंदेशा हुआ न बाद ही में वे इस रोक सके क्योंकि आम नागरिकों से उनका कोई संबंध था ही नहीं। आम नागरिक दक्षिणपंथी राजनीति की तरफ़ जा चुके थे, उन्होंने भारी मतों से इसके पक्ष में वोट दिया। साहित्य राजनीति को प्रभावित करने की अपने क्षमता पूरी तरह खो चुका। ऐसा पहले नहीं होता था, हमारे स्वतंत्रता संग्राम में साहित्य की बड़ी भूमिका रही, दुनिया के सभी देशों में साहित्य का प्रभाव रहा। लैटिन अमरीकी देशों में साहित्यकारों का राजनीति में खासा दखल रहा। हिंदी भाषियों में यह आज़ादी के बाद पूरी तरह विलीन हो गया। मराठी, कन्नड़, मलयाली और बांग्ला में संभवतः यह हो।
एक दुखद बात यह हुई कि साहित्य को पिछले कुछ वर्षों में जैसे नष्ट करने का अभियान चला ऐसा दो तरह से हुआ। एक युक्ति है ध्यान न देकर किसी वृक्ष को सुखा डालने की। साहित्य से समाज का और समाज में जिनकी सुनी जाती है उनका ध्यान ही साहित्य से हटा दो। ध्यान हटाने के लिए ज़रूरी है कहीं और ध्यान लगाना तो साहित्य और संस्कृति की जगह को धर्म से भरने का प्रयास किया गया। जैसे किसी धर्म प्रचारक संन्यासी को कोई साहित्यिक पुरस्कार दे देना, जो संस्थान साहित्यिक गतिविधियों के लिए बने थे वहाँ राम या कृष्ण के नाम पर धार्मिक आयोजनों का होना आपने देखा होगा।
ऐसे परम्पराओं का हरण भी कर लिया जाता है। रामायण केवल सीताहरण की कथा नहीं राम के हरण का भी आख्यान है। पहले कवियों के राम का धर्म हरण करता है, फिर राजनीति हरण कर लेती है और उसके बाद जैसा मैं देखता गुंडे बदमाश राम के नाम पर आपराधिक गतिविधियां करते देखे जाते है। मैं उस परंपरा से आता हूँ जहाँ वाल्मीकि सीता और उनके पुत्रों को उनका अधिकार दिलाने के लिए रामराज्य स्थापित करनेवाले चक्रवर्ती राजा राम को उनके लिए किए धरे का वृतांत प्रस्तुत करने जाते है और राम उन्हें समय ही नहीं देते अपनी प्रजा समेत उन्हें सुनते भी है।
जहाँ तुलसीदास काशी के पंडों की गालियाँ और पत्थर खाकर भी उसी रामायण को अवधी में लिख देते है।
प्रश्न- भाई मध्यकालीन साहित्य पर इस्लाम का कुछ प्रभाव पड़ा या नहीं। दिल्ली सल्तनत के काल के अमीर ख़ुसरो को हिन्दी के आरंभिक कवियों के रूप में न सिर्फ़ पढ़ा जाता है पाठ्यक्रमों में पढ़ाया भी जाता है। कुछ साल पहले अंग्रेज़ी लेखक अमिताभ बागची का उपन्यास आया ‘half the night is gone‘, जिसको जेसीबी अवार्ड मिला। उसमें उन्होंने जायसी को अवधी भाषा में तुलसी से बड़ा कवि बताया है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने भी लिखा है है कि अगर इस्लाम न आया होता तो भी भक्ति साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा कि वह है। लेकिन आप तो परंपरा की बात करते हुए इस्लाम एक चार आने की बात को भी नज़रअन्दाज़ कर रहे। मेरा सवाल यह है कि जब हम हिन्दी की परंपराओं की बात करते हैं तो उसमें इस्लाम के योगदान की बात करनी चाहिये या नहीं?
उत्तर: इस्लाम का निश्चय ही हमारी संस्कृति और परंपरा में योगदान है और उसकी बात होती रही है और होती रहना चाहिए। उर्दू साहित्य की जो महान परंपरा है, उसे मैं कैसे नज़रअंदाज़ कर सकता हूँ। जायसी हिंदी के पाँच महानतम कवियों में से एक होंगे ही होंगे। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि इस्लाम ने भारत को जितना बदला उतना ही भारतीय संस्कृति ने इस्लाम को भी बदला। मुझे क़ुर्रतुल ऐन हैदर का उपन्यास चाँदनी बेगम याद आता है जिसमें कई पृष्ठों में वे इस्लाम के भारतीय स्वरूप को अलग से चिह्नित करती है।
हालांकि मैं कांग्रेसियों की तरह कभी यह नहीं मान पाता कि हिंदू और मुसलमान भाई भाई की तरह रहते आए थे। कई मुहावरे है हिंदी में, कई स्थानों के नाम है जो दोनों के बीच जो संघर्ष था उसे स्पष्ट दिखाते है। तब भी हमेशा से एक conflictual coexistence था और वह गांधी से पूर्व, उनके भाईचारे के संदेश के बिना भी था। पश्चिमी विचारों के भारत आते ही यह स्थिति बदल गई, पश्चिम विचारों से मेरा अर्थ अंग्रेज़ों द्वारा डाली गई फूट से उतना नहीं है जितना पश्चिम से पढ़कर आए उस समय के भारतीय विद्वानों से है जिन्होंने इस प्रकार के मतभेदों को, जो होने पर अपनेआप खत्म भी हो जाया करते थे, उसे एक सभ्यतागत समस्या की तरह देखा और अनावश्यक हस्तक्षेप करके सचमुच में एक सभ्यतागत समस्या में बदल दिया। अंग्रेज़ों ने यदि फूट डाली तो उसके बीज दोनों धर्मों के बीच अवश्य ही रहे होंगे।
प्रश्न: आपके लेखन पर आते हैं। आपने लेखन की शुरुआत कब की और कब आपने लेखन को गंभीरता से लेना शुरू किया?
उत्तर: अपने बारे में कुछ कहना मुझे पसंद नहीं, न ही यह पसंद कि कोई मेरे बारे में अधिक जाने। जो भी मेरे बारे में जानने योग्य है वह मेरी किताबों में है।
फिर भी साक्षात्कार का चूँकि यह बना बनाया ढर्रा है तो मैं यह बता दूँ कि मैंने लिखना बारह की उम्र में शुरू किया। पहले मैंने प्रसाद से प्रभावित होकर कविताएँ लिखी। सरस्वती वंदना लिखी उस समय जो मुझे याद आती है—
“शुभ शुभ्र श्वेता शारदे
शुभामय कर नीहार दे”- कुछ इस तरह की थी।
मेरी पुरानी नोटबुक्स अभी भी मेरे घर पर है। मैंने कभी बच्चों जैसी चीज़ें नहीं लिखी। बिना प्रेम किए धरे प्रेम कविताएँ भी लिखने लगा। मेरी सबसे छोटी बुआ की महाविद्यालयीन हिंदी की पाठ्यपुस्तक से मध्यकालीन कविताएँ पढ़कर छंद सीख लिए और ब्रजभाषा में भी भक्तिकाल की कविताओं की नक़ल पर कविताएँ लिखी। मैं ग्वालियर ज़िले के गाँव से हूँ। मेरे दादा और दादी की भाषा, बल्कि जिस ब्राह्मण उपशाखा से मैं हूँ, सनाढ्य ब्राह्मण उनकी भाषा ब्रज भाषा ही हुआ करती थी, आचार्य केशवदास ने रामचन्द्रिका में ब्राह्मणों की इस उपशाखा का बहुत गुणगान किया है क्योंकि वे ख़ुद सनाढ्य ब्राह्मण थे, सनाढ्य ब्राह्मण तुलसीदास को भी सनाढ्य बताते है। यह सब मैं किसी गर्व की भावना से नहीं बता रहा, matter of fact ढंग से बता रहा हूँ। प्रसिद्ध कवि हरिराम व्यास और स्वामी हरिदास जिन्होंने सखी सम्प्रदाय चलाया और जो तानसेन के गुरु थे, वे भी सनाढ्य बताए जाते है। ऐसे इस समूह में कविता की पुरानी परंपरा थी। जाति में मेरा विश्वास नहीं, मैं जाति विरोधी हूँ किंतु अपनी जड़ों को जानने का चाव निश्चित ही मुझमें है। यह एक तरह का atavism है, शशांक मेरा मित्र विनोद जी पर एक फ़िल्म बना रहा था और उन्होंने भी मुक्तिबोध के हवाले से कुछ इस तरह की बात कही थी, अपने परिवारों के इतिहास को जानने की बात। इस तरह ब्रजभाषा मेरे लिए कविता की एक प्राकृतिक भाषा थी।
बस फिर तरह तरह से लिखता गया और अपनेआप मुझे अपनी शैली मिल गई।
प्रश्न- आपने कहा कि आप निजी प्रसंगों के बारे में बात नहीं करना चाहते और न ही आप यह चाहते हैं कि आपके बारे में कोई अधिक जाने। आपकी निजता का पूरा सम्मान है लेकिन यह बताइए कि हिंदी में तो यह परंपरा रही है निजी और सार्वजनिक को एक करके देखा जाता रहा है। प्रेमचंद के जीवन के अभावों को उनके साहित्य के अभावग्रस्त पात्रों से जोड़कर देखा गया। मुक्तिबोध ने जब प्रसाद की कृति कामायनी पर लिखा तो उसको बनिए की लिखी कृति बताया। उदाहरणों की यह कड़ी बहुत दूर तक जा सकती है। लेकिन यह बतायें कि आप सोशल मीडिया के दौर के लेखक हैं। सोशल मीडिया का अच्छा उपयोग भी करते हैं ऐसे में निजी, गोपन जैसी बातें आपको नहीं लगता कि आप अपना aura बनाने की कोशिश कर रहे?
उत्तर: वाङ्मय और लेखक को एक करके देखने की प्रवृत्ति बीसवीं सदी की देन मानी जा सकती है और पश्चिम से आयातित है। हालांकि जब मैं यह कह रहा हूँ तब मुझे लगता है कि पश्चिम से कहीं पहले से हम कवियों को सन्त के रूप में देखते रहे है और किसी को संत मानने के लिए उसका जीवन जानना आवश्यक है। जितने भी संतों की समाधियाँ और दरगाहें है वे सभी कुछ न कुछ लिखते या कविता करते थे या गाते बजाते भी थे। फिर यह लगता है कि हिंदुस्तानी मानस स्वभाव से ही सन्तखोजी होता है। सत्यान्वेषी कम और साधुता की आविष्कारी अधिक इसलिए हमने ऐसे ऐसों को संत मान लिया जो बाद में अपने अपराधों के लिए जेलखाने तक गए। बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई।
आपने पूछा मैं ऐसा aura बनाने के लिए कर रहा हूँ, तो देखिए प्रभात जी मुझे लगता है aura का ज़माना ही बीत गया। सोशल मीडिया के आने के बाद किसी लेखक का, भले वह कोई हो, उसका aura नहीं बचता। कई ऊँचे नाम जब फेसबुक पर आ गए है और कोई भी आकर किसी को भी गाली दे जाता है। पिछले दिनों मैंने देखा कृष्णा सोबती के बारे में कहा गया कि उन्होंने कथा मलबा खड़ा किया। वह सोशल मीडिया पर क्या दुनिया में ही नहीं है मगर कहनेवाला सोशल मीडिया में है। यह समय ही तुच्छताओं का है तो मुझे कोई भ्रम नहीं कि नया नया उड़ना सीखा कोई कौआ मुझ पर बीट न करेगा।
तो मैं कह रहा था कि लेखक और उसके वाङ्मय को एक न मानना चाहिए, जो हमारे यहाँ की नहीं बल्कि पूरे विश्व की सर्वोत्तम कविताएँ है वे अपौरुषेय कही जाती है चाहे वैदिक ऋचाएँ हो या क़ुरआन। ओल्ड टेस्टामेंट के बारे में कहा जाता है कि इसे कई लेखकों ने लिखा और हम किसी के बारे में कुछ भी निश्चिततौर पर नहीं कह सकते। authenticity का जो सवाल है साहित्य में वह नितांत नया है, कालिदास को या जायसी को authentic होने की चिंता न थी। यह प्रश्न ही तब उठता है जब हम लेखक से उसके लिखे का मिलान करना चाहते है। मैंने जब छद्म नामों से कविताएँ लिखी थी तब लोगों को उसमें सब तरह की सचाइयाँ दिखाई दे गई थी, बाद में जब पता चला तो वे खिन्न हो गए क्योंकि शब्द का मूल्य निरंतर कम हो रहा है। उसकी क़ीमत अब नहीं रही उसका मिलान लेखक से किया जाता है।
क्या हम बिल्कुल पुख्ता रूप से कह सकते है कि कबीर का निजी जीवन कैसा रहा होगा? उनके राग द्वेष, लड़ाई झगड़े क्या होंगे। क्या वे जातिवादी रहे होंगे? क्या आप ऐसे कई लेखकों को नहीं जानते जो निजी जीवन में बड़ी जातिवादी और सांप्रदायिक बातें करते है मगर उनका लिखा ऐसी बातों के खिलाफ होता है!
वाक् को हमने देवी माना ही इसलिए है कि यह लिखनेवाले की भी नहीं सुनती। यह सत्य को uncover (Althea) उघाड़ देती है। क्या भाषा हमारी अपनी हमें ही betray करके सच नहीं कहती!
प्रश्न- गंगा जमुनी संस्कृति के बारे में आपका क्या मत है? क्या यह झूठ है कि 1857 में हिंदू मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों से संघर्ष किया था। या 1947 में विभाजन के बाद में मुसलमानों की बड़ी आबादी भारत में इस विश्वास के साथ रही कि यहाँ का शासन इनके हितों की अधिक रक्षा करेगा? सबसे बड़ी बात है कि आजकल जिस भाषा उर्दू को इस्लाम से जोड़कर देखा जाने लगा है वह हिन्दी की हमज़ाद भाषा की तरह रही है। इनको कैसे अलग किया जा सकता है?
उत्तर : जैसा कि मैंने पिछले उत्तर इन कहा था मैं conflictual coexistence अर्थात् लड़ झगड़कर भी संग रहने की प्रकृति हिंदू मुसलमानों के बीच मानता हूँ, मेरा इस कांग्रेसी गंगा जमुनी तहज़ीब में विश्वास नहीं है मगर इसका यह मतलब नहीं कि मैं कोई कट्टरपंथी हूँ जो किसी भी समुदाय के ख़िलाफ़ है। क़ुर्रतुल ऐन हैदर, इन्तज़ार हुसैन, नैय्यर मसूद, शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी और ख़ालिद जावेद यह मुझे इतने प्रिय है कि इनका लिखे के कई हिस्से मुझे रटे हुए है। मैं इसे पूर्णता में देखता हूँ, आप क़ुर्रतुल ऐन हैदर का ‘कारे जहाँ दराज़ है’ में देखिए, उसका पहला खंड जहाँ वह अपने पूर्वजों की बात करती हैं! कैसे वह हिंदुस्तान आए, सेना के साथ वह आए और उन्होंने यहाँ क्या क्या किया। वह सभी कुछ बताती है और कहीं भी अपने ख़ानदान के अतीत के प्रति क्षमाप्रार्थी apologetic नहीं होती। वामपंथी राजनीति ने हिंदी साहित्य में हमें ख़ुद के प्रति apologetic होना सिखाया, इसे मैं कभी स्वीकार नहीं कर सकता।
यदि दो समुदाय लड़ाई झगड़े करके भी साथ हो, उनमें सांस्कृतिक लेन देन की बात क्या बल्कि वे एक ही संस्कृति के भाग हो गए हो, वे एक दूसरे को धर्म परिवर्तन करने पर मजबूर न करते हो, एक दूसरे के ऊपर ख़ुद को न थोपते हों तब यह बात फिल्मी गंगा जमुनी तहज़ीब कैसे विचार से ऊँची ही है।
जो कहा जाता है कि अंग्रेजों ने हमारे बीच फूट डाल दी तो आप देखें कि अंग्रेजों ने इसका आधार कहाँ से लिया? चाचनामा जो ग्रंथ है जिसमें सिंध पर इस्लामिक जय का ऐतिहासिक वृतांत है, आप उसे पढ़े। वहाँ गंगा जमुनी तहज़ीब आपको कहीं दिखाई न देगी लेकिन इसके साथ ही आप देखेंगे कि सिंध में इस्लाम का शायद दुनिया का सबसे लिबरल और अनूठा स्वरूप बाद में उभरकर आता है और आज भी है। वहाँ तो पीर सिस्टम चलता है, हर परिवार का अपना पीर होता है जिनके बच्चे जो कि पीरज़ादा या पीरज़ादी कहलाती है, वे वहाँ जाते है, यह बिल्कुल भारतीय उपमहाद्वीपीय सिस्टम है। यदि शुरुआत हमलावर के रूप में भी हो तब भी वह हमेशा वैसे ही नहीं रहते, बाद में चीज़ें बदलती है हालाँकि तब नहीं बदलती जब उसे आप acknowledge या स्वीकार ही न करे।
आप देखे आज कई दमित अस्मितायें है जो हमसे कहती है कि आप पुराना किया acknowledge करे, कम से कम यह कहें तो कि आप ऐसा क्यों सोचते है कि कोई धर्म ऐसा नहीं कर सकता! स्त्रियां कहती है कि बुरा हुआ है। पहले कम से कम यह स्वीकार तो करें, तब क्यों नहीं हिंदू ऐसा कह सकते? जो ग़लत है वह यह कि बदला revenge किया जाए। तुम ब्राह्मण हो तुमने हमारा बहुत शोषण किया है इसलिए अब हम बदला लेंगे, यह ग़लत है मगर आपको स्वीकार करना होगा कि हाँ ग़लत किया गया है। शास्त्रीय संगीत में कई बंदिशें है जहाँ तुरुक शब्द आता है, वह एक conflict पर आधारित है और conflict नकारात्मक अर्थ में ही नहीं, वहाँ आकर्षण भी है, संस्कृति का आदान प्रदान भी है और तुरुक से भय भी है।
इसे बृहत्तर परिवेश में देखने की आवश्यकता है इसकी पूर्णता में देखने की आवश्यकता है और डरने की ज़रूरत नहीं है। हम किसी के साथ जो सबसे बुरा कर सकते है वह है उसे infantilise करना। इसे प्रौढ़ता से डील करना चाहिए।
हिंदी में इससे बच्चों की तरह डील किया जाता है, एक काली कोठरी है जिसका दरवाज़ा खोलने से मना किया गया है। हुआ क्या? हिंदू समाज और और कट्ठर होता गया क्योंकि repressed या कुंठित होता रहा। आप कहेंगे न जी सब ऐसे नहीं है।
मेरे उत्तर लंबे हो रहे है इसके लिए क्षमा चाहूँगा।
प्रश्न- एक बहुत दिलचस्प बात मैंने नोटिस की कि आपके उत्तरों में गद्यकारों के नाम आते हैं, गद्य कृतियों के नाम आते हैं और खूब आते हैं लेकिन लेखन में आपने लंबे समय तक अपनी पहचान को कवि के रूप में महदूद रखा। इसका कोई विशेष कारण?
उत्तर: इससे पहले कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ पहले प्रश्न के बाबत एक और बात कहना चाहूँगा, जब हम मानते है कि सत्य कई कई है, किसी बृहत्तर अस्मिता के बजाय देश के लोग कई लघु अस्मिताओं में बंटे है तब अहिंसा बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है आश्चर्य नहीं कि महावीर स्वामी ने अहिंसा को इतना महत्त्वपूर्ण बताया क्योंकि अनेकान्तवाद जैन दर्शन में महत्त्वपूर्ण है। जब बहुत से विचार हो, दर्शन, धर्म और संप्रदाय हो तब सहिष्णुता भी होना चाहिए, स्वीकार भाव होना चाहिए।
अब आपके प्रश्न पर आता हूँ, मैं कविताएँ बहुत कम पढ़ता हूँ। मुझे स्वीकार करते हुए खेद होता है कि अनूदित कविता समझने की तो कूवत ही मुझमें नहीं है। संस्कृत और उर्दू की क्लासिकल कविता, मध्यकालीन हिंदू कविता, प्रसाद, थोड़ा बहुत निराला और महादेवी वर्मा और उसके बाद अज्ञेय और मुक्तिबोध केवल इतना मैंने कविता में पढ़ा। एक जापानी कवि केंजी मियाज़ावा भी थोड़ा समझ में आया था।
मेरे मैं रस समझता हूँ, मैं आधुनिकतम विचार और दर्शन भी जानता हूँ, फिक्शन में मेरी गति है मगर आधुनिक कविता के काव्यात्मक स्पेस में मेरा प्रवेश नहीं है। शायद इसलिए ही मेरी कविता मेरे समकालीनों में सबसे अलग है। वे कइयों को नई लगती रही है मगर वह अलग है इसलिए नई लगती है अन्यथा वह परंपरा विशेष में ही located है। यही वजह है कि मैंने कविता लिखना कम कर दिया, अब लगभग बंद है मेरा कविता लिखना।
प्रश्न- आपकी कविताओं को सबसे अधिक प्रसिद्धि तोताबाला ठाकुर तथा द्रौपदी सिंघाड़ नाम से लिखी कविताओं से मिली। छद्म नाम से कविताएँ लिखने के क्या कारण रहे?
उत्तर : मेरी बुद्धि गल्पप्रधान है, शायद मेरी कविताओं को पढ़कर किसी ने ऐसा कहा भी था कभी। इसी fiction mindedness का परिणाम दोपदी सिंघार और तोता बाला ठाकुर की कविताएँ थी। आप उसे छद्म नाम से रची कविता कह सकते है मैं उसे पद्य में कथा कहता हूँ।
हम सत्योत्तर समय में रहते है, उत्तरोत्तराधुनिक काल में मुझे लगता है अब सच सीधे नहीं कहा जा सकता क्योंकि दुनिया की प्रत्येक वस्तु पर प्रतीकों के अनंत धूल जमी हुई है। मैं सेब कहता हूँ तो पेड़ पर लगनेवाला सेब ही आपको सुनाई नहीं देगा, आदम जो खा लेता है वह सेब भी सुनाई देगा, iphone पर बना सेब दिखाई देगा, कई सेब दिखाई देंगे, ऐसे में सीधे सच कहना संभव नहीं। जरा बाँका होकर ही सच तक पहुँचना अब संभव है और मुझे गल्प या fiction वहाँ तक पहुँचाता है।
प्रश्न- कविता लिखनी बंद कहाँ की है आपने? अभी पिछले ही साल आपका कविता संग्रह आया रुक्मिणी हरण? मुझे पक्का लगता है कि अभी भी आपके पास संग्रह पर कविताएँ होंगी?
उत्तर: जी हाँ, आपने सही कहा मेरा संग्रह अभी २०२३ में ही आया है और मेरे पास लगभग पाँच संग्रह बनाने योग्य कविताएँ और होंगी। मैंने बहुत कविताएँ लिखी है। उनकी गिनती बताकर बड़बोलापन नहीं करना चाहता। यदि आपकी शास्त्रीय परंपरा और लोक दोनों में अच्छी पैठ और गति हो तो आप अच्छी और बहुत कविताएँ लिख सकते है।
प्रश्न- आपके उपन्यास पर हिन्दी और उर्दू के अनेक तथाकथित महान लेखकों की सम्मतियाँ प्रकाशित हैं। जिनमें कुछ ग्लोबल हैं और कुछ ग्लोबल होने को लालायित। आपको क्या ऐसा लगता है कि ऐसे तथाकथित मूर्धन्यों की सम्मति के कारण लोग आपका उपन्यास पढ़ रहे? आप इस तरह की सम्मति को कितना आवश्यक मानते हैं?
उत्तर: सबसे पहले तो इस बात पर मैं गंभीर आपत्ति व्यक्त करूँगा कि वे तथाकथित महान या मूर्धन्य है। वे सत् मूर्धन्य है। हमें इतना अभिमानी नहीं होना चाहिए कि बहुशंसित लेखकों का सच्चा सम्मान भी न कर पाए और तथाकथित मूर्धन्य उन्हें कहे। इसके अलावा यह कहना कि उनमें से कई ग्लोबल होने के आकांक्षी है इसपर भी मैं आपत्ति व्यक्त करता हूँ।
क्या आपको नहीं लगता कि हमारे इसी रवैये के कारण हम छोटेपन के युग में रह रहे हैं?
मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि इन शब्दों का प्रयोग न करे।
प्रश्न- ठीक है आगे से मैं इस बात का ध्यान रखूँगा लेकिन मजेदार बात यह है कि सम्मति लिखने वालों में एक लेखक उर्दू के हैं जिनको अपनी भाषा में तब तवज्जो मिली जब उनके अनूदित उपन्यास को अंग्रेजी का एक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला और उसके बाद हिंदी के कतिपय कलावादियों ने अपने सिर-माथे बिठा लिया। खैर इस प्रसंग को अब जाने देते हैं।
उत्तर: हाँ जाने देते है किंतु मैं इस तथ्यात्मक भूल को ठीक करता चलूँ कि जिन लेखक के विषय में आपने यह कहा है वे समास पत्रिका में किसी पुरस्कार और किसी अनुवाद से कहीं पहले से छपते रहे है। वे कलावाद और मार्क्सवाद आदि सबसे ऊपर भारत ही नहीं बल्कि विश्व के एक बेहतरीन लेखक है। मेरे हृदय में उनके और उनके काम के लिए बहुत आदर है।
मुझे अपने अग्रजों का हमेशा से ही बहुत प्रेम मिला है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ‘मतलब हिंदू’ की पहली पाठक अलका सरावगी जी थी, मैं एक एक अध्याय लिखता जाता था और वे पढ़ती है। उदयन वाजपेयी ने मुझे कई बहुत अच्छे सुझाव दिए। जहाँ तक आपके प्रश्न का उत्तर रहा, मेरा उपन्यास बहुतों ने पढ़ा है और उपन्यास के बारे में अपना मत व्यक्त किया है, अधिकतर लोगों ने अच्छा ही कहा है। यदि कोई उपन्यास केवल सम्मतियों की वजह से लोग पढ़ते तो शायद वे कभी लौटकर यह बताने न आते कि उपन्यास कैसे उन्हें लगा!
आजकल कई उपन्यासकार बाकायदा पीआर को रुपया देकर अपना उपन्यास प्रशंसित करवाते है। मैंने तो यहाँ तक देखा कि बिना अनुवाद हुए एक हिंदी उपन्यास की समीक्षा मलयाली अख़बार में छपी। ऐसे उपन्यासों को किसी ने नहीं पढ़ा इसका सबूत होता है उनके चरित्रों या कथानक के विषय में कोई चर्चा नहीं होती बस उनकी थीम जैसे फलाँ उपन्यास ने सरकार की अच्छी ख़बर ली है, या इसमें कई अश्लील पंक्तियां है जैसी बातें होती है। आप देखेंगे कि ‘मतलब हिंदू’ के चरित्रों से लोग engage करते है, वे उनकी बातें बहुत passionately आकर मुझसे बात करते उनके बारे में लिखते है।
प्रश्न – भाई खालिद जावेद को लेकर मैं अपनी राय पर क़ायम और आप भी उदाहरण हिंदी के ही दे रहे। मैंने यह कहा था कि उर्दू में उनके लेखन की क्या व्याप्ति है? उस सवाल का उत्तर आप नहीं दे सकते। बाक़ी सब हिंदी के लेखक हैं और अपनी भाषा के हर लेखक का मैं सम्मान करता हूँ। इसलिए अब मैं कुछ और नहीं कहना चाहता। लेकिन केवल बड़े बड़े पुरस्कार मिलने से ही कोई लेखक मूर्धन्य नहीं हो जाता। अब मेरी ओर से इस विषय पर विराम है। लेकिन आपका लेखन इनमें से कतिपय लेखकों के लेखन से मुझे अधिक सशक्त लगता रहा है। आम तौर पर बहुत अधिक सम्मतियाँ संदेह पैदा कर देती हैं। यह सामान्य धारणा है और मैं उसी धारणा के तहत बात कर रहा था।
उत्तर : ख़ालिद जावेद के विषय में अपनी विनम्र असहमति के साथ मैं भी इसे यहीं विराम देता हूँ।
प्रभात – आपकी असहमति का सम्मान है।
प्रश्न- आपने ख़ालिद जावेद नामक उर्दू लेखक को विश्व का बेहतरीन लेखक कहा। इससे मेरे मन में एक सवाल उठा कि आप इस बात में कितना यक़ीन रखते हैं कि जो लेखक जिस भाषा में लिखता है उसकी महानता में उसकी अपनी भाषा में व्याप्ति का बड़ा रोल होता है, जैसे मार्केज अपनी भाषा स्पैनिश में भी बड़े लेखक थे, बाद में विश्व की दूसरी भाषाओं के बड़े लेखक माने गये। या ओरहान पामुक दुनिया की तमाम भाषाओं में अनूदित होने से पहले अपनी भाषा टर्किश के बड़े लेखक थे। या अपने ही देश का उदाहरण दें तो टैगोर अपनी भाषा बांग्ला के भी मूर्धन्य लेखक हैं। आप क्या यह मानते हैं कि कोई लेखक जिस भाषा में लिखता है उसकी महानता का आकलन इस आधार पर होना चाहिए कि उस भाषा में उसकी कितनी व्याप्ति है जिस भाषा का वह लेखक है?
उत्तर: देखिए, महान होने का कोई एक मार्ग नहीं है, कई ऐसे लेखक भी महान हुए है जिनकी व्याप्ति न अपनी भाषा में थी न अन्य किसी भाषा में। काफ़्का की किताब की आते ग्यारह प्रतियां बिकती है जिसमें से दस उन्होंने ख़ुद ने ख़रीदी होती है ऐसा वह एक पत्र में मिलेना को लिखते है। व्याप्ति का अर्थ आपके निकट क्या है? यदि जान सकूँ तो आपके प्रश्न का उचित उत्तर दे सकता हूँ। जहाँ तक व्याप्ति का अर्थ मैं समझ पा रहा हूँ वह है लोकप्रियता और लेखक का अपनी भाषा में स्वीकार।
हिंदी की स्थिति इस अर्थ में बहुत विचित्र है। पुराने को तोड़कर नया करनेवाले को किसी भी भाषा में व्याप्ति मिलने में समय लगता है, कभी कभी वर्षों लग जाते है किन्तु परंपराप्रदत्त के आधार पर सौंदर्य सृष्टि करने को भी हिंदी में स्वीकार्यता नहीं मिलती यह मैंने देखा है। नए को समझने में देर लगे यह स्वाभाविक है। हम तो अपनी संस्कृति के एस्थेटिक्स को भी नहीं जानते। कई तो इसे सामंती, ब्राह्मणवादी वर्चस्व की उपज बताते है। वे ख़ुद क्या कर रहे है, पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र की एक diluted प्रति के हिसाब से काम कर रहे है! उसके पीछे भी उपनिवेशवाद, नस्लभेद आदि कई कुरीतियों का इतिहास है, बड़ा रक्तरंजित इतिहास है, वह स्वीकार है। हिंदी कथा साहित्य में लैटिन अमेरिकी प्रभाव की बोलान्यो, बोरहेज़, मार्क्वेज़ आदि की भी एक नई परम्परा है। आप देखें, इन सभी लेखकों की जड़ें तो उनकी अपनी भूमि, अपने पूर्ववर्ती लेखकों में, लेकिन हमारी कहाँ है? हमारी उनमें हैं या अपने उन लेखकों में है जिनकी जड़ें इन ईस्पैन्याल लेखकों में है। तो एक आयातित एस्थेटिक्स पर हम अपने साहित्य का प्रासाद खड़ा कर रहे है।
मैंने सिनेमा का अध्ययन किया है भारतीय सिनेमा इस अर्थ में अद्भुत है, खासकर १९९२ की पहले की सिनेमा। अभी भी कई ऐसे आतुअर हैं जो भारतीय सिनेमा बना रहे हैं। भारत की साहित्य की परंपरा या कोई भी विद्या या कला यथार्थवादी परंपरा में विश्वास नहीं रखती। आप देखें, चाहे भारतीय मिनिएचर को या हमारे मंदिर हो, वहाँ शेर बनाया जाएगा तो वह जंगल की शेर की हुबहू नकल न होगा। वह सिंह के आईडिया या उसकी आत्मा के निकट जाने का प्रयास होगा, वहाँ शिल्पशास्त्र के नियम लागू होंगे न कि यथार्थवाद के। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह सत्य उद्घाटित नहीं करता। हिन्दी साहित्य में सक्रिय वर्तमान लेखकों को सत्य, तथ्य, यथार्थ, यथार्थवाद (reality and realism and truth and facts) का अर्थ जानना अभी शेष है। तब व्याप्ति तो उत्तर भारत में साहित्य मात्र की नहीं है आप लेखकों की बात करते है!
प्रश्न- अगर सवाल यह हो कि वर्तमान समय में राजनीति मेरे या किसी के जीवन में कितनी है?तो इसका जवाब मैं यह दूँगा कि आज जिस तरह की राजनीति हो गई है कोई व्यक्ति उसके प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। सत्ता केंद्रित राजनीति आपको या तो पक्ष में मानती है और अगर आप पक्ष में नहीं हैं तो आपको स्वतः विपक्ष का मान लिया जाता है। आज कोई भी बड़ी घटना घटित होती है लोग लेखकों से सवाल पूछने लगते हैं कि आप क्यों नहीं लिख रहे? आपका यह कहना बिलकुल सही है कि आपका उपन्यास जितना उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक के बारे में है उतना ही आज के बारे में। तब भी अगर पूरा देश नहीं तो कम से कम मुंबई जैसा शहर पूरी तरह से राजनीति आक्रांत था। लेकिन मुझे यह बात अजीब लगी कि ‘मतलब हिंदू’ में जो मुंबई है वह भाषा, परिवेश के स्तर पर तो मुंबई ही है और कमाल का चित्रण है लेकिन वहाँ की सामाजिक राजनीतिक घटनाओं का कोई असर नहीं दिखता। कमाल की बात है कि चीन की राजनीतिक क्रांति तो आ जाती है भारत की राजनीतिक सरगर्मी नहीं। यही वह दशक था जब तिलक गणेशोत्सव के माध्यम से मुंबई की जनता को जगा रहे थे। मुंबई में भयानक अकाल पड़ा था। ये सवाल इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि ‘मतलब हिंदू’ में साल का उल्लेख है?
उत्तर: वह समय हिन्दू अस्मिता के गठन का भी था, गठन या उद्गम न कहकर कहना चाहिए हिन्दू अस्मिता के संगठन का। हिंदुस्तान में रहनेवाले उससे पहले सब ख़ुद को हिंदू कहते थे, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह स्थिति बदल जाती है। पश्चिमी स्कालरशिप हमें बताती है कि हिंदू सब अलग अलग थे, उनमें किसी भी प्रकार का कोई ऐक्य न था। मैं यह तो मानता हूँ कि हिंदू बहुलताप्रधान बहुत प्लूरल खुले खुले रहे होंगे किंतु वे सब बिल्कुल अलग अलग थे, बिल्कुल बँटे हुए थे यह मैं नहीं मान सकता। बहुलता का स्वीकार, बहुकेंद्रीय होना यह हिंदुओं की शक्ति है पर इसे पश्चिम ने हमारी निर्बलता कहा, और हम इतने colonised होते गए कि हम इसे ही सच मानते है। हिंदी की decolonisation की प्रक्रिया अभी आरम्भ भी नहीं हुई है। पश्चिम में ही rejected knowledge systems को इन दिनों पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा रहा है, आज़ादी के बाद वर्षों तक बल्कि अभी तक हमारी सभी ज्ञान परंपराएं rejected knowledge systems रही आई है, क्यों? विज्ञान मात्र दुनिया को देखने का अकेला तरीका क्यों हो? इसलिए कि हम वर्षों तक गुलाम रहे और हमारे अपने देखने के तरीकों को systematic ढंग से नष्ट किया गया। रामविलास शर्मा ने जीवन के अंतकाल में वेदों का अध्ययन किया तो उनका मज़ाक़ बनाया गया, इस तरह की idiocy हिंदी में बड़ी चलती है मुझे याद है नामवर सिंह ने जीवन के लगभग अंत में भारतीय काव्यशास्त्रों और भर्तृहरि के ग्रंथ वाक्यपदीयम की चर्चा की, उनपर भी संघी हो जाने के आक्षेप लगे। यह सब rejected knowledge systems ही थे। इन्हें पुनर्जित करना (reclaim) करना भी शेष है। हम भारतीय उपन्यास की अवधारणा की बात करते है, भारतीय आख्यान परंपरा कैसी रही होगी या है, उपन्यास का जो स्वरूप फ़िलहाल हम देखते है वह पश्चिम के संपर्क आने पर बना इसलिए बंगाल और महाराष्ट्र में सबसे पहले उपन्यास आता है क्योंकि वे पश्चिम के संपर्क में सबसे अधिक थे। भारतीय आख्यान परंपरा इसमें कहाँ है? इसे ऐसे देखे कि विरोध का, विद्रोह के गांधी से पहले पश्चिम में केवल हिंसक तरीके थे, गांधी हमें सत्याग्रह देते है और यहीं भारत भूमि से वे इसकी अवधारणा विकसित करते है। धर्मपाल ने भारत के अहिंसक आंदोलनों का पूरा इतिहास प्रस्तुत किया है। उपन्यास में, हिंदी साहित्य को अपना कोई गांधी नहीं मिला जो हमें सच्चे अर्थ में decolonised करता। साहित्य में राजनीति को कैसे प्रस्तुत करना है, इसका ढंग भी हमारा पश्चिमी है तुलसी, कबीर, सूर, जायसी और पीछे जाए तो बाण, कालिदास, शूद्रक और पीछे तो भास- इन सभी के लेखन में मुझे राजनीति दिखाई देती है। व्यास और वाल्मीकि क्या राजनीति से मुठभेड़ नहीं करते!? ‘मतलब हिन्दू’ पूरी तरह से अपने समय की राजनीति से एंगेज करता उपन्यास है, राजनीति के सूक्ष्मतम रूपों की वह पहचान करता है। उसकी सतह के नीचेनिरंतर राजनीति धड़कती है वह मोटे रूप से इसलिए प्रकट नहीं होती क्योंकि हमारे जीवन में वह ऐसे प्रकट नहीं होती।
प्रश्न- आपके उपन्यास ‘मतलब हिंदू’ में गांधी की उपस्थिति को लेकर बहुत बातें की गई हैं। एक दिलचस्प बात है कि यह शायद ऐसी पहली किताब है जिसमें गांधी उपस्थित तो हैं लेकिन कुछ कर नहीं रहे। गांधी से जो किरदार सबसे अधिक प्रभावित है वह भी कुछ ऐसा नहीं कर पाता जिसको सफलता कहा जा सके। उपन्यास के अंत में वह गांधी को देखता तो है लेकिन उनसे आँखें नहीं मिला पाता। क्या यह रूपक भारतीय या कहें हिंदू मानस का जो गांधी के आदर्शों को अपना नहीं पाया? मेरी इस पाठकीय जिज्ञासा का समाधान करें अंबर जी?
उत्तर: किसी भी उपन्यास के ,यदि वह सच्चे अर्थ में उपन्यास है और किसी विचारधारा का पम्फलेट नहीं है तब उसके असंख्य अर्थ हो सकते है। गांधी और नायक के संबंध को यदि आप एक भारतीय या हिंदू रूपक की तरह देखते है तो निश्चय ही वह ऐसा ही है। मुझे लगता है उपन्यास की सफलता इसमें है कि पाठक उसका पुनर्लेखन करता चले, उसका पाठ ही उसका पुनर्लेखन हो।
प्रश्न- आपने भारतीय आख्यान परंपरा की बात की। क्या आपको आधुनिक हिन्दी के लेखकों में ऐसे कोई लेखक लगते हैं जिनमें भारतीय आख्यान परंपरा की अनुगूँज सुनाई देती हो? किनके नाम लेना चाहेंगे आप?
उत्तर: हमारे समय के प्रश्नों को भारतीय आख्यान में व्यक्त करनेवाला तो कोई नहीं। उर्दू में है। फ़ारूक़ी साहब की कहानियाँ, इंतज़ार हुसैन का बहुत सा लेखन, ख़ालिद जावेद में उपन्यासों में जैसी रस सृष्टि है वह भारतीय आख्यान परंपरा की है। विजयदान देथा ने राजस्थानी लोककथाएं लिखी या उस शैली में लिखा तो है तो लोकतत्त्व तो उनमें है उस लिहाज़ से भारतीयता भी है मगर रूप उनका पुराना है उसमें भारतीय आख्यान शैली की बढ़त नहीं मिलती, उपज जिसे हम नवनवोन्मेष कह सकते है वह नही मिलता। हजारीप्रसाद में उपज है मगर पुराने से आगे की ओर बढ़त नहीं है। मेरे अग्रज मित्र फ़िल्म निर्देशक अमित दत्ता जो लेखक और कवि भी है और जिनसे मैं बहुत सीखता हूँ, वे एक अद्भुत उपन्यास लिख रहे है जिसमें भारतीय आख्यान की बढ़त और उपज दोनों है। मेरे बहुत आत्मीय मित्र है यतीन्द्र मिश्र जिनसे भारतीय मनीषा पर मेरी घंटों बातचीत होती है, मेरा मानना है भोजन और संगीत दूसरी संस्कृतियों के प्रभाव सबसे अंत में ग्रहण करता है और यतीन्द्र के संगीत पर लिखी हुई किताबों से मेरा बहुत ज्ञानवर्धन होता रहा है। वे मेरे बड़े भाई की तरह है।
कवि आशुतोष दुबे से मैंने उपन्यास और साहित्य के संबंध में सबसे अधिक चर्चा की है, उनसे बहुत सीखता रहता हूँ और हिंदी साहित्य की अपनी समझ का बहुत कुछ श्रेय उन्हें देता हूँ, उन्होंने अभी तक उपन्यास लिखा तो नहीं मगर मेरी हार्दिक इच्छा है कि वे उपन्यास या कहानियाँ लिखे। मुझे लगता है इस क्षेत्र में वह अद्भुत काम कर सकते है।
प्रश्न- आपने आशुतोष दुबे का नाम लिया तो मुझे ध्यान आया कि क्या आपको ऐसा लगता है कि जिसको हिन्दी की मुख्यधारा कहते हैं वह बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद केंद्रित धारा है। या अधिक से अधिक कहें तो हिन्दी का कैनन यूपी सेंट्रिक है। कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन इसके बाहर के लेखकों का हिन्दी में वह मुक़ाम नहीं बन पाया जो बनना चाहिए था। आशुतोष दुबे हिन्दी कविता के पोस्टर बॉय हो सकते थे लेकिन उनको लगभग हाशिये पर रखा गया। यह महज़ एक उदाहरण है। उदाहरणों की कमी नहीं है।
उत्तर: मुझे लगता है अब दिल्ली केंद्रित होती जा रही है। पहले बिहार और उत्तर प्रदेश केंद्रित थी। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश कहीं नहीं दिखता। इस क्षेत्र से अंतिम साहित्य अकादमी २०१२ में चंद्रकांत देवताले को मिला था और २०१४ में रमेश चंद्र शाह को जबकि आप देखें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से हिंदी के श्रेष्ठतम साहित्यकार आए हैं। केवल मुक्तिबोध और श्रीकांत वर्मा ही नहीं हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीनरेश मेहता, विनोद जी तो है ही, वीरेंद्र जैन और न जाने कितने। आज भी यहाँ एक से बढ़कर साहित्यकार हैं मगर यूपी-बिहार और दिल्ली का औसत लेखक भी बहुपुरस्कृत प्रशंसित होता, मध्य भारत और राजस्थान के साहित्यकार को यह हो पाने हेतु अति प्रबल प्रतिभा चाहिए।
फिर हिंदी वैचारिक खेमों में भी बँटी है। वाम और ग़ैर वाम दो ख़ेमें है। हाँ अपने प्रदेश के हों तो खेमें वाले थोड़ी रियायत ज़रूर करते है। आप देखिए इंतज़ार हुसैन या फ़ारूक़ी साहब जैसे लेखक हिंदी में नवांकुर स्टेज में ही कुचल दिए जाते क्योंकि वे वामपंथी न थे। यही वजह है कि हिंदी का विकास lopsided हुआ।
इसी के शिकार आशुतोष दुबे भी हुए क्योंकि उन्होंने विचारधारा को कभी ऐसे नहीं ओढ़ा जैसे उनके समकालीनों ने ओढ़ा होलिका को शिव से प्राप्त दुशाले की तरह। हिंदी में यह आवश्यक नहीं है कि आप गांधी के बताए तिलिस्म की तरह समाज के सबसे पिछड़े के पक्ष में हो तो उतना ही बहुत है। यहाँ जसम, प्रलेस का समर्थक होना आवश्यक है, यहाँ फेसबुक पर कोरी नारेबाजी करना आवश्यक है फिर भले आप किसी भी कॉर्पोरेट या सरकारी दफ्तर में काम करते हो। आदर्श मुँहज़बानी जमाख़र्च होकर रह गया है। कम्फर्टेबल ज़िंदगी जीने को सब अपना हक़ मानते हैं। मैं फिर भी आशुतोष दुबे के लिए बहुत आशावान हूँ, जैसा प्रतिसाद उन्हें आम पाठकों का मिला है वैसा किसी विचारधारा के ग़ुलाम को क्या कभी मिलेगा।
प्रभात- भाई, बिहार का नाम मत जोड़िए इसमें। बिहार के लेखकों को भी बहुत कम मिला। फणीश्वरनाथ रेणु को क्या मिला, उल्टे नामवर सिंह ने उनको भ्रष्ट भाषा का लेखक तक कहा। अब तक बिहार के 3 लेखकों को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है, जिसमें एक को संस्कृति पर लिखी पुस्तक के लिये मिला। राजकमल चौधरी जैसे लेखक को ही क्या मिला, नागार्जुन को मैथिली कविताओं के लिए साहित्य अकादमी मिला, हिन्दी के लिये नहीं। जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे कवि का लोग नाम भी नहीं लेते। शिवपूजन सहाय ने प्रेमचंद के उपन्यास संपादित किए थे, हिन्दी का पहला आंचलिक उपन्यास लिखा लेकिन हिन्दी कैनन में कहाँ हैं वे। रामवृक्ष बेनीपुरी का कितने लोग नाम जानते हैं? शिकायतों और उपेक्षितों की यह सूची बहुत लंबी होती जायेगी। इस बात को फ़िलहाल रहने देते हैं।
प्रश्न– आपके इस जवाब से मन तो हो रहा है कि आपसे संगीत के बारे में पूछ-पूछ कर अपनी जिज्ञासा को शांत करूँ। लेकिन आपने कहा कि जाग्रत अवस्था में नब्बे प्रतिशत समय में आप कोई न कोई संगीत सुनते रहते हैं। इससे एक सवाल मेरे दिमाग में आया कि आपको क्या लगता है आने वाले समय में हिन्दी में पढ़ने का क्या भविष्य है? धीरे धीरे पढ़ने वाला समाज देखने-सुनने वाले समाज में बदलता जा रहा है। किताबों के समरी बताने वाले ऐप आ रहे हैं। ऐसे में आप मुद्रित साहित्य के भविष्य को किस तरह देखते हैं?
उत्तर: लोग किताबें ख़रीदेंगे ज़रूर मगर घर लाकर पटक लेंगे फिर उनके बारे में रीलें देखेंगे यह निर्णय करने के लिए कि पढ़े या न पढ़े। फिर किसी दिन किताब उठायेंगे, दो शब्द पढ़ेंगे फिर मोबाइल उठाकर कुछ देखने लगेंगे। फिर एक पन्ना पढ़ेंगे और उससे पृष्ठ से संबंधित किसी बात को गूगल करने लगेंगे। आधा पन्ना और पढ़ेंगे फिर पढ़ना कितना ज़रूरी है, पढ़ने से कैसे भवसागर पार हो जाता है ऐसी बातों को अपनी फेसबुक और इंस्टाग्राम प्रोफाइल पर पोस्ट कर देंगे, किताब का कोई इंस्टाग्रामिश एस्थेटिक के अनुरूप फोटो के साथ जिसमें वे ख़ुद भी दिखाई दे। फिर उसकी लाइकें, उस पोस्ट पर होनेवाली बहसें और वार्ताओं में लग जाएँगे— आज किताब ऐसे पढ़ी जा रही है मुझे लगता है इसमें अधिकतर लोग बर्बाद हो रहे है और चूँकि अधिकतर लोग बर्बाद हो रहे है थोड़े बहुत गंभीर पाठक जो शेष है वे सचमुच के पाठक है, पिछली सदियों के पाठकों से कहीं श्रेष्ठ भी क्योंकि इतने बहकावों और डिस्ट्रैक्शंस के बावजूद वे पढ़ रहे है।
वाजिद अली शाह के दरबार के बारे में किंवदंती है कि कोई गवैया आया और उसने नवाब से कहा कि मेरी महफ़िल में बैठने की शर्त यह होगी कि जो जरा भी हिलेगा महफ़िल में, उसे आप मृत्युदंड देंगे। नवाब ने गवैये का नाम बहुत सुना था और उनका ख़ुद का संगीतप्रेम तो ख्यात है ही। बहुत कम लोग महफ़िल में आए क्योंकि मरने का रिस्क कौन लेता? दो-चार गाना सुनने में ऐसे तन्मय हो गए कि किसी का माथा झूल गया, किसी की गर्दन मटक गई किसी के हाथ फड़क गए किसी का पांव थिरक गया। वे डरे कि अब हम फाँसी होगी। बाद में गवैये ने कहा कि यह दो चार लोग ही मेरे संगीत सुनने के अधिकारी है क्योंकि ये मेरे गाने में ऐसे मगन हुए कि मरने का डर जाता रहा। अब ऐसे ही पाठक बचे हैं!
प्रश्न– हिन्दी के वामपन्थ को लेकर आप बहुत तल्ख़ दिखाई देते हैं। लेकिन क्या आपको लगता नहीं है कि आधुनिक हिन्दी का बहुत सारा श्रेष्ठ साहित्य ऐसे लेखकों ने ही लिखा है जो वामपन्थ से किसी ना किसी रूप में ताल्लुक़ रखते थे। सत्तर-अस्सी सालों में उनका कोई बेहतर विकल्प क्यों नहीं आ पाया?
उत्तर: मैं वामपंथ के प्रति तल्ख़ नहीं हूँ। वह तो मात्र प्रकार है दर्शन का। हिंदी में वामपंथ के नाम पर जो मूढ़ता और कपट चलता है वह मुझे ग़लत लगता है।
आपकी इस बात से कि वामपंथी ही अच्छे साहित्यकार हुए हिंदी में इससे विनम्र असहमति है। प्रसाद, जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, अमृतलाल नागर से लेकर निर्मल वर्मा तक रेणु तक हमारे अच्छे उपन्यासकार वामपंथ के कटु आलोचक रहे है। वामपंथी पहले अच्छे लेखक की उपेक्षा करते है, ऐसी चुप्पी साधेंगे जैसे साँप सूंघ गया हो, फिर उसकी कटु आलोचना करते है, उसने क्या नहीं लिखा उस अभाव को रेखांकित करेंगे। अभी मैंने हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक को पढ़ा जिनकी पूरी किताब इसी ओर आधारित थी कि कई लेखक जिसमें हिंदी के लगभग सबसे सम्मानित लेखक शामिल है, जिनकी श्रेष्ठता के बारे में लगभग मतैक्य है, उन सभी की इन आलोचक महोदय इस प्रकार आलोचना की कि उन्होंने क्या क्या नहीं लिखा। यह आलोचना का सबसे ख़राब तरीका माना जाता है पूरे विश्व में। आलोचना की थियरी से, सिद्धांत से वे नितांत अपरिचित थे। मुझे इतनी शर्म आई कि हिंदी में ऐसा आलोचक भी है।
कटु आलोचना करने के बाद भी लेखक हिंदी में जमा रहे तो हिंदी वामपंथी उसे appropriate कर लेते है, उस लेखक का समायोजन कर लेते। तुलसीदास जैसे कवि को वामपंथी बताकर वे पचा गए तो दूसरे किसी की क्या बिसात! इस तरह पहले मौन, फिर कटु निंदा उसके बाद समायोजन।
प्रश्न– सोशल मीडिया ने हिन्दी साहित्य को आमूलचूल बदल दिया है। लेखकों को संवाद का नया मंच दिया है। रचनाओं की रीच भाई है लेकिन इसके प्रभाव को क्या आप सकारात्मक रूप में देखते हैं?
उत्तर: देखिए मैं ख़ुद सोशल मीडिया के ज़रिए हिंदी साहित्य में आया हूँ। पहले जो gatekeeping दरबानी होती वह खत्म हो गई। जिसके कारण बहुत अलग अलग तरह का साहित्य पढ़ने को मिल रहा है। पहले कैफ़े कल्चर होता था हिंदी में, हमारी पीढ़ी ने नहीं देखा फेसबुक उसी का विस्तार है। जो लोग दिल्ली या पटना में नहीं रहते भोपाल में नहीं हमारी तरह इंदौर में रहते है या कई और छोटे शहरों में रहते है वे भी हिंदी की इस बृहद साहित्यिक संस्कृति से, इसके दैनंदिन की चर्चाओं और विवादों से सोशल मीडिया के ज़रिए जुड़े रहते है, यह क्या कम है! सोशल मीडिया में साहित्य का लोकतांत्रिकीकरण कर दिया।
प्रश्न– मनोहर श्याम जोशी कहते थे कि किसी लेखक को सौ पुस्तकों की सूची बना लेनी चाहिए और जीवन भर उनका ही अध्ययन करते रहना चाहिए। अच्छी कृतियाँ हर पाठ में कुछ नई सूझ दे जाती हैं। आप सौ तो नहीं लेकिन कुछ ऐसी किताबों की सूची देना चाहेंगे जिनको लेखकों को पढ़ते रहना चाहिए?
उत्तर: ऐसा ही दर्शन ल्योसा के एक उपन्यास नोटबुक्स ऑफ़ डॉन रिगोबर्तों के नायक कि भी होता है कि उसके शेल्फ में बस सौ किताबें होंगी। वह हटा देता है किताबें अगर सौ से बढ़ जाती थी।
देखिए हिंदी इतनी कॉलोनाइज़्ड भाषा है यहाँ लोग पश्चिम की किताबों से पढ़ना शुरू करते है। हमारी यहाँ कितने ही महानतम ग्रंथ हमारे पूर्वज लिख गए इससे नए पुराने किसी पढ़नेवाले को कोई फ़र्क़ नहीं पढ़ता। अभी मैं रतनलाल सरशार की फ़सान-ए-आज़ाद पढ़ रहा था मूल में, मैंने देखा प्रेमचंद ने इसे हिंदी में प्रकाशित किया था, संक्षिप्तीकरण किया था उन्होंने। मैं हतप्रभ रह गया। प्रेमचंद की फ़सान-ए-आज़ाद बहुत ख़राब है। उन्होंने पश्चिम का चश्मा लगाकर सरशार को पढ़ा और फिर पश्चिमी गद्य और गल्प की शैली में फ़सान-ए-आज़ाद को तोड़कर छाप दिया। तो यह तो प्रेमचंद का हाल है, किसी दूसरे नौसिखुए से क्या शिकवा कीजै!
मैं ऐसी कोई फ़ेहरिस्त तो आपको पेश नहीं कर सकता।
इतना कह सकता हूँ कि लिखने की इच्छा करनेवालों को, अच्छा पढ़ने के इच्छुकों को पहले तो तीन भाषाए सीखना चाहिए, एक मातृभाषा जो उन्हें आती ही है, दूसरी कोई विदेशी भाषा जो आजकल अंग्रेज़ी के रूप में अधिकतरों को आती है और एक कोई क्लासिकल भाषा चाहे वह संस्कृत हो फ़ारसी हो तमिल हो पालि हो ग्रीक हो आरामिक हो हीब्रू हो कोई हो।
इससे होता यह है कि अंग्रेज़ी का और पश्चिम का आतंक नहीं पैदा होता। मुझे कभी नहीं हुआ, न मैं कभी namedropping गोत्र स्खलन के चक्कर में पड़ा कि कोई मुझसे बस जरा पूछ ले कि क्या पढ़े और मैं लगूँ यूरप के अनुच्चारणीय नाम गिनाने। इससे मैं reverse snobbery के फेर में भी नहीं पड़ा कि मैं केवल हिंदी ही पढ़ता हूँ ऐसा गर्व करने लगूँ और मानूँ कि हिंदी में जो है वह जगत में है और जो हिंदी में नहीं वह दुनिया में नहीं। दोनों से बच गया मैं।
मेरा बचपन बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और भैरप्पा को पढ़ते बीता। पिछले दिनों बंकिम को फिर से पढ़ा। अलावा इसके अगाथा क्रिस्टी और पीजी वुडहाउस को मैंने सभी भारतीयों की तरह पढ़ा जैसे अंग्रेज़ों की दी चाय पी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गोरा को मैंने लगभग दस बार पढ़ा होगा। गीत गोविन्द मैंने इतना पढ़ा है कि उसका असर मेरी कविताओं में आज भी झलकता है। हिंदी में मैंने अज्ञेय और मुक्तिबोध को बहुत ध्यान से पढ़ा है, बहुत ध्यान से मतलब बहुत ज़्यादा ध्यान से। दर्शन का तो मैंने अध्ययन किया ही है मगर पश्चिमी दर्शन का, भारतीय दर्शन का बहुत बाद में अध्ययन किया। भारतीय काव्यशास्त्रों में मेरी थोड़ी बहुत गति है। मुझे नामवर सिंह का गद्य बड़ा अच्छा लगता है। बहुत बचपन में मैंने राहुल सांस्कृत्यायन की मेरी जीवन यात्रा पढ़ी थी उसने मुझे बहुत प्रभावित किया था। धर्मवीर भारती, कृष्ण बलदेव बैद और सुरेंद्र वर्मा मेरे प्रिय है और मनोहर श्याम जोशी का कुछ उपन्यास, सब नहीं। मैंने विदेशी नाम छोड़ दिए है। वह बतानेवालों की हिंदी में कोई कमी नहीं है।