मेरे समकालीन कई कवि हैं जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं. लेकिन कुछ कवि ऐसे हैं जिनमें मुझे अपनी आवाज सुनाई देती है. जिनकी सहज कविताई आकर्षित करती है. शिरीष कुमार मौर्य ऐसे ही एक कवि हैं. आज उनकी कुछ नई कविताएं- मॉडरेटर.
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फिर अंधेरे में
मुझे कुछ समय अंधेरे में रहने दो
चौंधिया गई मेरी आंखें
बहुत तेज़ उजाले में मैं अंधा हो जाता हूं
अंधेरे में देख पाता हूं
ठीक-ठीक
कहां पर रखी हैं चीज़ें उनसे टकराता नहीं
कहां पर है बिछौना
आह भर के उस पर लेट जाता हूं
कहां पर विचार
जिसके सहारे रात की उड़ी हुई नींद व्यर्थ जाने से
बच जाती है
साथ ही मेरे भीतर एक मनुष्य भी रच जाती है
मेरी मातृभूमि महान
ये पहाड़ खड़े रहते हैं अंधेरे में
इनकी विराट छाया में सो रहे मेरे जन
उन पर ओढ़ावन की तरह फैला अंधकार
वे कुनमुनाते हैं उनके घर भी लड़खड़ाते हैं
पिछली मुसीबतों से बाहर निकल नहीं पाए हैं अभी
गरज के साथ बारिश छींटों की फिर शुरूआत हो चुकी
फूल सब झर गए फल बनने से पहले ही
रास्ते जो सुधरने की उम्मीद में थे
रात के किंचित शीत में
टटोलते हैं अपनी देह
कुछ पत्थर कहीं
थोड़ा ताज़ा मिट्टी
फिर गिरी हुई मिलती है
मुझे इस अंधेरे में रहने दो
मेरी आंखों में थोड़ी रोशनी है यहां
इस अंधेरे से बाहर बहुत बड़ा अंधेरा उजाला बनकर खड़ा है
मैं कम अंधेरे में रहना चाहता हूं
बधावे बज रहे हैं
नगाड़ों की आवाज़ आकाश तक उठती है
और जलते हुए पत्थरों की तरह गिरती है बस्तियों पर
मरते समय की चीख़ को खु़शी की चीख़ साबित किया जा चुका
100 बच्चों की कक्षा में हाथ उठवाए गए तो 31 उठे
बचे हुए 69 को मूर्ख मान लिया गया
इस अंधेरे में 69 इस तरह चमकता है
जैसे पहाड़ी ढलानों पर बाघ द्वारा बरसों पहले चिचोड़ी जा चुकी
मिट्टी में मिल रही हड्डियों का थोड़ा-सा फास्फोरस
इस अंधेरे में ऐसे ही बचे-खुचे खनिजों से रोशनी की आस है
पता नहीं किस तरह देखूं इसे
कि जिनके पास मनुष्यता का ज़रूरी खनिज नहीं वे ख़ुश हैं
उनमें उल्लास है
मुझे कुछ समय अंधेरे में ही रहने दो
इस तरह के अंधेरे में रहना इतनी चिन्ता की बात नहीं
अभी चमकता दिखा है अस्थियों का फास्फोरस
बरसों पहले बीड़ी सुलगाता था
एक हड़ीला चेहरा
उसके जीवन में न्याय, राहत, जीवनयापन और कुछ ख़ुश रह सकने का
एक भी प्रसंग दर्ज़ नहीं
हिंदी के मस्तक पर बाहर भले कितने ही रत्न जड़ गए हों तब से
पर मस्तिष्क को चकमक की चिंगारियों का इंतज़ार है।
मैं इसी अंधेरे में रह लूंगा
चुप नहीं रहूंगा
मेरे लोगो
अब भी ख़ूब गूंजती है मेरी आवाज़
मैं अपना प्रतिरोध
इस अंधेरे में भी कह लूंगा
***
कवियों के संकट
मैं राह में हूं
बरसों से लिखता चला आ रहा कविता
पन्ने तक आते-आते चुक गया
शब्द छूट गए राह में ही
वही सही जगह थी उनके लिए
दुबारा गुज़रूंगा उधर से तो मिल जाएंगे ऐसा कहना भी
महज एक आशावाद है
मैं अकेला राही नहीं हूं
भीड़ और हलचल थी राह पर
वहां कुछ बिम्बों ने हक़ीक़त को शर्मिन्दा किया है
वे अहंकारी हैं
उनके कवि बड़े कहाए गए
दु:ख और क्रोध को लिखने वाला शिल्प भाषा में दम तोड़ गया तो
कविता की महानता सधी
अब राह में छूटे शब्द कवियों को नहीं
गाड़ियों से बिदक कर घास चरते डंगरों
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