प्रसिद्ध लेखिका मैत्रेयी पुष्प की पुस्तक आई है किताबघर से ‘तब्दील निगाहें‘, जिसमें उन्होंने कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के स्त्रीवादी पाठ किए हैं. ‘उसने कहा था’ कहानी की नायिका सूबेदारनी के मन के उहापोहों को लेकर यह एक दिलचस्प पाठ है. पढ़ा तो आपसे साझा करने का मन हुआ- प्रभात रंजन
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‘मुझे पहचाना?’
‘नहीं।‘
‘तेरी कुड़माई हो गई?’
‘धत्।‘
‘कल ही हो गई।‘
‘देखते नहीं यह रेशमी बूटों वाला शालू. अमृतसर में।‘
यह संवाद! लहनासिंह, तुमने जीवन साथ बिताने का खूबसूरत सपना देखा था न? और मेरे पिछले वाक्य पर कितना छोटा मुंह हो गया था तुम्हारा! क्यों न होता, उस छोटी सी उम्र में उस क्षण तुम्हें समझ नहीं आ रहा कि दिन की सुनहरी भोर में यकायक अंधेरा कैसे फट पड़ा। मेरी सहज मुद्रा हवा में भले ही लहरा रही थी, मगर दिल पर कुछ भारी-भारी सा लदा हुआ था। शायद इसलिए कि मैं हर रात तुम्हारे सुबह मिलने की आहट ओढ़-बिछाकर सोती थी। मेरा हर सपना लहनासिंह के आसपास होता था। अबोध आंखों के तितली जैसे रंगीन और कोमल सपनों को लेकर ही दुनिया को पहचान रही थी मैं। सारे मासूम विवरणों को अपनी झोली में समेटकर भरने के बाद समझ में यही आया था कि हम एक-दूसरे के इतने निकट आते जा रहे हैं कि इन नजदीकियों को अब तक पहचानते नहीं थे। इतना इल्म कहां था कि आपस के शरारत भरे संवाद और छेड़छाड़ की नन्ही-छोटी मुद्राएं आगे चलकर किस घाट लगेंगी।
मैं आठ साल की थी और तुम बारह साल के।
अब तो पूरे पच्चीस वर्ष का अंतराल है। इस अंतराल का एक-एक दिन, एक-एक महीना और एक-एक साल मैंने यही सोचकर बिताया कि मैं तुम्हें भूल रही हूं, भूलती जा रही हूं और जब जिंदगी का अंजुरी-अंजुरी पानी उलीच दिया, प्रेम से लबरेज रहने वाली लड़की निखालिस गृहस्थिन सूबेदारनी हो गई तो लगा कि मैं तुम्हें भूल चुकी हूं। अब मेरे घर में खालीपन भर गया है। वहां सूखा व्यापी है और वहां गृहस्थ प्रेम के सिवा किसी भी प्रेम के लिए बंजर है। यहां सेना के जवान और मेरे पति सूबेदार की दुनिया है। दुश्मन, जंग और हार-जीत की बातें हैं, इसलिए भी यहां मोहब्बत के लिए जगह कहां?
बंदूकें, रायफलें और तोपें!
परेड, अभ्यास और कैंप!!
सैनिकों के बूटों से धरती हिलती, कमांडर का हुक्म दिशाओं में गूंजता, सीमा पर लड़ने की शपथ कलेजा हिला देती और मैं अपने आसपास चलते-फिरते जवानों के चेहरों पर तुम्हारा चेहरा लगा-लगाकर देखती रहती, एकदम बेसुध, बेखबर। क्या मुझे मालूम था कि तुम सेना में भर्ती हुए होगे? नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं जानती थी और कल्पना के सिवा तुम्हारे चेहरे का रूप-रंग भी मेरे पास नहीं था। अगर कुछ था तो वह शरारत भरा चेहरा जो बारह साल के लड़के के रूप में कहता थाµ ”तेरी कुड़माई हो गई?” बस यही स्वर, यही वाक्य अभ्यास के वास्ते परेड करते जवानों के साथ फौजी माहौल में मेरे सपनों के घुंघरू बांधकर नाचने लगता। जबकि मुझे मालूम था कि अब किसी दिन भी लहनासिंह से मेरी मुलाकात होने वाली नहीं। मगर मैं नहीं, मेरी आकांक्षाएं अपनी उम्मीद तोड़ नहीं पाती थीं।
मैं सुहागिन औरत, जिसकी जिंदगी का सर्वस्व सूबेदार, बार-बार उन कुंआरी यादों को अतीत में धकेलने की कोशिश करती रही। मगर मेरी कोशिशें नाकाम भी तो होती रहती थीं और लहनासिंह की याद मुझे अपने ही भीतर गुनहगार बना जाती। मेरे जमाने की औरतें कहा करती थीं- प्यार का बिरवा कभी मत लगाओ, लग भी जाए तो उसे सींचो नहीं क्योंकि वह हरा-भरा होकर जहरीली पत्तियां गिराने लगता है। मैं अपने दाम्पत्य की खैरियत मनाते हुए अपने दिल को रेगिस्तान की तरह वीरान करने में जुट गई। लहनासिंह के लिए सूबेदारनी की आंखें अब अंधी थीं। मगर वे दो आंखें किसकी थीं, जो अपने बाल मित्रा को अपलक देखती रहतीं और कोमल, मासूम और निश्छल अहसास से भर उठतीं। क्या वह उस भोली-सी छोटी लड़की का प्यार मैं अब तक अपने कलेजे से लगाए फिर रही थी? अपने ही प्यार में अभिभूत थी? मैंने मान लिया था कि तुम, तुम नहीं, मेरे अपने प्यार की भावना हो।
इसलिए ही!
जब तुम सामने पड़े तो मैं चौंकी नहीं, अपनी भावना से मिलान करने लगी और मेरी अंतरंग चेतना जो मोहब्बत से बनी थी, तुम्हें पहचानने लगी। मैंने कहा था न, मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया।
लहनासिंह, तुम मुझे नहीं पहचाने, इस पर मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी। तुम्हारी सूरत अब बालक की नहीं, एक जवान की थी, जैसी कि सिख जवान की होती है। मेरा चेहरा भी बदल गया है, आखिर पच्चीस साल का फासला एक लंबी अवधि है। मगर मेरा और तुम्हारा वही क्या था, जो अब तक नहीं बदला। एक-दूसरे से लगाव, जुड़ाव, जिसे मोहब्बत कहते हैं। शायद तुम्हारे पास भी वही रह गई और मैं भी अपने शालू के छोर में वही बांध लाई नहीं तो मैं यहां-वहां तुम्हें सब की निगाह बचाकर क्यों खोजती और तुम विदा होते समय मेरे साथ-साथ रोते क्यों?
लहनासिंह, तुम्हारे लिए मैं वही छोटी लड़की हूं न जो दूध-दही की दुकान से लेकर सब्जी मंडी तक राह चलते तुम्हें कहीं भी मिल जाती थी और उसे देखते ही तुम्हारी कोमल आंखें चमक उठती थीं। वह तुम्हारे दिल में आज भी रहती है?
‘देखते नहीं यह रेशमी बूटों वाला शालूµअमृतसर में।‘ यह एक वाक्य ऐसी कटार था, जिसने हमारे साथ चलने वाले रास्ते काट दिए। हमारा मिलन कट-फट गया। भोली शरारतें उदास हो गईं। तुम्हारे प्यार का हक उखड़ गया, मेरी चाहत का तो किला ही ढह गया। फिर भी खंडहर के रूप में मुझे कोई नहीं देख पाया। अमृतसर शहर में क्या है, क्या नहीं, मैंने नहीं देखा। हां, यहां एक पथरीला बंगला है, जिसकी दीवारों से टकरा-टकराकर मैंने अपनी भावनाओं को लहूलुहान करते हुए दांपत्य का संतोष हासिल किया है। कोई गजब तो नहीं हुआ, ऐसा तो होता ही रहता है। कोई औरत अपने प्यार की बरबादी पर रो ही कहां पाती है? वह तो उसे छिपाकर सुहाग भरी जिंदगी हासिल करते हुए अपनी जीत का परचम लहराती रहती है, भले उसके हाथ कांपते रहें और पांव थरथराएं।
‘बच्चों की दोस्ती, दो पल का खेल। खेल के बाद अपने-अपने रास्ते’ यह व्यावहारिक बात मैंने दिल में बसा ली थी, लेकिन जब-जब अमृतसर में सुबह होती, घर हिलता नजर आता। हवाएं नहीं, आंधियां महसूस होतीं। याद आता कि लहना घर की सीध में चला जा रहा था, रास्ते में एक लड़के को मोरी में धकेल दिया। एक छावड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई। एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहाकर आती वैष्णवी से टकरा गया, अंधे की उपाधि पाई। लहना के भीतर ऐसी टूटन-फूटन हुई जैसे हंसने वाले लड़के के दिमाग में बारूद भर गया हो।
समझने के लिए अब क्या रह गया था? अजब-सी, मोहब्बत से भरी आंखें और शरारत भरी भोली अदाएं जलजला क्यों बनने लगीं, अमृतसर ने ऐसा जहरीला डंक मारा कि तुम तुम न रहे।
लहना, मेरी कुड़माई नहीं होनी चाहिए थी क्या?
नहीं तो क्यों नहीं? इसलिए कि पिछले एक महीने से मैं तुमसे बराबर मिल रही थी और तुम मुझे लेकर अबूझ सपने पाल रहे थे। उन सपनों की मनमोहक छवियां एक लड़की की तरह तुम्हारी गली में आवाजाही कर रही थीं।
मगर मेरा क्या हाल था, तुम्हें शायद मालूम ही नहीं क्योंकि अमृतसर के शालू की बात सुनकर तुमने जो आक्रामकता दिखाई, उसी शालू को ओढ़कर मैं चुपचाप विदा हो गई। मेरी जैसी लड़कियों की जिंदगी, ऐसे ही शालुओं के हवाले हो जाती है, बेआवाज। मगर गौर से कोई देखे तो दिखाई देगा कि एक दर्दनाक तकलीफ चुपके-चुपके बढ़ती है और उमंग तथा उम्मीदों को उजाड़ती चली जाती है। आज तक यह अहसास जिंदा है कि कोई मेरी गर्दन में रेशमी शालू का फंदा कसकर अमृतसर की ओर खींच रहा है। उस समय तो मैं रोती रही थी, जैसे छोटी लड़की अपना खिलौना टूटने पर रोती है।
मगर लहना, न तुम खिलौना थे, न मैं खेलनहार।
मैं कहां गई, तुम कहां रहे, यह भी कोई पहेली नहीं, रिवाज का एक हिस्सा है। पति की घर-गृहस्थी संभालना हर लड़की का धर्म माना गया। लड़के संभालते हैं बाहर का मैदान, जहां तुम पहुंचे। खोज-खबर लेना भी गुनाह फिर सुबह-दोपहर-शाम और रात का हिसाब कौन करे? हां, याद करते हुए लगा कि मेरे चेहरे पर उजली-सी मुस्कान खेल गई है, जिसमें सुबह और दही की रंगत मिली हुई है। और जब कभी तुमको याद करते हुए आंखें भीग उठी हैं, मैंने किसी को खबर नहीं होने दी जैसे रात छिटके हुए तारों की रोशनी को उजागर नहीं होने देती।
इस लुका-छिपी का हासिल क्या रहा, पता है? एक डर, एक भय, एक आशंका और अपराध-बोध। पच्चीस साल बाद वह बारह वर्ष का लड़का आज दाढ़ी-मूँछों वाले सरदार के रूप में पगड़ी बांधे खड़ा था।
लहना? लहना! यह लहनासिंह है!!
मैंने तुम्हें पहचान लिया। यकायक मैं उसी लगाव भरी दुनिया में लौट आई, जिसे छोड़ने-त्यागने की कवायद करते हुए मैंने अपने प्राणों को क्रूर तकलीफ में डालने का अभ्यास साध लिया था। मेरी अब तक की तपस्या भंग होने लगी। मेरे पतिव्रत धर्म का तम्बू बिखरने को हो आया। ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ का मीठा सवाल दाम्पत्य में जहर बोने वाला था। भरी दोपहरी में भोर की रेशमी कोमल हवा कहां से आई? सूनी राह पर चलते हुए छूटा-बिछुड़ा पुराना राहगीर। मैं किस ओर दौड़ने लगी? कि दिल बेपनाह धड़क रहा है और कोई भूला हुआ विश्वास धीरज देने लगा है कि तेरी अब तक की तलाश पूरी हुई। यह भ्रम है, जानबूझकर सोचा, मगर नहीं, कोई कहीं छुट जाता है तो भी क्या संबंध टूट जाता है?
मगर यह तो अजनबी की तरह खड़ा है, मेरी पहचान को चुनौती देता हुआ। और यादें हैं कि दौड़ती हुई चली आ रही हैं। बचपन के दिन साथ-साथ भाग रहे हैं। प्यार के धागे में पिरोए नन्हे-मुन्ने सपने। सपनों ने मुझे हर हालत में अपने नजदीक अपने आगोश में समेटकर रखा।
लहनासिंह, सच बताना, तुझे मैं क्या सूबेदारनी लगी? क्यों नहीं लगी हूंगी, जब तूने जमादार रैंक के सिपाही की तरह मेरी ड्योढ़ी पर ‘मत्था टेकना’ किया तो मैं अचकचाई तक नहीं। मैंने पिछले समय को अपनी आंखों पर आने नहीं दिया और तुझे ऐसे देखा जैसे जमादार रैंक के दूसरे सैनिक होते हैं। यह एक मजबूर पतिव्रता का आचरण था। परिचय से जान-पहचान तक जाना भी अपराध लग रहा था। जान-पहचान कहीं दोस्ती न लगने लगे। दोस्ती घनिष्ठता की बू न देने लगे। देखा, विवाहित स्त्रियां अपने दिल के साथ कितनी सख्त कार्रवाइयां करती हैं। और छूट भी ऐसी देती हैं कि कयामत हो जाए! हम वही हैं जो पच्चीस साल पहले थे। लहना की आंखों में पिछला समय तैर गया। होंठों पर नजरों से होती हुई मुस्कराहट झिलमिलाने लगी। या मेरे दरवाजे पर सितारे जगमगाए हैं! जिस प्यार को सीने से लगाए रही, आपातकाल में नजदीक आ गया। मैं वहां खड़ी-खड़ी, सब को भूल गई। यह बिछुड़ने का अपना ताव था और अपनी चमक।
दूसरे ही क्षण मैं होश में आई, यह मानकर कि बिछुड़ना, तकलीफ सहना, त्याग करना प्रेम की संपदा है और मैं इससे भरी-पूरी हूं। मैं अपनी दुनिया में लौटी, लहना पास ही था लेकिन मेरी इस दुनिया से बहुत दूर। क्या हुआ जो मेरी भावनाएं दुःख में बदल रही हैं और लहना की आंखें छलछला आई हैं। ये भी तो वक्त के ऐसे विलक्षण लमहे हैं, जिनकी कल्पना तक मेरे पास न थी। अमृतसर में यह पथरीला बंगला गुलशन जैसा क्यों होने लगा? मैंने तो मान लिया था कि सामाजिक विधि-नियमों का हम जैसी औरतों को श्राप लगा होता है कि लहना जैसों से लगाव-जुड़ाव शिला हो जाए। और यह विधि नहीं विधाता का करिश्मा है कि शिलाओं के नीचे से जलधारा फूट पड़ी।
धारा पुरुष वर्चस्व, धर्म वर्चस्व और भय के वर्चस्व के आसपास अपने जल को टकरा रही है। प्रेम की अनुभूति और विवाह संस्कार का भी आमना-सामना है। कौन जीते, कौन हारे का द्वंद्व था और मेरे हृदय के ताप का असर आसपास हो रहा था, स्थिति खुद ब खुद बनने लगी, क्योंकि लहना अकल्पनीय देव की तरह मेरे सामने उपस्थित था। कल्पित भी नहीं, साक्षात् खड़ा था। मेरे भीतर हूक उठने लगी, जो अपने हृदय के गहरेपन को बड़ी शिद्दत से महसूस करके उठी थी।
मगर यकायक क्या हुआ?
भय के वर्चस्व ने मुझे दबोच लिया, जो पुरुष और धर्म के वर्चस्व से पैदा हुआ था। सूबेदार, मेरे पति की गृहस्थी का सुखमय संसार तबाह हो जाएगा। लहनासिंह शांत परिवार के लिए असगुन की तरह है। पतिव्रत धर्म का बेरहम चाबुक मेरे मन पर पड़ा और रेशे-रेशे उधेड़ने लगा। अचानक यह कैसा दर्द उमड़ा कि मैं अपनेपन में झुकती-सिकुड़ती चली गई। बार-बार अब यही लग रहा था कि जो भी हो, गृहस्थ को संभालती हुई एक औरत दुखी या उपेक्षित रहती हुई भी सम्मानित गृहिणी के रूप में जरूर रह सकती है। इस बात को साबित करने का उपाय एक ही है, अपनी भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और सपनों को भूल जाना। वर्जना का इतिहास यों ही तो अपना प्रभुत्व नहीं बनाए हुए। वर्जनाओं को गले लगाकर लक्ष्मी जैसी औरत की पदवी मिलती है। यानी कि स्त्री की सामाजिक विजय।
हमारा प्रेम और प्रथम विश्वयुद्ध, लगता है कि एक ही धरातल पर घटित हो रहे थे और दोनों के संयोग से एक प्रेम कहानी (उसने कहा था) का जन्म होना था। यह प्रेमकथा ऐसे ही अमर होनी थी जैसे प्यार का प्रतीक ताजमहल।maitreyi pushpa
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