युवा लेखिका सोनाली सिंह के कहानी संग्रह ‘क्यूटीपाई’ पर यह सारगर्भित टिप्पणी की है नवीन रमण ने. पढ़कर मुझे लगा कि अब इस संग्रह की कहानियों को पढ़ ही लेना चाहिए. अच्छी समीक्षा यही काम करती है. किसी अप्रासंगिक किताब को भी प्रासंगिक बना देती है- मॉडरेटर.
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‘जिंदगी पहेली है लेकिन सुलझाने में डर लगता है’
“जिंदगी में खुशियां हैं पर उनसे मुलाकात में डर लगता है।
न जाने क्यों अरमानों का गला मरोड़ना पड़ता है।
आजाद हूं लेकिन आसमां में उड़ने में डर लगता है।
जिंदगी पहेली है लेकिन सुलझाने में डर लगता है।
न जाने क्यों खुद को पहचानने में डर लगता है।
ख्वाबों की उड़ान है, कहने को जुबां है
लेकिन खामोशी का बुत बनना पड़ता है।
न जाने क्यों अंधेरों के साये में डूब जाना पड़ता है।
खुदा की रहमत की कमी नहीं लेकिन खुदा भी क्या करे?
जब हमें अपने हाथ की लकीरें खुद ही खींचना अच्छा लगता है। ”
जिंदगी की पहेली को सुलझाने में जितना डर लगता है, उससे कहीं ज्यादा डर किसी कहानी की आलोचना लिखने और उसे समझने-बुझने के क्रम में विश्लेषित करने में भी लगता है। कई कहानियां ऐसी होती है जो पाठक पर प्रभाव नहीं बल्कि उस पर आक्रमण कर देती है। आप चाह कर भी इस आक्रमण से बच नहीं सकते।
ऐसी ही कहानी सोनाली सिंह की ‘क्यूटीपाई’ है। इस कहानी की खासियत ही यह है कि कविता के बिना यह कहानी लिखी गई होती तो कहानी कमजोर होती। जब मैं इस कहानी पर लिख रहा था उसी दौरान रमेश उपाध्याय फेसबुक वॉल पर लिखते है कि- “ कविता में कथा कही जाती है, तो कविता सशक्त हो जाती है; जबकि कथा में कविताई की जाती है, तो कथा कमजोर हो जाती है। ”पता नहीं किस संदर्भ और किन परिस्थितियों में उन्होंने इतनी कठोरता से यह प्रतिमान गढ़ा। जबकि हिन्दी साहित्य के इतिहास में ऐसे कितने ही प्रमाण है कि कथा वाचक की शैली और भाषा में कविता ने ही उनके गद्य को नए आयाम दिए। काव्यमय गद्य को क्या कविता और कहानी के नमक-चीनी की तरह घुल जाने पर अलगाया जा सकता हैं? दूसरा तर्क यह है कि- “साहित्य की विधाओं का अपना अनुशासन भी कुछ होता है।” साहित्य की हर विधा का अपना अस्तित्व और अनुशासन होता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। परंतु इन विधाओं के सह-अस्तित्व, अंतर्संबंध और संवाद को दरकिनार करना क्या उचित होगा। सभी विधाएं अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक लड़ाई की प्रक्रिया में शामिल है, जिस कारण उनके बीच नजदीकियां बढ़ना स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है। जिससे संवाद और संघर्ष को व्यापक फलक मिलता है।
परंतु हम साहित्य की विधाओं पर लेखक,कवियों और आलोचकों के स्वार्थों को चस्पां करने से बाज नहीं आते। और न ही विभाजन की खाई को पाटने का प्रयास ही करते है। हमारा जीवन क्या इतना सरल और सपाट है,जितना हम इन विधाओं के विभाजन के जरिए बतलाना और जताना चाहते हैं।हर इंसान के अंदर सामाजिक-राजनीतिक सत्य एक साथ कविता,कहानी,डायरी आदि के साथ-साथ संचार के तमाम माध्यमों के सत्य खोलते-बोलते रहते है,जिन्हें चुप नहीं कराया जा सकता। भले ही उनकी उपेक्षा कर दी जाती हो। उपेक्षा करना हमारे समाज की एक खास रणनीति का हिस्सा निरंतर बनता जा रहा है, जो हमें एककदम आगे ले जाकर विवादों की जमीन पर ले जाकर छोड़ता है। और हम असल मुद्दों को पीठ दिखाते हुए आगे बढ़ने के स्वांग रचने में मशगूल हो जाते हैं।
जबकि यहां कविता और कहानी दोनों माध्यम इस तरह घुल मिल गए मानो दो उपेक्षित व पीड़ित बहनें एक दूसरे को सहारा देकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही हो और इस कठिन डगर पर निकल पड़ी हो, जिस पर कांटे ही कांटे बिछे हुए हो। आपसी भागीदारी और संवाद के जरिए। ताकि इस संघर्ष में अकेले होने के अहसास के साथ-साथ तमाम निर्मताओं के खिलाफ मिल जुलकर लड़ा जा सकें और उनका प्रतिवाद किया जा सकें। जिंदगी की पहेलियों की जो उलझने हैं,उन्हें सुलझाने के लिए कविता,कहानी और डायरी तीनों आपसी संवाद और जद्दोजहद के माध्यम से उसे समझने और सुलझाने का प्रयास करती हैं।
आज जब हम अनेक माध्यमों में एक साथ दखल रखते हुए जीवन को समझने और जीने के लिए प्रयासरत है, तब कहानियों और घटनाओं के ‘रीपिट’ होने का खतरा समानांतर बना ही रहता है। स्त्री जीवन पर केंद्रित कोई कहानी (सच्ची या काल्पनिक) क्राइम-पट्रोल और सावधान इंडिया जैसे अनेकों कार्यक्रमों के दौर में जल्दी ही प्रभावित नहीं करती। वैसे भी दृश्य-श्रव्य माध्यम की आप कितनी भी आलोचना करने के साथ-साथ खारिज करते रहिए उसका अपना एक अलग अंदाजे-बयां और रसास्वादन है। जिससे इंकार नहीं किया जा सकता। परंतु यह कहानी अन्य कहानियों से अपने माध्यमों के कारण ही अलग है।(हो सकता है इस तरह कि और भी कहानियां हो।) आप को एक साथ कविता संसार से गुजरने का मौका मिलेगा और लगेगा शगुन मिश्रा की कहानी आप किसी जानकार से सुन रहे है और शगुन मिश्रा की डायरी के अंश पढ़ते हुए लगेगा मानो किसी की डायरी सीधे आपके हाथों लग गई है और किसी के जीवन के उन अंदरूनी क्षणों और घटनाओं के बीच आप बिना किसी दखल के शामिल हो गए है।
अतः स्त्री की दर्दनाक परिस्थितियों एवं पीड़ा को अभिव्यक्त करने के लिए कहानी,कविता और डायरी तीनों मुख्य किरदार की भूमिका में आकर एक जीवंत दस्तावेज बनकर उभरते हैं। डायरी जिंदगी के उन अनछुए पलों को प्रामाणिकता प्रदान करती है, तो कविता जिंदगी के मर्म को समझने में मदद करती है। वहीं कहानी के बीच डायरी और कविता व्यापक संदर्भों को खंगालती और खोलती हैं।
इन माध्यमों के बीच कहानी है शगुन मिश्रा की। जो कि डायरी के बिना अधूरी है। जीवन जितना बाहर घटता दिखता है, उससे कहीं ज्यादा जीवन अंदरुनी परतों में सिमटा हुआ है। जिसे परत-दर-परत शगुन मिश्रा की जिंदगी के बहाने विश्लेषित करते हुए कहानी दरअसल हर लड़की के किसी न किसी हिस्से को स्पर्श करते हुई प्रतीत होती है।
जबकि लड़कियों के जीवन और अभिव्यक्तियों किस कदर समाज ने कुंद कर रखा है, उसे अभिव्यक्त करने के लिए काव्यमय तरीका सबसे सटीक तरीका है। क्योंकि कथा में प्रवाह होता है, लय होती है,जबकि लड़कियों के जीवन से प्रवाह और लय को ही खत्म कर दिया गया है। इसलिए लड़कियों के अंदरूनी हिस्से की पीड़ा और इस टूटी-बिखरी कथा और लय को अभिव्यक्त करने के लिए कविता ही सशक्त माध्यम है। क्योंकि उन्हें खुशियों से मुलाकात में डर लगता हैं, बहुत बार उन्हें अरमानों का गला मरोड़ना पड़ता है, और आसमां में उड़ने में डर लगता है, व जिंदगी की पहेली को सुलझाने में डर भी लगता है तथा बहुत बार खामोशी का बुत बन जाना पड़ता है। इन सब के बीच कुछेक को अपने हाथ की लकीरें खुद खींचना अच्छा लगता है। अपने आस-पास जब हम नजर दौड़ाएंगे तो पाएंगे कि ऐसी लड़कियां कम ही होंगी,जो अपने हाथों की लकीरों को खुद ही बना रही हो। क्योंकि आजादी के इतने सालों बाद भी हम समाज में स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देने में काफी हद तक असफल ही रहे हैं ।दूसरी ओर संसद में महिलाओं को जहां 33 % आरक्षण के लिए जब इतनी लंबी लड़ाई लड़नी पड़ रही हो,वहां उनके मौलिक अधिकारों को लेकर मर्दवादी नजरिया हम सब के अंदर गहरे बैठा हुआ है । जो समय-समय पर हिलोरे मारता रहता है ।इस अपने अंदर के ‘मर्द’ से हमें रोज नए सिरे से लड़ना पड़ता है,वरना यह हम पर हावी हो जाता है ।जिन पर हावी है उनके तो क्या ही कहने।
‘तुरताफुरती’ के दौर में ‘उपेक्षा’ इस कहानी की मुख्य पात्र बनकर उभरती है। वह चाहे शगुन मिश्रा हो,कविता, कहानी ,डायरी या प्रसार भारती हो ।इस कहानी में उपेक्षित वर्ग (स्त्री) से लेकर उपेक्षित माध्यम-कहानी,कविता,डायरी और प्रसार भारती सब की अपनी-अपनी पीड़ाएं चरम पर है ।कहानीकार ने दरअसल वर्तमान दौर में कहानी के माध्यम से गुमशुदा की तलाश शुरू की है । हद तो यहां तक हो गई है कि आज हम गुमशुदगी की खबरों पर नजर भी नहीं डालते । जब तक हमारा कोई अपना गुम नहीं हो जाता । और हमारा अपना होने के लिए राग के संबंध होने जरूरी होते है । अन्यथा हर कोई पराया ही है इस और हर दौर में । टीआरपी का खुराक से चलने वाला इलैक्ट्रानिक मीडिया तो गुमशुदगी की खबरे कभी दिखाता ही नहीं।
दूसरी तरफ “क्या मैं अच्छी लड़की नहीं हूं ?” यह सवाल जब शगुन अपनी दोस्त से पूछती है ,तो मन में ये ख्याल आए बिना नहीं रहता कि हम बचपन से ही लड़कियों को अच्छी और लड़कों को बहादुर बनाने के जो वर्कशॉप चलाते है । उसका खामियाजा आखिर स्त्रियों को ही भुगतना पड़ता है । जो लड़की पुरुषवादी सोच और ढांचे में फिट बैठ जाती है,जमाने की नजर में वहीं अच्छी लड़की है । बाकी की सब लड़कियां खराब है ।इस तरह के सरलीकरण एक खास रणनीति का हिस्सा होने के साथ-साथ अपने पूरे व्यवहार में अमानवीय भी होते है । जिसमें हमारी भागीदारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद रहती है ।जिस तरफ ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है।
कहानी के जरिए जब हम डायरी के पन्नों को पलटते है,तब शगुन की डायरी के ये अंश पति-पत्नी के बीच पनपे तनाव की छाया में पले हर उस बच्चें के मनोविज्ञान को विश्लेषित करने में मदद करते है । शगुन लिखती है कि- “ एक पौधे को समान रूप से धरती के दुलार और सूरज की तपिश की जरूरत होती है । मेरे हिस्से में केवल मम्मी के आंचल की छांव आई ।पापा के सुरक्षित साये और प्यार के लिए निगाहें हमेशा दरकती रहीं ।दिल ने हमेशा चाहा कि अच्छी लड़की बनकर रहूं ।” दूसरी ओर मम्मी नए रिश्ते की खोज में है,ताकि अपने हिस्से का जीवन जी सके । पुरुषवादी सोच इसमें मां की गलतियां ढूंढ कर उसे आरोपी घोषित करते हुए अपनी सोच का नमूना पेश कर देता है । जिम्मेदारी और फर्ज जैसे जुमलों को किसी पर भी जबरदस्ती लादा नहीं जा सकता । वे स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा होते है,अन्यथा वे बोझ ही होते है।
“ मैं कुछ खास नहीं,एक आम-सी लड़की हूं,जिसकी पूरी दुनिया सिर्फ कैरियर और प्रेम के ईर्द-गिर्द घूमती है । एक आम लड़की की तरह मैं रात को उसके ख्वाब देखती हूं ।” शगुन एक आम लड़की की तरह जीवन जीना चाहती थी और चाहती थी कि उसके जीवन में जो सूखापन है, उस पर बारिश की बूंदों के साथ-साथ हरी-हरी कोपले खिल-खिलाएं । परंतु समाज कब लड़की को आजादी से जीने देना चाहता है,वह तो उसे बंदिशों के पहाड़ तले लाद देना चाहता है और जो लड़कियां अपनी जिंदगी को अपने ढंग से जीना चाहती है,जिसे तथाकथित समाज मनमरजी कहता है,उन ‘मनमरजी’ करती हुई लड़कियों पर ‘सार्वजनिक सुविधागृह ’ होने के आरोप लगाना शुरू कर देता है ।जबकि उसके आस पास के मर्द हमेशा उस पर गिद्धों की तरह झपट्टा मारने को तैयार रहते है-“भाई का जामा नीचे गिरता जाता था और लवर का जामा ऊपर चढ़ता जाता था।”
हालात ऐसे बना दिए जाते है कि लड़कियां आत्महत्या को ही अंतिम परिणति मानने पर विवश हो जाती है । दरअसल ये रास्ता भी पुरुषवादी रणनीति का अहम हिस्सा होता है ।किसी लड़की के आत्महत्या करने पर अपने आस-पास के लोगों की बातों पर ध्यान देंगे तो आप को समझने में देर नहीं लगेगी कि ऐसा कौन चाहता है कि लड़कियां आत्महत्या कर लें । इसके लिए रॉकेट साईंस या स्त्री विमर्श की महान किताबें पढ़ने की जरूरत नहीं है । तथा“बात-बात में आत्महत्या की धमकी देने वाली बहनों को यह समझाना बहुत मुश्किल था कि अगर ऐसे सार्वजनिक सुविधागृह नहीं होते तो वे आत्महत्या करने लायक आत्मसम्मान भी नहीं जुटा पाती।”
तमाम निर्मताओं के बीच शगुन ने आंसुओं को बिना किसी कांधों का सहारा लिए जज्ब करना सीख लिया था । really I miss you, shagun(दीया इतना उजियारा फेंक रहा था कि मेरी आंखें चौंधियाने लगीं ) मैंने फूंक मारकर दीये को बुझा दिया ताकि खुद को महफूज कर लूं । जिस ब्यूटी-स्पॉट के कारण वह क्यूटीपाई कहलाई,उतनी खुशी भी शगुन के हिस्से में नहीं आ पाई । सुंदरता में खुशियां ढूंढने वाले उस समाज पर करारा तमाचा जड़ा है ।
इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की कुरूरता के कारण भगाणा और बदायूं जैसी तमाम घटनाएं हमारे अंदर के भय को ओर अधिक बढ़ा देती है । भय बढ़ने का एक मुख्य कारण यह भी है कि हमें इस तरह की घटनाओं का विरोध करने के साथ-साथ पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए भी लड़ना पड़ता हैं । आंदोलनों की उर्जा का बहुत बड़ा हिस्सा हमारी न्याय प्रक्रिया की धीमी गति और पक्षपात पूर्ण रवैया के विरोध में खर्च हो जाता है ।जबकि वही ऊर्जा समाज में जागृति लाने में खर्च हो सकती थी,परंतु वह विमर्शों और न्याय की लड़ाई में जाया हो जाती है । इस व्यापक राजनीतिक निष्क्रियता के खिलाफ जनआंदोलनों की एक निर्णायक भूमिका हो सकती है ।अन्यथा बहस और विमर्शो की दुनिया से अलग साहित्य हमें हमारे अंदर झांकने और परिक्षण करने के लिए बार-बार उकसाता है,ताकि हम अपने अंदर की अमानवीयता को समझ सकें तथा उससे लड़ सकें । और समाज में होने वाले प्रत्येक अमानवीय कर्मों के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकें । परंतु समाज में बढ़ती बलात्कार और हिंसा की घटनाएं हमारे अंदर की कठोरता को पिघलाने के बजाय हमारे विश्वास में दरार पैदा कर रही है।
यह पुस्तक सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित है.