हाल में ‘तहलका’ में आए एक लेख के कारण हिन्दी में स्त्री विमर्श फिर से चर्चा में है। प्रसिद्ध रंगकर्मी, लेखिका विभा रानी का यह लेख हालांकि उस संदर्भ में नहीं लिख गया है लेकिन समकालीन स्त्री विमर्श को लेकर इस लेख में कई जरूरी सवाल उठाए गए हैं- जानकी पुल।
===================================
औरत की देह से रक्त और मर्द की देह से वीर्य ना निकले तो चिकित्सा विज्ञान सकते में आ जाए। स्वस्थ देह और स्वस्थ मन की निशानी है – इन दोनों का देह में बनना और इन दोनों का ही देह से बाहर निकलना। प्रकृति और सृष्टि रचना का विधान इन्हीं दो तत्वों पर है।
देह ना हो तो आत्मा को किस होटल, गेस्ट या फार्म हाउस में ठहराएंगे भाई? देह की दुर्दमनीय दयालु दृष्टि से सभी दग्ध हैं। पर, क्यों? हम तो अपने पूर्वजों और वरिष्ठों से ही सब सीखते हैं। जब भारतीय मिथक मछली के पेट में वीर्य गिराकर मानव-संतान की उत्पत्ति करा सकता है और हमारा अनमोल साहित्य विपरीत रति से लेकर देह के देह से घर्षण, मर्दन तक लिख सकता है तो हम क्या करें? उस परंपरा को छोड़कर ‘चलो रे मन गंगा-जमना तीर’ गाने लगें? ‘नैनन की करि कोठरी, पुतरी पलंग बिछाय, पलकन की चिक राखि कै, पिव को लिया रिझाय’ पर लहालोट होनेवाले हम क्या अपने साथ-साथ दूसरों की देह-संघर्ष गाथा भूल जाएं? ना लिखें कि आजतक हमने देह का चरम सुख नहीं भोगा? उस चरम सुख के बाद की चरम शांतिवाली नींद का सुख नहीं जाना?
समय बदलता है, समय के साथ नहीं बदलने से कूढमगजी आती है. अपने छीजते जाने का, अकेले पड़ते जाने का भय सताने लगता है। अपने समय में बनने-संवरनेवाले अब जब खुद नहीं बन-संवर पाते तो या तो अपनी उम्र का रोना लेकर बैठ जाते हैं या दूसरों को बनते-संवरते देख कुंठित हो जाते हैं. देखिए नबनीता देव सेन को – छिहत्तर की उम्र में भी कितनी जांबाज हैं और देखिए शोभा डे को – छियासठ की उम्र में भी उतनी ही कमनीय और आकर्षक!
कैसे कहा, समझाया जाए कि भैया, जवानी देह से नहीं, मन से आती है। लेकिन, यह भी है भैया कि मन की जवानी को दिखाने के लिए देह को दिखाना जरूरी है। यह देह साहित्य में आता है और अलग-अलग भूचाल लेकर आता है– उम्र से जवान! खुद को कितनी बड़ी गाली! माने उम्र चढ़ी तो देह भैया देह है और ढली तो पाप है? नारी ने देह पर लिख दिया तो वह उसी की रस भरी कहानी हो गई. नहीं भी देह पर लिखा तो भी उसका लेखन ही उसे देह के रास्ते लिखवाने का सबब बना गया. और सुन्दर नारी ने लिख दिया तब तो पूछिए ही मत. हिन्दी के लेखकों की यह कौन सी मानसिकता है, जिसमें महुआ माजी का सौन्दर्य, साडी और गाडी उनके लेखन को एक दूसरे पठार पर ले जाकर पछाड खाने को छोड देता है या फिर मैत्रेई पुष्पा भी महिला लेखन को उनके उम्र, उनकी नजाकत या सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो उनके “औरतपन” से जोडकर देखने लगती हैं. देह और महिला लेखन के प्रति यह संकुचित मानसिकता और कुंठा हिन्दी में इस तरह से क्यों भरी है कि आज खुद को लेखिका कहलाने में भय होने लगे कि कहीं कोई यह ना पूछ ले कि इस कहानी के बदले क्या और उस कविता या नाटक के बदले किसे क्या दिया? पति-पत्नी के जीवन पर आधारित मेरे नाटक “आओ तनिक प्रेम करें” पर किसी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा. लेकिन नए सम्बन्धों पर आधारित नाटक “दूसरा आदमी दूसरी औरत” पर सभी ने पूछा कि क्या यह मेरे जीवन की कहानी है? माने रस चाहिये, रस! रस का यह वीर्य हमारी देह में नहीं, हमारे दिमाग में इस तरह से भरा है कि महिला का ‘म’ या औरत का ‘औ’ देखते ही फिसल फिसल कर बाहर आने लगता है. और अपनी देह के छीजते जाने के भय या अपने बीतते जाने के डर से लेखिका भी जब दूसरी लेखिकाओं को कठघरे में खडी करने लगे तब कौन सी राह बच जाती है बाकियों के लिए?
इन सबकी चर्चा हाल में अपने कुछ कन्नडभाषी लेखक मित्रों से कर रही थी. वे यह सुनकर हैरान-परेशान थे कि क्या सचमुच में महिला लेखकों को उनके लेखन के बदले उनके अन्य तत्वों से तोला जाता है? गोपाल कृष्ण पई मेरे सामने बैठी कन्नड की मशहूर कवि ममता सागर को दिखा कर कहते हैं- “इसे तुम यह कहकर देखो” ममता कहती हैं- “हम तो यह सोच भी नहीं सकते. और तुम्हें क्या लगता है कि हमारे यहां की महिला लेखक खूबसूरत नहीं होतीं? लेकिन उन्हें उनके लेखन के बल पर दाखिल या खारिज किया जाता है, उनके रूप-रंग या उनकी पारिवारिक या आर्थिक परिस्थिति के कारण नहीं. मैं जब अपने अंग्रेजीभाषी अन्य महिला लेखकों लिंडा अशोक, शिखा मालवीय, एथेना कश्यप, नीलांजना राय, फराह गजनवी, निगहत गांधी, जर्मन महिला कवि औरेलिया लसाक, कन्नड कवि ममता सागर आदि को देखती हूं तो सहज सवाल मन में आता है कि अगर ये सब हिन्दी में लिख रही होतीं तो क्या इन सबको भी देह की तराजू पर ही तोला जाता? आपसे भी यही सवाल! ####