अज्ञेय की जन्मशताब्दी वर्ष में आज उनकी कविता पर प्रसिद्ध आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख. यह लेख उन्होंने अज्ञेय पर सम्पादित एक पुस्तक के लिए लिखा था. आज के सन्दर्भों में इस लेख की प्रासंगिकता कुछ और बढ़ गई है.
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विचार तो एक ही कविता पर करना है, लेकिन किसी भी सार्थक कवि की कोई भी एक कविता सिर्फ एक कविता नहीं, उसके आत्मसंवाद और आत्मसंघर्ष का एक पड़ाव होती है, जिसका अर्थ उस पूरे संवाद और संघर्ष से संवाद करते हुए ही ग्रहण किया जा सकता है। कवि अगर अज्ञेय जैसा बड़ा कवि हो, तो उसका आत्मसंघर्ष कहीं न कहीं उसके पूरे समाज और उसकी पूरी पंरपरा के आत्मसंघर्ष से भी जुड़ता है ही।
फिर, उस समय की विशेषताएँ, जिस समय में यह विचार किया जा रहा है। सपनों के जैसे गायब हो जाने का समय, बल्कि उनके दु:स्वप्नों में बदल जाने की वेदना का समय, बिगूचन का समय। जिस कविता पर विचार करने बैठा हूँ, वह बिगूचन से बाहर आने का रास्ता दिखाने का दावा तो नहीं करती, लेकिन यह याद दिलाने का जरूरी काम बखूबी करती है कि सपने दु:स्वप्नों में बदलते कैसे हैं। और, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण याद-दिहानी यह कि वर्तमान बिगूचन और डरावनेपन के निर्माण में उनकी भूमिका क्या है, जो अवतारों और मसीहाओं की खोज में लगे रहते हैं। मसीहाओं की खोज केवल उन तक सीमित नहीं, जो घोषित रूप से साधारण नागरिक हैं। वे भी, जो बौद्धिक माने जाते हैं, और हैं भी, साधारण मनुष्य की साधारणता की शक्ति को समझने से इंकार ही नहीं करते, उसे छीन लेने के अनुष्ठानों का साथ देने में लग जाते हैं।विचार और विवेक की ताकत का गुणगान करने की बजाय अपने-अपने चुनिंदा अवतारों का गुण-गान करने में लग जाते हैं। ऐसे लोगों से अज्ञेय की ही एक कविता कहती है-‘हट जाओ’, क्योंकि –“तुम्हारी ताकत/ हमारी ताकत नहीं है बल्कि/ हमें निर्वीर्य करने में लगी है”।
रचनाकार अज्ञेय कविता में, उपन्यास में, निबंध में, आलोचना में ‘व्यक्तित्व’ के आग्रही माने जाते हैं। जिस तरह की तीखी बहसें बीसवीं और इक्कीसवीं सदी को आप्लावित किये रही हैं, उनके कारण व्यक्तित्व का आग्रह जैसे सामाजिक संवेदना का विरोधी नहीं, तो विपरीत अवश्य मान लिया गया है। लेकिन कम से कम अज्ञेय के रचना-कर्म में व्यक्तित्व का आग्रह सामाजिकता के विपरीत कहीं नहीं प्रतीत होता। सामाजिकता की कुछ धारणाओं और विशेष प्रकार की वैचारिक निर्मितियों के विपरीत जरूर अज्ञेय का व्यक्तित्व-आग्रह पड़ता है।
और यह आग्रह एक बहुत ही महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक भूमिका का निर्वाह करता है। किसी भी तरह का सर्वसत्तावादी मिजाज सोचने-समझने वाले व्यक्ति से असुविधा महसूस करता है, और ऐसे व्यक्तियों और नागरिकों के समुदाय के स्थान पर, भीड़ का निर्माण करने की विधियाँ अपनाता है। यह भीड़ उपभोक्ताओं की भी हो सकती है, और बदलाव लाने का दावा करने वाले अनुयायियों की भी। भीड़ का हिस्सा बनने की पहली शर्त है, अपने व्यक्तित्व को स्थगित करना, अपने विवेक को किसी “जोरदार”, “आकर्षक” व्यक्तित्व को समर्पित कर देना। हिंसा और अत्याचार मात्र की नहीं, केवल अन्य के द्वारा किये जा रहे अत्याचार को निंदनीय मानना। अपने समय और समाज में हालत यह हो गयी है कि अब हम मानवीय मूल्यों और मर्यादाओं की अवहेलना पर चिंता प्रकट करने के पहले यह तय कर लेते हैं कि ऐसी अवहेलना करने वाले का वैचारिक या नस्ली गोत्र क्या है।
सर्वसत्तावादी मिजाज जन-समर्थन हासिल करने की कोशिश जरूर करता है। सोचने की बात यह है कि ऐसा समर्थन उसे मिल कैसे जाता है। इसी सवाल को सामने रखते हुए सामाजिक मनोविज्ञानवेत्ता एरिक फ्राम ने हिटलर के प्रति जर्मन लोगों के आकर्षण का अध्ययन किया था। यह अध्ययन केवल हिटलर की लोकप्रियता को समझने के लिये ही नहीं, हमारे अपने समाज और समय में विभिन्न प्रकार के फासिस्ट रुझानों के प्रति लोगों के ही नहीं, अनेक बौद्धिकों का मोह समझने के लिये भी बड़े काम का है। फ्राम ने बुनियादी बात पकड़ी है—जिसे वे स्वाधीनता का भय—‘फीयर ऑफ फ्रीडम’—कहते हैं। मानव-मन का एक कोना भीड़ का हिस्सा बन जाने को आतुर रहता है। किसी “जोरदार” व्यक्तित्व का अनुगमन करने को व्याकुल रहता है। किसी हद तक यह आतुरता मानव का स्वभाव ही है। लेकिन इसी स्वभाव को सब कुछ मान लेने से उतने ही स्वाभाविक, मानवीय चेतना के अन्य पहलू छूट जाते हैं। कुछ लोग इस पहलू का व्यवस्थित उपयोग कर अपनी फैंटेसियों को जीने का ‘सुख’ प्राप्त करते हैं। आधुनिक और उत्तर-आधुनिक समय में, ऐसे लोग कभी राष्ट्रवीर का बाना धारण करते हैं, तो कभी धर्मवीर का। फ्राम के विश्लेषण से हिटलर ही नहीं, अन्य राष्ट्रवीरों-धर्मवीरों के प्रति सुधी बौद्धिकों के आकर्षण, बल्कि मोह को समझने में भी मदद मिलती है, और ऐसे वीरों की सफलता को भी। यह भी साथ ही रेखांकित होता है कि ‘स्वाधीनता के भय’ से मुक्त हो कर, अपनी समाज-संवेदी व्यक्ति-सत्ता का सक्रिय आग्रह करना, भीड़ की बजाय नागरिक बनने की साधना करना केवल बौद्धिकों का नहीं, हर मनुष्य का कर्त्तव्य है।
अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर तीनों अपने-अपने विशिष्ट सामाजिक बोध और साहित्यिक आग्रहों के साथ, ऐसे कर्त्तव्य का पालन करने वाले, समाज-संवेदी व्यक्ति-सत्ता को अभिव्यक्ति देने वाले रचनाकार हैं। मिजाज और विषयों के चुनाव में बहुत साफ फ़र्क के बावज़ूद ये तीनों कवि भीड़-तंत्र के विरुद्ध व्यक्ति-सत्ता और नागरिकता के आग्रही कवि हैं। यह आग्रह अज्ञेय की कविता—‘हट जाओ’— में दो टूक ढंग से कहा गया है-
हम न पिट्ठू हैं न पक्षधर हैं
हम हम हैं और हमें
सफ़ाई चाहिए, साफ़-हवा चाहिए
और आत्म-सम्मान चाहिए जिस की लीक
हम डाल रहे हैं।
राजनीति समाज की एक गतिविधि है, तात्कालिक अर्थ में संभवत: सबसे निर्णायक गतिविधि है। लेकिन क्या उसी को एकमात्र गतिविधि भी मान लिया जाए? बौद्धिक का, और रचनाकार का काम किसी न किसी राजनीति के अनुगमन तक ही सीमित मान लिया जाए? या राजनीति के अपने, और समाज मात्र के व्यापक हित में राजनीति करने वालों से यह उम्मीद भी की जाए कि वे अनुगमन की अपेक्षा करना छोड़ कर, रचनाकार के साथ संवाद का रिश्ता बनाएँ।
अज्ञेय का रचना-कर्म यह केंद्रीय सवाल बार-बार, कई-कई रूपों में उठाता है।
और जो वस्तु-स्थिति है, उसे भी अज्ञेय का कवि पहचानता है। ऐसी पहचान से उत्पन्न खीझ और निराशा का आर्के-टाइप हिंदी कविता के इतिहास में हैं—कबीर। अज्ञेय की, 1979 की कविता, ‘कहो राम, कबीर’ में आस-पास के वास्तव के बोध से उत्पन्न निराशा और खीझ बहुत कम, लेकिन बहुत भरे हुए शब्द ग्रहण करती है-
यहाँ ग़ैर सभी
गुमनाम
यहाँ गुमराह
सभी पैर
यहाँ अन्ध
यहाँ—न—कहीं—यहाँ दूर…
कहो राम
कबीर
‘नदी के द्वीप’ के एक प्रसंग में भुवन साहित्यकार और पत्रकार के बीच अंतर बताते हुए कहता है, “साहित्यकार क्षणिक में सनातन की छाप खोजता है”। पाठक के कोण से कह सकते हैं कि वह साहित्यकार द्वारा खोजे गये सनातन में अपने क्षण की छाप खोजने का यत्न करता है। इसी तरह न जाने कब, कहाँ, किसके द्वारा रचना में लाया गया उस का अपना क्षण मुझ पाठक के अनुभूत क्षण से संवाद करने लगता है।
जिस पर बात करना चाहता हूँ, वह कविता—‘वे तो फिर आयेंगे’—‘कितनी नावों में कितनी बार’ में संकलित है। याने इसकी रचना 1980 से 1986 के बीच कभी हुई है। उस दौर के अवसाद और निराशा के वातावरण का जो प्रभाव कवि की संवेदना पर पड़ा है, कविता उसी को शब्द देती है। लेकिन एक चौथाई सदी के बाद भी वह ‘ऐतिहासिक’ नहीं, ‘सामयिक’ ही लग रही है, और, बदकिस्मती से, न जाने कब तक लगती रहेगी। इसमें विन्यस्त आशंका और अवसाद कभी ‘ऐतिहासिक’ लगने भी लगे, तब भी, उम्मीद है कि कविता पढ़ी जाएगी, केवल एक चेतावनी की ही तरह नहीं, बल्कि एक मार्मिक शब्द-रचना के रूप में भी—जोकि वह बुनियादी तौर से है।
पढ़ता हूँ, अंत से। कई कवितायें अंत तक आते-आते सूक्तियों में पर्यवसित हो जाती हैं। सामाजिक चिंता से जुड़ी कविताओं के साथ तो ऐसा कुछ ज्यादा ही होता है, और ऐसे पर्यवसान को सहज ही स्वीकार भी कर लिया जाता है। इस कविता की खूबी यह है कि इसका पर्यवसान होता है, आशंका में, और इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि आत्मालोचना में। कविता जिस आशंका और अवसाद का वर्णन कर रही है, उसमें हमारा योगदान क्या है? उत्तर है,
“राह
हमीं ने खोली है, पाँवड़े बिछाए हैं”।
ताज्जुब नहीं कि बतौर लेखक और बौद्धिक के, अज्ञेय ने भारतीय सभ्यता और परंपरा को आधुनिक राष्ट्र में बदलने की ऐतिहासिक परियोजना की मूल विफलता पर उंगली रखी थी-“ हम एक आलोचक राष्ट्र के निर्माण में विफल रहे हैं”।
मुक्तिबोध जिस संकट को ‘अंधेरे में’ महसूस रहे थे, उसे संभव करने में वे “अपनी” चेतना का योगदान भी याद कर रहे थे। “आलोचक राष्ट्र के निर्माण में विफलता” सब का साझा है, खासकर बौद्धिकों का।
इस विफलता में बात केवल बाहर के दबावों की नहीं, मुक्तिबोध द्वारा याद दिलाये गये ‘आंतरिक सेंसरों’ की भी है। लेखकों-बौद्धिकों के बीच ऐसे सेंसर इस समय जितने प्रभावी और सक्रिय हैं, उतने क्या पहले भी थे? इन्हीं सेंसरों के कारण, अवतारियों के लिये पांवड़े बिछाने में भी उनकी हिस्सेदारी काफी ज्यादा है, जिनसे उम्मीद की जाती है, मानवात्मा के शाश्वत सवालों को किसी क्षण-विशेष में शब्द देने की। भीड़ नहीं, मनुष्यों के समूह को नागरिकों के समुदाय में बदलने की….
“राह हमीं ने खोली है,
पांवड़े बिछाए हैं
यह मान कि जो आयेगा
अवतारी होगा: एक नया कृतयुग लायेगा”।
अवतारों की प्रतीक्षा में सबसे आगे वे ही हैं, जिनके होने की सार्थकता को सिद्ध ही होना चाहिए, आलोचक राष्ट्र के निर्माण से। लेकिन ऐसे निर्माण के तो बुनियादी घटक ही नकार दिये गये हैं। व्यक्तिसत्ता का आग्रह, नागरिक दायित्व का आग्रह, मानवीय मूल्यों के प्रतिमान,विवेक—यह सब पिछड़ेपन के द्योतक मान लिये गये हैं। न्याय, अस्मिता, संस्कृति, सभ्यता, प्रगति—इन सभी शब्दों की दुर्गित हो रही है। कुछ लोग दुर्गति कर रहे हैं, कुछ लोग इन दुर्गतिरत लोगों के गुण गा रहे हैं। इतिहास के अंत की घोषणाएं हो चुकी हैं, सभ्यताओं को संवाद नहीं, सिर्फ और सिर्फ संघर्ष की स्थली बताया जा रहा है। बात की तलवार का नहीं, चालू फैशन की म्यान का मोल करना ही, इस समय ‘इंटेलेक्चुअल पेज थ्री’ में इनथिंग है।
“लौटती पगडंडियां” की भूमिका में, भारत-विभाजन के दौर को अज्ञेय ने “मानवमूल्यों के स्थगन का समय” कहा था। उस दौर के कोई साठ साल बाद “मूल्यों के स्थगन” को स्वयं एक मूल्य का दर्जा मिल गया है। सांस्कृतिक अस्मितावाद से जुड़े नैतिक सापेक्षतावाद को अभूतपूर्व बौद्धिक स्वीकृति प्राप्त है। हर अस्मिता का अपना नैतिक बोध है, और किसी भी ऐसे प्रतिमान की बात करना, जिस पर ये बोध जाँचे जा सकें, ‘प्रतिक्रियावाद’ मान लिया गया है। जिनसे उम्मीद की जाती है कि वे ऐसे सार्वभौम नैतिक प्रतिमानों को रूपाकार दें, वे ही अस्मितावाद और नैतिक सापेक्षतावाद की दुंदुभियां बजा रहे हैं। बौद्धिक समुदाय की इसी नैतिक अपंगता के कारण “वे” आए हैं, और “मानवीय मूल्यों के स्थगन” को ही केंद्रीय मूल्य बनाते हुए आए हैं। उनके द्वारा की गयी हिंसा से कहीं अधिक विषैला यह स्थगन ही वह सर्प-रक्त है जो “जहाँ गिरेगा मट्टी हो जाएंगी मानव कृतियाँ”।
इस सर्प-रक्त की वर्षा के सामने अधिकांश लोगों ने धृतराष्ट्र बनना पसंद किया है, जब कुछ लोग धृतराष्ट्र-भाव अंगीकार कर लें, तो कुछ क्या, काफी लोगों का लोहे के पुतलों में बदल जाना भी स्वाभाविक ही है। सुमन केशरी की कविता ‘लोहे के पुतले’ की पंक्तियाँ याद आती हैं-
कोई नहीं देखता इस समर को
छोड़ धृतराष्ट्र के
जिसकी भुजाएँ मचल रही हैं भीम का आलिंगन करने को
हाड़ माँस का इंसान वैसे भी
कोई कहाँ बचा
सभी लोहे के पुतलों में बदल गए हैं।
फिर उस चेतावनी की ओर चलें-‘वे तो फिर आयेंगे’। कविता आरंभ ही होती है, स्मृति-लोप से-
लेकिन वे तो फिर आयेंगे
फिर रौंदे जायेंगे खेत
ऊसरों में फिर झूमेंगे बिस खोपड़े, सँपोले
स्मृतियाँ बनी हुई हैं, हाँ
पर भोगी थी यातना जिन्होंने
वे तो चले गये हैं।
स्मृति भी है यातना—
या कि हो सकती है—पर…
अज्ञेय जब यह लिख रहे थे, तब स्मृतियाँ बनी हुई थीं। भारत के स्वाधीनता संग्राम की, दूसरे महायुद्ध की, औपनिवेशिक लूट की, और इस कविता की रचना के कुछ ही पहले के 1975, 1977 (और शायद 1984 की भी)। लेकिन हमारे वर्तमान में, “साधारण” जनों की तो छोड़िए, बौद्धिक समुदाय के चित्त में भी इन सब की, और इन के बाद की स्मृतियों के लिए कितनी जगह बाकी बची है? या और बहुत सी चीजों के साथ स्मृतियों के लिये भी यह बेदखल होने का ही वक्त है?
विनोद कुमार शुक्ल की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहता हूँ-
यह वही समय है
जब आकाश से पहले
एक तारा बेदखल होगा
जब एक पेड़ से पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चाँदनी
बेदखल होगी-
जब जंगल से आदिवासी
बेदखल होंगे
जब कविता से एक एक शब्द
बेदखल होंगे।
ऐसे बेदखल समय में, ऐसे स्मृति-लोप की स्थिति में यह चेतावनी और भी मार्मिक है, स्मृति बनी हो, तब भी इसकी मार्मिकता कम नहीं होती-
वे फिर आयेंगे:
सुन्दर होंगे
सुन्दर यानों पर सवार दीखेंगे
दस हाथ उनके सम्वेदन भरी उँगलियों से
कर सकते होंगे सौ सौ करतब
पर जबड़ों से उनके टपक रहा होगा
जो सर्प रक्त
वह जहाँ गिरेगा
मट्टी हो जायेंगी मानव कृतियाँ
कुकुरमुत्ते के भीतर भरी
भुरभुरी राख सरीखी
साँस घोंटती
एक लपट उठ
बन जायेगी एक प्रेत की चीख़
गुँजाती नीरव शत संसृतियों के गलियारे।
इन पंक्तियों में ‘सुन्दर’ और ‘सम्वेदन भरी’ पदों का प्रयोग जबर्दस्त विडंबना की सृष्टि करने के कारण तुरंत ध्यान खींचता है। अंतिम पंक्तियाँ याद दिलाती हैं—आगे आने वाले ‘ऐतिहासिक फैसले’ के नाम पर, ऐन उस वक्त जब सर्प रक्त की बारिश हो रही हो, नैतिक निर्णय को टाला नहीं जा सकता। इस समय जो हो रहा है, वह आगे आने वाले ‘धरा पर स्वर्ग’ के निर्माण के लिये, “कृतयुग” लाने के लिये जरूरी है, ऐसा मान कर चुप्पी साधने वाले भी, और “सौ सौ करतबों” का गुणगान करने वाले भी, अभिशप्त हैं, ऐसी प्रेतयोनि के लिये, जिसकी चीखें बस “नीरव शत संसृतियों के गलियारों’ में गूँजती रह जाएँ।
अज्ञेय ‘शेखर: एक जीवनी’ में हिंसा पर गंभीर विचार करते हैं। ‘रिवोल्यूशनरी, निर्वैयक्तिक’ घृणा, और इतिहास की गति को आगे बढ़ाने के लिये ‘अनिवार्य’ राजनैतिक हिंसा के तर्क को उस उपन्यास में शेखर ही शब्द देता है, “ इष्ट के लिये की गयी हत्या हिंसा नहीं, बशर्ते इष्ट व्यक्ति का नहीं, सृष्टि मात्र का हो”।
ऐसे ही इष्टों के नाम पर सर्परक्त की अनेक बारिशों को स्वाभाविक ही नहीं, जरूरी भी ठहराते हुए उनका औचित्य-निरूपण ‘शेखर’ के पहले और बाद में हजारों बार किया गया है। यह कविता ऐसे औचित्य-निरूपणों के औचित्य पर पुनर्विचार का प्रस्ताव करती है। इस औचित्य-निरूपण का, बौद्धिकों द्वारा “पाँवड़े बिछाने” का कारण वही स्वाधीनता का भय है, जिसके कारण-
राह हमीं ने खोली है, पाँवड़े बिछाए हैं
यह मान कि जो आयेगा
अवतारी होगा: एक नया
कृतयुग लायेगा
“अवतारी” – बोलचाल की हिन्दी में इस शब्द की एक व्यंजना खुराफाती, बल्कि दुष्ट की भी है। “अवतारी” लोगों से उचित दूरी बरतने की सलाह समझदार लोग देते आए हैं। “अवतार” और चीज है, “अवतारी” और चीज। कविता यही बता रही है- जिन्हें अवतार समझ बैठे हैं, उनमें से अनेक अवतार नहीं, अवतारी ही हैं।
कवि-व्यक्ति ने शायद इस आशय में “अवतारी” शब्द का प्रयोग नहीं किया है, वरना अगली ही पंक्ति में “कृतयुग” शब्द न आता। लेकिन इस शब्द ने इस पाठक की स्मृति में अवतारी की वे व्यंजनाएं गुँजा जरूर दी हैं, जो पढ़े-लिखों की भाषा से बेदखल हो चली हैं। इस गूँज ने अपना वर्तमान पूरी शिद्दत से पढ़वा दिया—दशकों पहले लिखी गयी इस कविता में।
शब्द है ‘कृतयुग’, किसी असावधान कवि के यहाँ ‘सत्ययुग’ भी हो सकता था। मोटे तौर पर एक ही परिघटना को सूचित करने वाले इन दोनों शब्दों की व्यंजना में अंतर है। हर अवतारी यह दावा करता ही है कि वह एक नया युग लाने वाला है। युग उसकी कृति है, जरूरी नहीं कि दावा सत्य भी हो। अज्ञेय ने “अवतारी” शब्द का प्रयोग “अवतार” से कुछ भिन्न अर्थ में किया हो, या अवतार के पर्याय के तौर पर ही, अवतारी और कृतयुग दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग कविता में विन्यस्त अवसाद और विडंबना को गहनतर अर्थ अवश्य दे देता है।
व्यक्तिगत रूप से, मेरे लिये यह कविता उस प्रतिमान को फिर से रेखांकित करने वाली भी है, जिस पर जाँचना है, खुद को, जिंदगी के बाकी बचे बरसों को….