युवा कथाकार आशुतोष भारद्वाजइन दिनों अपने अखबार के असाइनमेंट पर छत्तीसगढ़ के उन इलाकों में रह रहे हैं जिन्हें ‘नक्सल प्रभावित क्षेत्र’ कहा जाता है. खौफ, संशय, हिंसा के साये में जीता वह समाज किस तरह बदल रहा है इसकी कुछ टीपें उन्होंने अपनी डायरी में दर्ज की हैं. नाम दिया है ‘नक्सल डायरी’. एक अलग ही दुनिया है, कथाकार-पत्रकार की सूक्ष्म दृष्टि. आइये पढते हैं- जानकी पुल.
तेईस अगस्त। गाँव भद्रकाली, बीजापुर जिला।
कार, बाइक फिर नाव में चल आंध्र प्रदेश की सीमा छूते इन जंगलों तक पहुंचा जहाँ उन्नीस अगस्त को नक्सल हमले में ग्यारह जवान और दो सिविलियन फौत।
वह यहाँ मुझसे बतौर पुलिस मुखबिर मिला। मुझे थाने ले गया। सिपाहियों से मेरा परिचय कराया। जंगल, पहाडि़यों से घिरे इस कस्बे के फारेस्ट रैस्ट हाइस में मेरे ठहरने का इंतजाम भी। मुझे किसी भी खतरे से बेफिक्र रहने को आश्वस्त कराया। दूसरी शाम उसके साथ और उसके चश्मे के पीछे लकीरें बदलने लगीं। आवाज की रंगत भी। घृणा के सीमांत पर टिकी खाकी के प्रति उसकी वितृष्णा बाहर आ लपलपायी। इस मर्तबा वह मुझे पुलिस का सताया जबरन मुखबिर बनाया गया कोई स्थानीय लगा। न मालूम कितने आदिवासी कह चुके थे उन्हें पुलिस ने जबरदस्ती मुखबिर बनाया।
लेकिन नहीं। उसकी आवाज, उसके चेहरे की ही तरह, दोरंगी थी। वह थानेदार के सामने उसका खास आदमी था और अब उसकी अंतडि़यां ‘भाई नक्सलियों’ के लिये कसक रहीं थीं। उसे जंगल में जाने के सभी रास्ते मालूम थे जिन्हें वह मुझे दिखाता था और जंगल में नक्सलियों के बीच उसे चचेरे भाई सिपाहियों की याद आने वाली थी।
वह इस प्रजाति का ऐसा अकेला नहीं था।
सही है किसी मुखबिर या जासूस के दोनो कैंप में संपर्क-संबंध होते हैं, दोनो गुटों में गहरे तक पगा-धंसा वह उनसे दाना-पानी, हफ्ता-महीना लेता है लेकिन उसका वैचारिक-भावनात्मक जुड़ाव निश्चित है। किसी एक गुट का ही मूल नागरिक वह, पहले की गुप्त सूचनायें दूसरे को देता है। बस्तर में लेकिन एक विचित्र प्रजाति उपज रही है जो दोनो तरफ का गोश्त निगलती है लेकिन दोनो की सौतेली है, दोनो को ही डंक मारती है। इंसान एक, चेहरे और जुबान दो। पुलिस का नक्सलियों को दबोच पाना या नक्सलियों का पुलिस पर छापामार हमला इसकी ही गुप्त सूचना का फलन है। फरेब की नुकीली लकीर पर सरकता यह मुखबिर जिस दिन जिधर पीठ दिखा डकार लेता है, वहां कुछ जान कम हो जाती हैं।
खतरा इसलिये दोहरा इसके लिये। दोनो गुटों का गोश्त चबाता यह मुखबिर खंजर की धार पर चहकता-चमकता है। जिस दिन इसकी पहचान खुली, दो रंगों की गोलियां इसे कतर डालेंगीं। इसके बावजूद यह इस खूंखार खतरे को साधे फिर रहा है। क्या यह लालची है ‘मक्कार’ ‘दगाबाज’ या एक ‘बेफिक्र जांबाज’
नहीं, यह महज जान बचाना चाह रहा है। दो गुटों के दंगल में फंसा जंगल में रहता यह आदिवासी जानता है दिग्गजों की लड़ाई में पिसेगा-मरेगा महज यह ही। पुलिस और नक्सल दोनो ही इससे जबरदस्ती सूचना लेते हैं। उसे हुक्मे हाकिम की तामील करनी ही पड़ेगी। यही तामीले हुक्म इससे दुतरफा फरेब रचवाती है।
हथियार लिये घूमते खाकी-लाल सेनापति बेचारे नहीं जानते उनकी सेना और उनका जीना-मरना किस हद तलक इस गैर-सैनानी के ‘मूड’ पर टिके हैं। दो प्रेमिकाओं के बीच जीता यह जिस रात जहां मन हो उस बिस्तर पर गुजार देता है, दूसरी को पता भी नहीं चल पाता।
किसी को यह भी नहीं मालूम बस्तर में एक पूरी प्रजाति का स्नायु-संविधान बदल रहा है, फरेब उनकी जैविकीय जरूरत बनता जा रहा है।
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एक सितंबर। झारखंड के सीमांत पर सरगुजा जिले का एक गांव।
उसकी पांच सहेलियां थीं — सुखिनी, सुकता, सुरीली, भूतनी, लड़गुदनी। नाम उसने ही दिये थे। पांचवीं के बाद ही उसने मां-पिता से कह दिया स्कूल खत्म, अब सखियों संग कनहर नदी किनारे खेलूंगी। अब वह नहीं है, वे पांचों उसकी बारह वर्षीया बहन को घेर खड़ी हैं। उनकी झोंपड़ी के पीछे चुनचुना की पहाडि़यां और अबूझा जंगल। जिम्मेदारी अब छुटकी की है, उसे नहीं मालूम बड़ी बहन की सखियां उसकी दोस्त बन पायेंगी या नहीं। इस साल बरसात बहुत हो रही है। झोंपड़ी एकदम तर। लेकिन वे भूखी हैं और छोटी बहन छाता ले बकरियों को चराने निकल जाती है।
झोंपड़ी के बाहर उसके माता-पिता।
— पहले उन्होंने उसे मार डाला। फिर कहा वो नक्सली है और अब वे मेरी बेटी को चरकटी बतलाते हैं।
कभी साढ़े पांच फुट का रहा होगा उसका पिता देखने से लगता है हर साल एक इंच खोता जा रहा है। मां शायद शुरु से ही अधखुली-अधबंद पोटली की तरह जीती आयी होगी। उनकी झोंपड़ी के बाहर गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवार की सरकारी मोहर लगी है। जंगल के बीच उनकी झोंपड़ी से दूसरा घर तकरीबन पांच सौ मीटर। चुनचुना की पहाडि़यां नक्सलियों की ‘लिबरेटिड जोन’। इन घरों ने अभी पंखा नहीं देखा।
दो महीना पहले अपने घर से तकरीबन चार किलोमीटर दूर पुलिस की दो गोलियां लगीं थीं उसे, रात के तीन बजे — एक छाती पर, दूसरी कमर से नीचे। पुलिस ‘पैंतीस नक्सलियों का जत्था’ पकड़ने निकली थी और रात के तीन बजे हुये एनकाउंटर में उन्हें ‘सिर्फ वह’ मिली थी। ‘पैंतीस नक्सलियों’ को दबोचने के लिये महज तीन गोलियां चलीं जिनमे से दो ने उसे खत्म किया। सिर्फ उसका गांव ही नहीं, बीस किलोमीटर दूर तक के गांवों के निवासी हलफ उठाते हैं वह नक्सली नहीं थी — पहले बलात्कार फिर ‘एनकाउंटर’। उस रात एनकाउंटर को निकले सभी पच्चीस सिपाही लाइन अटैच्ड।
मैडीकल रिपोर्ट उसके अंगों और कपड़ों पर ताजे वीर्य के निशान की पुष्टि करती है।
इस प्रदेश का एक बड़ा मंत्री, जो लड़की की तरह ही आदिवासी, मुझसे ‘आन रिकार्ड’ कुछ और कहता है — ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहती तो है वह ‘आदी’ थी। अगर इतने सारे पुलिसवालों ने कुछ किया होता तो सूजन नहीं आती’ रात तीन बजे किस से मिलकर आ रही थी वह’
चार पन्नों की रिपोर्ट मेरे सामने है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट का काम महज इतना कि चोट की वजह-स्थिति और चोट का मृत्यु से संबंध बतलाये। चोट के कालम में सबसे नीचे, तारांकित कर जबरन घुसेड़ी गयी प्रविष्टि में सात शब्द। आज तक कोई पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं देखी-सुनी जो मृतक के तथाकथित यौन व्यवहार का साक्ष्य दे और निर्णय भी सुना दे — हैविंग डायलेटिड वैजाइना। हैबिच्युअल अबाउट सैक्सुअल इंटरकोर्स।
पोस्टमार्टम करने वाला डाक्टर, वह भी आदिवासी, टटोले जाने पर बतलाता है समूचे पोस्टमार्टम की वीडियो रिकार्डिंग हुई है कि विवाद न हो और वह मुझे सीडी भी उपलब्ध करवा सकता है।
क्या यह वाकई हुआ है या पासोलिनी की सालो का कोई असंपादित टुकड़ा है?
इसी रिपोर्ट के अनुसार वह महज पंद्रह साल की थी। रिपोर्ट में, हाँ, ‘महज’ का जिक्र नहीं है।
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तेरह सितंबर, दंतेवाड़ा।
देह पर नक्काशी की तरह साथ चलती दो स्मृति — मौंटेना का लैंडस्केप और बंबई की बरसात — यहां आने के महज पंद्रह दिन में ही धुल गई हैं। बेबाक, बेलौस बरसात। धूप में भी बूंदों को चैन नहीं। चुंगकिंग एक्सप्रैस की नायिका रेनकोट के साथ ग्लेयर्स शायद ऐसी ही जगहों पर पहनती होगी। कई मर्तबा बूंद इतनी बारीक अगर देर तक किसी बिंदु पर न ठहरे रहो तो मालूम भी न चले, घर लौट देह गीली देख चैंक जायें आखिर कहां भीगे थे।
और लैंडस्केप जंगल, जलप्रपात, हरी पहाडि़यां। मीलों चलते जाओ कोई आहट नहीं बस्तर के जंगलों में। हर कदम को टोकती-टटोलती नदियां, धारायें। बड़े जबरदस्त नाम इनके — डंकिनी, शंखिनी, उदंती, तालपेरू। गंगा, यमुना, नर्मदा मैया ही हो सकती थीं। उनके नाम में ही डूबा आदर। डंकिनी लेकिन कमबख्त प्रेमिका ही होगी। गंगा में आप डुबकी लगा पाप धोने जाओगे, डंकिनी डसेगी, ललचायेगी, आकुल-व्याकुल, तृषाकुल बनायेगी। शंखिनी शंख बजा बुलायेगी। अभिसारिका। यहां के निवासियों ने अपनी नदियों को यह नाम इसलिये ही दिये होंगे। इस भूगोल की देह संग सिर्फ प्रेम और उन्माद ही संभव।
सबसे कंटीली-कातिल नदी — जोंक। एक बार डुबकी लगाई, बदन से हमेशा को चुपक गयी। किसी दूसरे ठौर जायेगी, न जाने-जीने देगी। डटकर खून चूसेगी। बर्रैया और ततैया भी नदी होंगी यहां।
शायद इस उन्मादे जंगल को ही बंदूक और कत्ल का इतिहास होना था। इन्हीं आदिम वृक्षों पर मोर्चे और मचान बंधी जानी थी।
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पंद्रह सितंबर।
वह नक्सल प्रभावित एक जिले का कलक्टर है। महज उन्तीस। पिछली दो शाम उसने जिद कर खाने पर बुला लिया, देर तक उसके साथ। कोई हुमकता बच्चा अपनी चीजें दिखाता है, वह उन योजनाओं के बारे में बताता रहा उसने आदिवासी और नक्सल हिंसा में अनाथ हुये बच्चों के लिये शुरु की हैं। अनाथ बच्चों के लिये इक्कीस करोड़ का स्कूल-हास्टल। विज्ञान के विद्यार्थियों के लिये मैडीकल-इंजीनियरिंग की फ्री कोचिंग और एक हास्टल। उसे यहां आये कुछ महीने ही हुये हैं। उसकी पहली कलक्टर पोस्टिंग। इस जिले में कोई सिनेमा हाल नहीं था, उसने पंद्रह दिन में धांसू आडिटोरियम बनवा दिया जहां वह रोज दूर गांवों से सरकारी गाडि़यों में आदिवासी बच्चों को बुलवाता है, उनके लिये फिल्म शो, जिला कार्यालयों की सैर, अधिकारियों से मुलाकात कि उनके भीतर प्रशासन के प्रति बैठा संदेह और डर दूर हो। एक चमाचम लाइब्रेरी भी।
‘‘मैं इस इलाके को बदल दूंगा। दिल्ली यूनिवर्सिटी के हास्टल से हर साल मसूरी अकादमी के लिये बस जाती है, इंजीनियरिंग और मैडीकल कालेज के लिये यहां से आदिवासी विद्यार्थियों की बसें जाया करेंगी।‘ उसकी आंखें चमकती हैं। हम उसके लान में लगी छतरी के नीचे। अंधेरे में बरसती बूंदें।
— मुझे जंगल में किसी ने बतलाया तुम नक्सलियों की हिट-लिस्ट में हो।
— हां…और मेरे मुखबिरों ने बतलाया कि तुम उनकी लिस्ट में हो। वह हॅंसने लगा।
वह मलकानगिरि के उसी कलैक्टर का बैचमेट है जिसका कुछ समय पहले नक्सलियों ने अपहरण किया था।
रात बारह जब मैं लौटने लगा उसने अपने गनमैन से कहा मुझे सर्किट हाउस तक छोड़ कर आये। हमने एक-दूसरे को भींच लिया — तू संभल कर रहना। खतरा बहुत है यहां। कोई बात हो तुरंत बतलाना।
शाम की शुरुआत हमने ‘आप’ से की थी न मालूम कब ‘तुम’ और फिर ‘तू’ पर आ गये थे।
ईमान, ख्वाब और जज्बात से लबरेज किसी इंसान से मिलकर ही शायद केदारनाथ सिंह ने लिखा होगा उसका हाथ/ अपने हाथ में लेते हुये मैंने सोचा/ दुनिया को/ हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिये।