आज वर्तिका नंदा की कविताएँ. वर्तिका नंदा हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता का जाना-माना नाम है, लेकिन वह एक संवेदनशील कवयित्री भी हैं. स्त्री-मन उनकी कविताओं में कभी सवाल की तरह प्रकट होता है, कभी उनमें अनुभव के बीहड़ प्रकट होते हैं. उनका अपना मुहावरा है, अपनी आवाज़- जानकी पुल.
कुछ जिंदगियां कभी सोतीं नहीं
कुछ शहर कभी नहीं सोते
जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोतीं नहीं
जैसे सड़कें जागती हैं तमाम ऊंघती हुई रातों में भी
कुछ सपने भी कभी सोते नहीं
वे चलते हैं
अपने बनाए पैरों से
बिना घुंघरूओं के छनकते हैं वे
भरते हैं कितने ही आंगन
कुछ सुबहों का भी कभी अंत नहीं होता
आंतरिक सुख के खिले फूलदान में
मुरझाती नहीं वहां कोई किरण
इतनी जिंदा सच्चाइयों के बीच खुद को पाना जिंदा, अंकुरित, सलामत
कोई मजाक है क्या
सपने
इस बार सपने पलकों से सरकाए
सीधे हथेली पर उतार दिए
सहलाया, पुचकारा
यक़ीन हुआ तितली से रंग-बिरंगे नाज़ुक ये सपने
मेरी अपनी ही पैदाइश थे
सपने फड़फड़ाने लगे
तो उन्हें तकिए पर रखा
ख़ुशबू आने लगी
लगा उग आए सैंकड़ों रजनीगंधा
सपनों ने हौले से बालों को सहलाया
लगा मेरे साथ उत्सव मनाने चले हैं
लगा दूर दिखती घाटी में
टिमटिमा उठे हैं जुगनुओं के मेले
आज की रात दावत भी सपनों की ही थी
रात की रानी, हरसिंगार, गुलाबों के डेरे
ख़ुशियों के प्याले इतने छलके
इस क़दर छलके
सुबह का आना तो पता न चला
अगली रात की दस्तक बड़ी अखरी
चौरासी हजार योनियों के बीच
सहम-सहम कर जीते-जीते
अब जाने का समय आ गया।
डर रहा हमेशा
समय पर काम के बोझ को निपटा न पाने का
या किसी रिश्ते के उधड़या बिखर जाने का।
उम्र की सुरंग हमेशा लंबी लगी– डरों के बीच।
थके शरीर पर यौवन कभी आया ही नहीं
पैदाइश बुढ़ापे के पालने में ही हुई थी जैसे।
डर में निकली सांसें बर्फ थीं
मन निष्क्रिय
पर ताज्जुब
मौत ने जैसे सोख लिया सारा ही डर।
सुरंग के आखिरी हिस्से से छन कर आती है रौशनी यह
शरीर छूटेगा यहां
आत्मा उगेगी फिर कभी
तब तक
कम-से-कम, तब तक
डर तो नहीं होगा न!
इस मरूस्थल में
उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी
आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर
बाहर आना मुमकिन न था
मन का मौसम कभी भी रूनझुन हो उठता
उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी
आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था
उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी
जो शरीर से संवाद करते थे
उन दिनों सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून
सब अपने थे
उन दिनों जो था
वह इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है
चाबी मिलती नहीं
डॉ वर्तिका नन्दा– मीडिया यात्री, मीडिया शिक्षक और अपराध पत्रकारिता में एक नाम। दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में अध्यापन। इससे पहले 2003 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली में तीन साल तक एसोसिएट प्रोफेसर (टेलीविजन पत्रकारिता)। पीएचडी बलात्कार और प्रिंट मीडिया की रिपोर्टिंग को लेकर किए गए शोध पर । 10 साल में जालंधर दूरदर्शन की सबसे कम उम्र की एंकर बनीं। टेलीविजन के साथ पूर्णकालिक जुड़ाव 1994 में ज़ी टीवी से, फिर करीब 7 साल तक एनडीटीवी में काम, अपराध बीट की प्रमुखता। लोकसभा टीवी में बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर चैनल के गठन में निर्णायक भूमिका। संसद से सड़क तक जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की एंकरिंग। सहारा इंडिया मीडिया में बतौर प्रोग्रामिंग हेड नियुक्त.
प्रिंट मीडिया में इस समय त्रैमासिक मीडिया पत्रिका कम्यूनिकेशन टुडे
की एसोसिएट एडिटर।
प्रशिक्षक के तौर पर 2004 में लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए पहली बार मीडिया ट्रेनिंग का आयोजन। आपात स्थितियों में मीडिया हैंडलिंग पर कई वर्कशॉप्स का आयोजन।
अब तक 5 किताबें प्रकाशित। राजकमल प्रकाशन से 2011 में मरजानी और 2010 में टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग का प्रकाशन। 2007 में आईआईएमसी से प्रकाशित किताब – टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता को भारतेंदु हरिश्चंद्र अवार्ड। 2007 में ही सुधा पत्रकारिता सम्मान। 2009 में मीडिया और जन संवाद का सामयिक से प्रकाशन। 1989 में पहली किताब (कविता संग्रह) मधुर दस्तक का प्रकाशन। एनसीईआरटी के तहत 11वीं कक्षा के लिए मीडिया पर छप रही किताब में मीडिया पर एक अध्याय का समावेश। ..
बतौर मीडिया यात्री 2007 में जर्मनी, 2008 में बेल्जियम और 2011 में लंदन की यात्रा। 2008 में कॉमनवेल्थ ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन का चेंज
मैनेजमेंट कोर्स।
फिलहाल मीडिया ट्रेनिंग में रूचि। इन दिनों मीडिया और धर्म पर एक नए प्रयोग पर काम। संपर्क- www.vartikananda.blogspot.com, nandavartika@gmail.com
फोन – 91- 9811201839
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