यह कवि नागार्जुन की जन्मशताब्दी का साल है. इससे याद आया कि उन्होंने विद्यापति के गीतों का हिंदी में अनुवाद किया था. आज प्रस्तुत है विद्यापति के मूल पदों के साथ बाबा नागार्जुन के अनुवाद- जानकी पुल.
१.
सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोय.
सेह पिरिति अनुराग बखानिय तिल-तिल नूतन होय.
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल
सेहो मधुर बोल स्रवनही सूनल स्रुति पथ परस न गेल
कत मधु-जामिनी रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि
लाख लाख जुग हिय हिय राखल तइयो हिय जरनि न गेल
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहू न पेख
बिद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मिलल एक.
नागार्जुन का अनुवाद– सखी, अनुभव की बातें मुझसे क्या पूछती हो?
उस प्रीति और अनुराग का बखान कैसे करुँगी! वह तो तिल-तिल करके नया होता जाता है, पुराना पड़ ही नहीं सकता.
जीवन भर हमने उस रूप को निहारा, आँखें नहीं भरीं. और वे मीठे बोल कानों से सुनती रही, मगर कान प्यासे ही बने रहे.
बसंत की कितनी रातें रंगरेलियों में गुज़ार दी, फिर भी पता नहीं चला कि काम-केलि क्या होती है! लाख-लाख युग उसे ह्रदय के अंदर रखा, फिर भी ह्रदय की जलन न गई! कितने ही रसिक जन रस का उपयोग करते हैं. परन्तु वे उसको समझ नहीं पाते, न देख पाते हैं.
विद्यापति का कहना है- “प्राणों को जुडाने के लिए लाख में एक भी नहीं मिला.”
२.
कि कहब हे सखि आजुक रंग. सपनहि सूतल कुपुरुष संग.
बड सुपुरुख बलि आएल धाई. सूति रहल मोर आँचल झंपाई.
कांचुली खोलि आलिंगन देल. मोहि जगाए आपु निंद गेल.
हे बिहि हे बिहि बड दुःख देल. से दुःख रे सखि अबहु न गेल.
भनई बिद्यापति एह रस धन्द. भेक कि जान कुसुम-मकरंद.
नागार्जुन का अनुवाद– सखी, आज रात अच्छा खिलवाड़ रहा. जाने कैसा भुच्चड मर्द सपने में मेरे साथ सोया!
अच्छे-भले आदमी की तरह पास आया और मेरे आँचल में अपना मुँह छुपाकर मेरे पास लेट गया. पहले तो उसने मेरी अंगिया खोली फिर वह मुझसे चिपट गया. वह मूर्ख मुझे जगाकर खुद सो गया.
हाय रे दैव, हाय रे दैव ! उसने मुझे कितना दुःख दिया! सखी वह दुःख मैं अब भी भूल नहीं पाई हूँ.
विद्यापति कहते हैं- “यह तो रस नहीं, रसाभास हुआ. कुसुम के मकरंद की असलियत मेंढक क्या जाने.”
३.
जुगल सैल-सिम हिमकर देखल एक कमल दुई जोति रे.
फुललि मधुर फुल सिंदुर लोटा इलि पाँति बईसलि गज-मोति रे.
आज देखल जत के पतिआएत अपूरब बिहि निरमान रे.
बिपरित कनक-कदलि-तर सोभित थल-पंकज अपरूप रे.
तथहु मनोहर बाजन बाजए जागए मनसिज भूप रे.
भनइ विद्यापति पुरबक पुन तह ऐसनि भजए रसमंत रे.
बुझए सकल रस राजा सिवसिंह लखिमा देइ केर कन्त रे.
नागार्जुन का अनुवाद– दो पर्वतों की सीमा पर मैंने चांद देखा है. कमल के एक ही फूल में मैंने दो आलोक देखे हैं.
खिले हुए लाल फूल सिन्दूर में सन गए. गजमुक्ता के दाने दो पंक्तियों में जमे बैठे हैं…
आज जितना जो कुछ देखा, भला किसे विश्वास होगा? विधाता की अनूठी सृष्टि थी वह…
कनक-रचित कदली स्तंभ उल्टे शोभित थे(उनका पतला हिस्सा नीचे था, मोटा ऊपर). नीचे दो थल-कमल(चरण) थे. वहां मनोहर वाद्य बज रहा था(पायल छमक रही थी). यह आवाज़ मानो महाराज कामदेव को जगाने के लिए थी…
विद्यापति कहते हैं- “पूर्व जन्म का संचित पुण्य हो, तभी रसिक व्यक्ति इस प्रकार की युवती पा सकता है… लखिमा देवी(रानी) के पति राजा सिवसिंह ही इन गीतों का मर्म जानते हैं…”
४.
ससन-परस खसु अम्बर रे देखल धनि देह
नव जलधर-तर चमकए रे जनि बिजुरी-देह
आज देखलि धनि जाइते रे मोहि उपजल रंग
कनक-लता जनि संचर रे महि निर अवलंब.
ता पुन अपरुब देखल रे कुच-जुग अरबिंद
बिगसित निह किछु करन रे सोभाँ मुख-चंद
विद्यापति कवि गाओल रे रस बुझ रसमंत
देवसिंह नृप नागर रे हासिनी देइ कान्त.
नागार्जुन का अनुवाद– हवा लगी तो कपड़े सरक गए. मैंने सुंदरी की देह देख ली. ऐसा लगा कि नए बादल की ओट में बिजली की लकीरें जगमगा उठी हैं.
मैंने आज उसे राह में देखा. मेरे अंदर अनुराग उमड़ आया. मुझे लगा, बिना किसी सहारे के धरती पर कनकलता टहल-बूझ रही है. फिर एक बात यह भी अनोखी देखी कि दोनों उरोज उरोज नहीं थे, कमल थे. मगर वे खिले क्यों नहीं थे?
इसलिए नहीं खिल पा रहे थे कि सामने पूरा चांद-मुखडा था.
विद्यापति ने गाया- “रसिक जन ही इसका मर्म समझेंगे. हासिनी देवी के प्राणवल्लभ राजा देव सिंह बड़े रसिक हैं.”
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘विद्यापति के गीत’ नामक पुस्तक सत्यानन्द निरुपम के सौजन्य से प्राप्त हुई.