पाकिस्तान के लेखक हसीब आसिफ के इस लेख की तरफ ध्यान दिलवाया मित्र कवि गिरिराज किराडू ने. जिन्होंने इसे http://hillele.org पर पढ़ा. और वहां यह काफिला से साभार लगा है. सबसे साभार अब आप इसे यहां पढ़िए. क्या व्यंग्य है?- जानकी पुल.
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यहां के लोग कुदरत की तमाम नेअमतों से अरास्ता हैं। खूबसूरत झीलें, खुले मैदान, धूल, मिट्टी, शोर-ओ-गुल, सब कसरत से पाए जाते हैं। कोयला इतना है कि जब दुनिया के ज़खीरे खत्म हो जाएंगे, तो तब भी मुमलिकत-ए-खुदादाद में चूल्हे जलते रहेंगे, गाड़ियां चलती रहेंगी, कारख़ानों में रोज़गार होगा, बिजली होगी, खुशहाली होगी। अभी क्यूंकि दुनिया के ज़खीरे खत्म नहीं हुए, इसलिए ये चीज़ें यहां मौजूद नहीं।
पाकिस्तान की थोड़ी बदकिस्मती ये है कि इसके चारो तरफ दुश्मन मुमालिक बसे हुए हैं, एक तरफ बलूचिस्तान, एक तरफ सिंध और एक तरफ सल्तनत –ए-मुनकरीन-ए-हिंद।
बैरूनी साजिशों की वजह से पाकिस्तान दुनिया में अब तक वो मुक़ाम हासिल नहीं कर पाया है जो किसी भी सुन्नी रियासत का खुदाई हक़ है। यही वजह है कि मुल्क़ की दिफा के लिए, हर साल, सिपाह सालार को क़ौमी खज़ाने का आधा हिस्सा सौंप दिया जाता है। बाकी आधा वो ख़ुद ही ले जाते हैं। पर फौज के अंथक इख़राजात के बावजूद कई बरसों से हिंदू सम्राज्य हमारे दरियों से पानी चुराए जा रही है, सतलज को तो क़ैद ही कर रखा है। इस सिलसिले में अक़वाम-ए-मुत्ताहेदा (यूएनओ) में दरख्वास्त दर्ज है।
हदूद अरबा
आपने ग़ौर किया होगा कि दूसरे मुल्कों की निस्बत पाकिस्तान को दुनिया के नक्शों पर ख़ासा छोटा दिखाया जाता है। हालांकि उसी नक्शे पर चीन मशरिक की हद तक और रूस बेग़ैरती की हद तक फैला हुआ है। पर पाकिस्तान ऐसा है कि बीच में दिखाई ही नहीं देता। हक़ीकत इसके बिल्कुल बरअक्स है। अब हमारा काम मज़मून लिखना है, फीता लेकर पैमाइश नापना नहीं। मगर पाकिस्तान की वुस्सत का इस चीज़ से अंदाजा लगा लीजिए कि यहां मुख्तलिफ़ सूबों में मुख्तलिफ़ दिन ईद मनाई जाती है। फल्कियात से वाकिफ़ लोग समझ गए होंगे कि ये सिर्फ तवील फासलों पर ही मुमकिन है।
मौसम
यहां साल में चार मौसम आते हैं। मौसम-ए-परहेज़-ओ-तवाफ़, मौसम-ए-इम्तिहानात, मौसम-ए-शादी ब्याह, मौसम-ए-इन्कलाब। बाकी मौसमों के एवज आखिरी मौसम हर साल नहीं आता, बल्कि अक्सर आने के वादे ही करता रह जाता है। बाकी मौसम हर साल आते हैं।
मौसम-ए-इम्तिहानात सावन के महीने में आता है। इसमें बादल और वालिदैन गरजते हैं, एक तूफानी हवाओं से और दूसरे पर्चों के नाताइज से। चंद हफ्तों में बादल तो थम जाते हैं, पर वालिदैन कई अरसे तक गरजते रहते हैं। तालिब-ए-इल्म मासूमियत की छतरी ओढ़कर बैठ भी जाएं तो आफाक़ा नहीं होता। तालिब-ए-इल्मों की बहाली के लिए भी अक्वाम-ए-मुत्ताहेदा में दरख्वास्त दर्ज है।
सर्दियों में मौसम-ए-शादी-ब्याह बहुत शान-ओ-शौकत से आता है, अपने साथ दावतों के अंबार लाता है। कई होने वाले मियां-बीवी को अपनी ही शादी छोड़कर और जगह हाज़िरी देनी पड़ती है। मिलनसारी से मजबूर लोग सुबह से शाम घर नहीं लौटते। फिर कपड़ों के खर्चे अलग, सलामियां अलग, कंगाल हो जाते हैं, अवज़ार हो जाते हैं। बीमार मुर्गियों जैसी शक्लें लेकर बैठे रहते हैं, मगर शादी नहीं छोड़ते।
मौसम-ए-परहेज़-ओ-तवाफ़ हर साल रमज़ान के मुबारक महीने से शुरू होता है और हज के मुबारक महीने पर खत्म। अगर किस्मत अच्छी हो तो इन महीनों की भी सर्दियों में ही आमद हो जाती है, वरना इनकी बरक़त में कमी महसूस होने लगती है। रमज़ान में लोग फर्श पर जमीन-पोश रहते हैं, कभी इबादत में, कभी भूख से निढाल होकर। रमज़ान सब्र-ओ- तह्हमुल सिखाता है। खाली पेट एक-दूसरे को बर्दाश्त करना कोई मज़ाक नहीं।
फिर हज के लिए लोग सऊदी अरब का रुख़ करते हैं। वैसे तो जिंदगी में एक मर्तबा का हुक्म है, पर जिनसे पहली बार सही से ना हो पाए, वो दोबारा भी चले जाते हैं। वापसी पर अपने लिए वहां के बाबरकत कुएं का पानी लाते हैं और दूसरों के लिए यहां के कुओं का पानी रख लेते हैं।
ज़रा-ए-आमद-ओ-रफ्त
पाकिस्तान में तरह-तरह के जहाज़ चलते हैं। फिज़ाई, बेहरी और मनशियाती। इस आखिरी का सफर सबसे आराम से होता है। सड़कों का सफर आराम देह नहीं होता। कई सड़कों की हालत देखकर शक पड़ता है कि इंतजामियां मज़दूरों को तामीर के नहीं, तबाही के पैसे देती है। इन पर सफर करना बड़ी जसारत का काम है, इसीलिए अक्सर सवारियों के पीछे ‘ग़ाज़ी’ और ‘मुजाहिद’ जैसे लक़ब रंग-आमेज़ होते हैं।
कोह-ओ-दश्त
पाकिस्तान में दुनिया का सबसे बुलंद जंगी मैदान पाया जाता है, सियाचीन। यहां दुश्मन को मारने का तकल्लुफ नहीं करना पड़ता, ठंड से खुद ही मर जाता है।
यहां मुर्री के पहाड़ हैं। महकमा-ए-तालीम के मुताबिक मुर्री का दौरा बच्चों की तालीम के लिए बेहद जरूरी है। ये इल्मी ज़ियारत तीन-चार मर्तबा कराई जाती है। यहां बच्चे तंबाकू नोशी, चरस, शराब और दीगर बुराईयों के बुरे असरात से बसीरत अफरोज़ होते हैं।
अरसे-दराज़ से पाकिस्तान में बेशुमार जंगल बियाबान थे, लेकिन ये इश्क-ओ-आशिक़ी जैसे फिज़ूल मश्गले को फरोग देने लगे। लोग शेर-ओ-शायरी की तरफ माइल होते जा रहे थे। सड़क पर चलते जिसका दिल चाहता था, मिसरा कह जाता था।
जैसे ‘तुम्हारा और मेरा नाम जंगल में दरख्तों पर अभी लिखा हुआ है, तुम कभी जाके मिटा आओ’ या ‘घने दरख्त के नीचे सुला कर छोड़ गया, अजीब शख्स था सपने दिखाकर छोड़ गया’
ये नाक़ाबिल-ए-क़बूल हालात थे। शायर सीधी बात को उलझा कर पेश करता है, जिससे मुशायरे में फसादात पैदा होते हैं। हुक्मरानों के इख्तियारात कम होते हैं। रियासत कमज़ोर होती है। कामयाब मुशायरा वही है जो अपने शायरों पर काबू पा ले। इसलिए इन जंगलों को काटकर उजाड़ कर कर दिया गया है। वैसे भी दरख्त अच्छे नहीं होते। ये साया तो देते हैं पर जिन्नों का, भूतों का, चुड़ैलों का। साया पड़ जाने की सूरत में फौरन किसी पीर से राब्ता करें। वो आप पर रुहानी कलमात पढ़कर फूंकेगा, आपकी जेब से पैसे का बोझ हल्का करेगा, इससे अतात मिलेगी। अगर आपके करीब कोई पीर नहीं तो इस मज़मून को चार बार पढ़कर अपने ऊपर फूंक लीजिए, खुदा बेहतर करेगा।
दरख्तों की आदम मौजूदगी में भी कभी- कभार शेर उभर कर आ जाते हैं। इस फिलबदी शायरी के खिलाफ अक्वाम-ए-मुत्ताहेदा में दरख्वास्त दर्ज है।
पंजाब
इस मुल्क का सबसे आबाद सूबा है। जरूरत से ज्यादा आबाद। यहा खाने में मशहूर है ख्याली पुलाव, दिमाग की खिचड़ी, पर लोग जुग्गतें भी शौक से खा लेते हैं। यहां के लोग बड़े दिल, खुले दिन और दीगर अमराज़-ए-कल्ब का शिकार रहते हैं। पंजाब के हैवानात में मशहूर हैं शेर, भेड़िएं, जाट, गुज्जर, आरायीन वगैरह। इनमें आरायीन सबसे खतरनाक जानवर समझे जाते हैं। इन्हीं के बारे में कहावत मशहूर है, ‘काम का ना काज का, दुश्मन अनाज का’
यहां की मेहमाननवाज़ी मशहूर है। बिन बुलाए किसी के घर चले जाना और वहां महीना दो महीना रहना यहां का आम दस्तूर है। झगड़े हो जाते हैं, अदालत में कार्रवाई चल पड़ती है, मगर मेहमान नहीं जाते।
अहम शहरः लाहौर, पाकिस्तान का पेरिस। जहां मीनार-ए-पाकिस्तान, शाही क़िला, शालीमार बाग़, जिन्ना बाग़ और राना साइंस अकेडमी जैसी क़ाबिल-ए-दीद जगहें पाई जाती हैं।
फैसलाबादः इस शहर को अंग्रेजों ने आबाद किया, पर भुगत हम रहे हैं। किसी ज़माने में इसका नाम ल्यालपुर होता था। फिर ल्याल साहिब की अपनी ही फ़रमाइश पर बदल दिया गया। फैसल ने अभी तक अक्वाम-ए-मुत्ताहेदा में दरख्वास्त दर्ज नहीं की।
रावलपिंडीः अगर इस्लामाबाद पाकिस्तान की दुल्हन है तो पिंडी उसकी अंधी, बहरी और गूंगी बहन। आज से चालीस बरस कबल यहां कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र चीज़ नहीं थी, खुदा की रहमत से आज भी नहीं है।
झेलमः जहां कि दरिया पर राजा पोरस ने सिकंदर-ए-आज़म को क़ातिल बना कर इख्लाकी फतह हासिल की। इस दरिया ने सैकड़ों लश्करों और भैंसों के रुख बदले हैं ।
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