समकालीन लेखकों में जिस लेखक की बहुविध प्रतिभा ने मुझे बेहद प्रभावित किया है उसमें गौरव सोलंकीएक हैं. गौरव की कहानियां, कविताएँ, सिनेमा पर लिखे गए उनके लेख, सब में कुछ है जो उन्हें सबसे अलग खड़ा कर देता है. वे परंपरा का बोझ उठाकर चलने वाले लेखक नहीं हैं. उन्होंने समकालीनता का एक मुहावरा विकसित किया है. अभी हाल में ही उनका कविता-संग्रह आया है ‘सौ साल फ़िदा’. उसी संग्रह से कुछ चुनी हुई कविताएँ- जानकी पुल.
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देखना, न देखना
देखना, न देखने जितना ही आसान था
मगर फिर भी इस गोल अभागी पृथ्वी पर
एक भी कोना ऐसा नहीं था
जहाँ दृश्य को किसी से बाँटे बिना
सिर्फ़ मैं तुम्हें देख पाता।
घासलेट छिड़ककर मर जाने को टालने के लिए
हम घास बीनने जाया करते थे चारों तरफ
और इस तरह जाया करते थे अपनी अनमोल उम्र
फिर अपना हौसला पार्क के बाहर बेच रहे थे
बोर्ड पर लिखकर छ: रुपए दर्जन
और मैं तुम्हें रोशनदान से बाहर आने के दरवाजे सुझाते हुए
कैसे भूल गया था अपने भीख माँगने के दिन
जब तुम्हारे कानों में गेहूं की बालियाँ थीं
जिन्हें मैं भरपूर रोते हुए खा जाना चाहता था
इस तरह लगती थी भूख
कि चोटें छोटी लगती थीं और पैसे भगवान
हम अच्छी कविताओं के बारे में बात करते हुए
उन्हें पकाकर खाने के बारे में सोचते थे
बुरी कविताओं से भरते थे घर के बूढ़े अपना पेट
बच्चे खाते थे लोरियाँ
और रात भर रोते थे
तुम बरसात की हर शाम
कड़ाही में अपने हाथ तलती थी
कैदख़ाने का रंग पकौड़ियों जैसा था
जिसकी दीवारें चाटते हुए
मैंने माँगी थी तुम्हारे गर्भ में शरण।
यदि देखने को भी खरीदना होता
तब क्या तुम मुझे माफ़ कर देती
इस बात के लिए
कि मैंने आखिर तक तुम्हारी आँखों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।
मौसम निशा नाम की एक लड़की जैसा था
हम किसी तरफ़ से भी आएँ
पहुँचते थे अपने ही घर
जिस तरह हमारे माथे पर हमारी जाति के अपराध
और उनके हुक्कों के लिए आग में हमारा सिर लिखा था
उसी तरह हमारे पैरों पर था
हमारे घर का पता पिनकोड समेत
कि किसके सामने है, कौनसी गली में
अप्रैल के अच्छे महीने में क्यों घुटता है वहाँ जी
मन्दिर की आवाज़ क्यों पहुँचती है सर्वनाश के ऐलान की तरह
यूँ तो जंजीरों को मैं खा गया था
लेकिन उनके निशान मेरे बच्चों के शरीर पर भी आए
पैरों की तरह ही उनके पैरों पर उगा लोहा
शब्दों की ख़तरनाक कमी के बीच
उनका भी हर रोना एक बेहतर भाषा की तलाश करना था मेरी तरह
ताकि वे पा सकें थोड़ा दूध,
मैंने चुटकुले गढ़ना और उन पर खिलखिलाना शुरू किया
जब आप तबाही के मूड में थे,
यह मेरा पेशा नहीं था, यक़ीन मानिए,
फिर भी बाहर के दरवाज़े को मैंने खोला हवा की तरह पेशेवराना
और आपको चाय के लिए ले आया भीतर,
मौसम निशा नाम की एक लड़की जैसा था
समय था ज़रूर थोड़ा संगीन
पर चिड़ियाएँ अपने घोंसलों से बाहर भी सो जाती थीं बेधड़क
कुत्ते उन दिनों इतने नाराज़ नहीं होते थे
सीमाएँ नहीं थीं इतनी स्पष्ट कि उन्हें
तहज़ीब की नियमावली में लिखा जा सके
दाँतों को छिपाने की कोशिश किए बिना
दूसरे की पीठ पर हाथ भी मार सकते थे हँसते हुए लोग
हाँ, बिस्किट डुबो कर ही खाए जाते थे चाय में
कुल्ला पानी से ही होता था
रोते हुए चिल्लाना होता था माँ-माँ ही
ऐसे में मैंने अपने बच्चों के लिए उगाई एक नींद, उसमें एक सपना
उसमें मैंने एक छत रची सुन्दर और स्थायी
जिसका रंग आसमान से ज़्यादा आसमानी था
उस रजिस्टर के ऊपर, जिसमें आपने मेरा हिसाब किया था,
मैंने कविताओं की एक किताब रखी सलीके से
झूठ में हँसे मेरे बच्चे
झूठ में उन्होंने मुझे समझा खूब खूब
झूठ में उन्होंने मुझे दुनिया का राजा घोषित किया
मैंने उन्हें राजकुमार राजकुमारी
किसी अच्छे गाने के बीच में रुककर
मैंने उन्हें बच्चों की तरह बर्ताव करने के लिए चिढ़ाया
हमने मिलकर तय किया कि दूध के ऊपर नहीं रोया जाना चाहिए।
अपने निबन्ध से पहले गाय कहीं नहीं थी
ऐसा यक़ीन नहीं होता था
कि इतिहास की किताब से पहले भी
और बाहर भी रहा होगा इतिहास
जैसे शायद अपने निबन्ध से पहले
गाय कहीं नहीं थी
कम से कम दो सींग चार थन (या दो?) वाली तरह तो नहीं
फिर भी रोशनी खोने पर
इतिहास खोने का डर था
जिसमें मैं चौथी क्लास में अपनी एक मैडम से हुए
इश्क़ को लेकर था बड़ा परेशान
तब लाल या साँवले रंग के थे लोग
क्योंकि साँवला लाल होना आदत था
उस पर रोने पर
सबके हँसने का डर था
शर्म इतनी आती थी पूरे कपड़े पहनने पर भी
कि मैं साँवला खाली था
फिल्मों में साँवली हिचकिचाती तालियाँ बजती थीं
सब अपनी पत्नियों के पास ले जाकर साँवले दुख
– अफ़सोस कि उन दुखों में बच्चे भी थे जो कार की तरह रोते थे, जिनके नाम मुश्किल रखे जाते थे, प्यारे कम हैरान ज़्यादा –
सब अपनी पत्नियों के पास ले जाकर साँवले दुख
फ़ैक्ट्री में ख़ूब गोरा काम करते थे
मोटा होना काले होने जैसा ऐब था
हम इलाज़ में हो जाते थे आधे डॉक्टर
7 Comments
nice poetries.
mujhe bhi gaurav ki kahaniyan aur kavitan pasand hai! nai kitab aane per use badhai!
mujhe bhi gaurav ki kahaniyan aur kavitan pasand hai! nai kitab aane per use badhai!
देखना…
'न देखने' जितना ही आसान था
मगर फिर भी इस गोल अभागी पृथ्वी पर
एक भी कोना ऐसा नहीं था
जहाँ सिर्फ़ मैं तुम्हें 'देख' पाता…
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