‘अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब’ अल्पना मिश्र का यह उपन्यास हाल ही (2023 ई.) में प्रकाशित हुआ है, जिसके केंद्र में है नीली, जिसके माध्यम से स्त्री-संघर्ष के विभिन्न रूप हमारे सामने आते हैं और पुन: यह बात स्पष्ट होती है कि पितृसत्ता एक ही है लेकिन उसके माध्यम अलग-अलग । उपन्यास की शैली भी प्रचलित ढंग से अलग, 13 दिनों की डायरी की शक्ल में । यहाँ पूर्व-प्रकाशित उन उपन्यासों पर ध्यान जाना स्वाभाविक है जिनमें इस तरह के प्रयोग किए गए हैं, मसलन अज्ञेय का ‘नदी के द्वीप’ तथा राजेन्द्र यादव का ‘शह और मात’। अल्पना मिश्र के उल्लिखित उपन्यास पर लिख रहे हैं डॉ. शुभम मोंगा । शुभम हरियाणा में सहायक प्राध्यापक हैं, आलोचना लिखते रहते हैं । उनकी यह समीक्षा आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी
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संघर्ष-संकुल स्त्री-जीवन यथार्थ : अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब
कथा-आलोचक अल्पना मिश्र स्त्री-विमर्श की वैचारिकी को एक नया आयाम देती हैं । वो स्थितियों को ‘ऑब्जर्व’ करती हैं और साथ ही स्त्री-पुरुष दोनों में आत्मोन्यन की नई चेतना भरती हैं । वो स्तिथियों को अंतर्मन की सूक्ष्मता से देखती हैं, जहाँ स्त्री-पुरुष भिन्न नहीं हैं । वे स्त्री-पुरुष दोनों को पितृसत्ता के पाश से मुक्त कर, उनमें अपने समय के भीतरी यथार्थ को परखने का भी विवेक भरती हैं । उनकी दृष्टि एक सर्जक की दृष्टि हैं ।
“अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब” कथा-आलोचक अल्पना मिश्र के सद्य प्रकाशित उपन्यास का ये शीर्षक पाठकों के मन में कौतूहल पैदा करता है । किसकी आँखें देख रही हैं ये बिम्ब? बिंबो की यह सुदीर्घ परंपरा अपने भीतर क्या समेटे है? बिंबों के इसी रूप का समायोजन लेखिका ने आखिर क्यों किया है? उत्तर हमें मिलता है- ये बिम्ब इस उपन्यास की प्रमुख पात्र नीली के मनो-मस्तिष्क पर बन रहे हैं । उसे बचपन से लेकर वर्तमान तक के अपने जीवन में घटी कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ रह-रहकर याद आती हैं और इनका प्रभाव इतना अधिक तीव्र है कि उसे स्लीप-पैरालिसिस के भी अटैक आते हैं । सतही तौर पर ये उपन्यास नीली के जीवन अनुभवों को अपने भीतर समेटे हैं पर गहराई में जाने पर हम यह देख पाते हैं कि उसके सभी अनुभव आज के समय के सच के साथ बहुत गहरे जुड़े हैं । इस उपन्यास में लेखिका ने नीली के माध्यम से पूरी कथा कहलाई है । लगातार चलने वाली ये श्रृंखला उत्तरोत्तर चिंतन-मनन की श्रृंखला में परिवर्तित हो जाती है ,जो अपने भीतर नीली के सभी अनुभवों से आविष्ट हमारे वर्तमान जीवन का भी सच बन जाती है । लेखिका ने इन बिंबों में जिस कल्पना लोक की सृष्टि की है वह हमारे यथार्थ जगत से काफी मिलता है । यह यात्रा अपने वैचारिक भावनात्मक झंझावातों से जूझते हुए आज के सामाजिक सत्य की अभिव्यक्ति भी करती है । लेखिका ने इस पात्र के माध्यम से यहाँ सृजन का ‘पेरिमीटर’ रचा है मात्र अभिव्यक्ति का नहीं, क्योंकि वो जो ये सब बातें डायरी-शैली में लिख रही है,यहाँ उन सब का भावनात्मक प्रस्तुतीकरण नहीं है अपितु उसकी उस खास मनोस्थिति को बनाने वाले कारणों की शिनाख्त भी है । यहाँ उसका ‘सेल्फ-ऑब्जरवेशन’ मुखर हुआ है जो स्वयं, परिजनों व समाज से संवाद की ही एक चाहना है ।
अल्पना मिश्र के पात्र समय की गति को प्रतीक बनकर सदैव आत्मचेतस रहने के साथ-साथ समाज व संबंधों से अपनी समन्वयता कायम करते हुए नवीन सृजन का कलेवर रचते हैं । वे पात्र जानते हैं कि हमारे अपने संशयों के भीतर ही हमारा आत्मबल छुपा होता है, जो अपनी तलाश के लिए व्यग्र वैचारिक पड़ताल की दरकार रखता है । यह एक वैसी ही समाधि की अवस्था है जहाँ पर हम अपने भीतर मौजूद सभी संभावनाओं से साक्षात्कार भी करते हैं । यह साक्षात्कार हमें मानसिक व नैतिक रूप से दृढ़ करते हुए समाज में हमें अपनी स्थिति से अवगत भी करवाता हैं और साथ ही उस स्थिति से टकराने का भी हौसला देता है । नीली की यात्रा भी ऐसी ही है । यहाँ उपन्यास में उसके संघर्ष का वर्णन है । वह अपने आत्मबल को ‘री-इन्वेंट’ करना चाहती है, तभी वह उपन्यास में रचे सभी पात्रों से अलग दिखाई पड़ती है । वह स्थितियों को द्रष्टा-भाव से देख रही है और एक सृजक-भाव से स्वयं पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रही है ।
उपन्यास का कथ्य नीली के पिता की मृत्यु के पश्चात् के 13 दिन का डायरी-लेखन का है क्योंकि “नीली को डॉक्टर सूजा ने अपने सपने में एक डायरी में लिखते रहने की सलाह दी है । “वो वहाँ उस माहौल में मानसिक स्तर पर अपने आप को असहज महसूस करती है । इन 13 दिनों के डायरी लेखन में वह अपने भूतकाल और वर्तमान की स्मृत्तियों, परिवार-जनों से अपने संबंध, अपने गांव और अपने तेजी से बीते समय की गति को भी वहाँ दर्ज कर रही है । इन 13 दिनों के लेखन में उसका बोध-बिंदु, उसकी अंतस चेतना में पल-पल जगती उम्मीद का ही परिचायक है; तभी वह उन दिनों अपने सामने घटती इन घटनाओं और स्थितियों पर नई तरह से विचार करने का साहस जुटा पाती है । “ परिस्थितियाँ मनुष्य को गढ़ती हैं, समझदार बनाती हैं । समझदार होकर मनुष्य परिस्थितियों को गढ़ने लगता है । ”
वह अपने पिता का दाह-संस्कार करके अपने पारिवारिक-सामाजिक पूर्वाग्रहों को चुनौती देती है, इसी कारण उसे अपने ही परिजनों की उपेक्षा व कोप को सहना पड़ता है । एक तरफ वो है जो पिता के लिए अपने इस दायित्व को निभा रही है, तो दूसरी तरफ उसकी बहने हैं जो यह सोचती है कि “पिता का दाह-संस्कार करना संपत्ति से जुड़ा मामला ज्यादा था ।”
वह अपने पिता का दाह-संस्कार कर समाज के द्वारा वर्जित कार्य करती है । “परंपरा तोड़ देना अपने लिए जितनी बहादुर का सबब होता है, हमारे आसपास के परिवेश के लिए उतना असहनीय । “नीली में अब द्वंद-विचलन की स्थिति नहीं है क्योंकि वह जानती है कि “दुख पापा में भी था, वह भी लड़का चाहते रहे होंगे नहीं तो चार लड़कियों के बाद पांचवी बीमार लड़की का पैदा होना शायद ना होता ।”
इस प्रकार वह पितृसत्ता का भी विश्लेषण कर पाने में सक्षम है, जहाँ पूरा ‘फोकस’ पुरुषों पर ही है । यह व्यवस्था स्त्री को मानसिक रूप से पंगु व गुलाम बनाए रखने का भी कुचक्र रचती है । अब सभी परिजन चाहते हैं कि वह वहाँ से चली जाए पर नीली है जो मन में पक्का निश्चय कर बैठी है “दरअसल मुझे भगोड़ा साबित किए जाने से डर नहीं, मैं कुछ बदलना चाहती हूँ।”
वह अपने ही उन्ही स्वरों को ढूंढना चाह रही है, जो भूतकाल में एक खास स्थिति पर न जाने कहाँ लुप्त हो गए; जिससे उसे अपना जीवन अब आधा-अधूरा सा प्रतीत होता है । वह अपने बचपन से वर्तमान तक की सभी स्थितियों के बीच अपने डायरी लेखन के जरिये एक वैचारिक-विश्लेषणात्मक सेतु बनाकर, अपने विचारों में नई अर्थव्यंजना ला रही है । उसका यही प्रयास इस उपन्यास की नई कहन-शैली को जन्म देता है ।
इस वैचारिक सेतु पर सबसे पहले आते हैं नीली के पिता । नीली के पिता उसे पढ़ाते हैं । वो कहते थे “सोचना जरूरी है, जब सूझेगा तभी तो जूझेगा । जो जूझेगा नहीं उसे सूझेगा भी नहीं ।” अब यहाँ इस चिंतन में वो अपने पिता के व्यक्तित्व का वह पहलू भी देख रही है जो उनके घर में परिजनों की वैचारिक स्थिति को भी संकुचित करता है ।
नीली अपने पिता को याद करते हुए अपनी माँ की दृष्टिकोण से कह रही है “माँ ने जेंडर भेद को झेलते-झेलते उसे स्थाई रूप से स्वीकार कर लिया था इसलिए अब उन्हें लड़कियों के दास भाव पर ज्यादा भरोसा था । चाहती कि छोटी-छोटी लड़कियाँ रसोई का काम लगन से निपटा डालें आखिर पिताजी उनके मायके से भेजे नौकर को पढ़ने की लत जो लगा देते थे ।”
पितृसत्ता किस प्रकार स्त्री-पुरुष को उनकी रूढ़छवियों में बाँधती है, इसे नीली के पिता के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है, परंतु वह यह समझने में भी सक्षम है कि “वह हम बहनों को पढ़ा-लिखा कर कुछ बड़ा करते, बनते हुए देखने को विकल रहने लगे । मैंने उनकी अपेक्षा को समझा लिया और अपना लिया ।”
इस वैचारिक सेतु पर वो पिता के ‘इनसाइडर’ व ‘आउटसाइडर’ दोनों आयाम देख रही है । पिता द्वारा पढ़ने की इसी चाहना का यह नतीजा है कि आज उसके पास अपनी नौकरी है, वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र है और निर्णयात्मक रूप से भी लेकिन वह जानती हैं कि “पढ़ने लिखने में व जेंडर के भेद को भेद देने में बड़ा अंतर था ।”
इस सेतु पर क्रमशः दूसरी पात्र आती है – श्यामा (नीली की बहन) । श्यामा के ससुराल पक्ष ने उसे पढ़ाना नहीं चाहा । “श्यामा के यहाँ धन की कमी नहीं थी, यह सच था पर दिलदरिया की कमी थी; यह भी सच था । उसे पैसे मिलते गहने और कपड़े पर खर्च के लिए । किताबों और पत्रिकाओं का नाम लेना गुनाह था ।इस तरह दौड़ में अव्वल आने वाली श्यामा की जिंदगी की दौड़ भी बाधित गई ।”
कैसे पितृसत्ता स्त्रियों की आभूषणप्रियता को उचित ठहरा कर, उनकी वैचारिकता को बौना बनाती है; यह दोहरा प्रतिमान हम श्यामा के ससुराल पक्ष के माध्यम से समझ सकते हैं । अब श्यामा की यह स्थिति है कि वह अनावश्यक तौर से घंटों लगातार बोलती रहती है और वह नीली पर भी बातों-बातों में तंज कसती है, पर फिर भी नीली श्यामा के लिए उस दवा का इंतजाम करती है, जिससे उसे नींद आए । वह नैना से कहती है “यह दवा किसी तरह खिलाना होगा नहीं तो श्यामा जी,संतराम जो बनी है पूरी तरह पागल हो सकती है ।”
नीली अल्पना मिश्र की औपन्यासिक संवेदना का पात्र है तभी वह श्यामा के लिए यह सोचने में सक्षम है ।” एक ज़हीन लड़की जो कितना सोच समझकर बोलती थी, ऐसे पिछले सोलह-सत्रह घंटे से लगातार बोले चली जा रही थी ।”
जहाँ छोटी(उसकी बहन) श्यामा के धन को लोलुपता से देखती हैं और उसकी इस अस्वस्थ मानसिक दशा में उसे पैसे की मांग करती है (जिसे श्यामा पूरा भी करती है) ऐसे हालातों में नीली यह सोचती है कि “जाने कितने सालों से यह प्रवचन चलाया जा रहा था मुझे फिर चिंता ने आ घेरा ।” फिर इस वैचारिक सेतु पर नीली संवाद करती है अन्नपूर्णा से । (नीली की दूसरी बहन) वह अन्नपूर्णा के मानसिक स्थिति से भी भली-भाँति अवगत है । “क्या अन्नपूर्णा जो हर शब्द को, हर वाक्य को तीन-चार बार दोरहाकर बोलने लगी थी,गहरे डिप्रेशन में थी?” अन्नपूर्णा स्वयं कहती है, “धोखा देकर मेरी शादी की इन लोगों ने… क्या देखा मेरे माँ-बाप ने, लड़के की नौकरी देखी, पैसा देखा, लड़का नहीं देखा! ना रूप, ना रंग, ना बीमारी ।पापा तो कुछ भी नहीं देखे थे ।इन लोगों ने छिपाया…सदानंद के पैरों में, पीठ में सोरासिस है…खुजली की बीमारी पूरी देह में फैल जाती है।”
पितृसत्ता का ही दुष्प्रभाव है कि पढ़ने-0लिखने की पैरवी करने वाले नीली के पिता भी अपनी बेटियों को लैंगिक पराधीनता के अभिशाप से मुक्त नहीं कर पाए ।
विवाह-संस्था का स्वरूप ऐसा है कि वो स्त्री के तमाम हकों को छीनकर पुरुष के अनुरूप ही उसकी जरूरतों को तय करती है । यहाँ अन्नपूर्णा भी यह जानती है वह कहती है ‘नौकरी कर रही होती तो कुछ अच्छा होता, कुछ कर पाती । नीली दीदी की तरह ठाठ से रह पाती ।”
शिक्षा हमें आत्मनिर्भर बनाती है तो नौकरी पाकर हम आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर निर्यात्मक क्षमता से लैस हो जाते हैं, इस क्षमता का नीली को छोड़कर सभी बहनों में अभाव है ।
उसकी बहन छोटी भी विवाह संस्था के इसी स्वरूप का शिकार हुई है । “छोटी का पति कोई नौकरी नहीं कर रहा था और उनके घर माता-पिता की पेंशन और पति के गांव से आए अनाज व तेल की बदौलत चलता था ।” इस प्रकार हमें यह पता चलता है कि पितृसत्ता द्वारा बनाए गए यह प्रतिमान अनुचित तो है ही साथ ही दोहरे भी है,जहाँ एक तरफ धन अर्जित कर रही नीली भी समाज की आँखों में खटक रही है तो दूसरी तरफ छोटी का पति जो जीविकोपार्जन करने में सक्षम नहीं है, वह किसी के भी उपहास का पात्र नहीं है। छोटी पढ़ी-लिखी है परंतु उसे नौकरी नहीं मिल पाई । “ऐसा नहीं था कि उसने अपने लिए नौकरी नहीं पानी चाहिए थी ।उसने अपनी बी.एड की डिग्री को सिर पर उठाकर ना जाने कितने सहस्त्र आवेदन भरे और साक्षात्कार दिए अंततः उम्र के बढ़ते जाने और और साथ-साथ निराशा के बढ़ते जाने से उसने हार मानकर अपने जिहवा पर जहर रख लिया और सारे प्रश्नों को विराम दे दिया ।”
हम यह भी कह सकते हैं की नीली के माध्यम से अल्पना मिश्र ने इस उपन्यास में स्त्री-सशक्तिकरण की अवधारणा में बाधा उत्पन्न करने वाले सभी प्रमुख कारकों को उनकी संपूर्णता में पहचानने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है ।
नौवे दिन जब नीली की माँ बीमार होती है तो वहाँ हॉस्पिटल में वह अपनी माँ की सेवा करती है । उसके अनुसार “मेरे इस काम से मेरे पिता की आत्मा प्रसन्न होगी क्योंकि उन्होंने ही मुझे यह सिखाया था । शांति मिलेगी उन्हें कि हमने अपने कर्तव्य को समझा है ।”
यहाँ इस पूरे वैचारिक सेतु का विश्लेषण करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि नीली अब समय व स्थिति के अनुकूल अपने निर्णय लेने लगी है । वह पहले से तय कर दिए गए मानकों को उचित नहीं ठहराती अपितु वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता व अनुरूपता खोजती है । नीली ने परनिर्भर होने की जगह आत्मनिर्भर होना चुना, उसने उस लीक को त्यागा, जिस पर उसकी दूसरी बहनें चली ।
जीविकोपार्जन कहीं ना कहीं स्त्रियों को निर्णय लेने की क्षमता देता है तभी वह अपने पिता के शवदाह का महत्वपूर्ण कार्य, जो परंपरा में निषेध है; कर पाई । ये सब चीज़े आपस में मिलकर नीली को एक स्वतंत्र सत्ता होने का बोध भी देती हैं लेकिन अब यहाँ पुन: प्रश्न यह उठता है कि क्या मूल सत्ता की संरचना, व्यक्ति की केंद्रीय संरचना का बहुआयामी रूप है या नहीं? क्या सत्ता केवल बाहरी दिखावे के प्रयत्न कर रही है या वास्तव में वह आंतरिक रूप से भी स्त्रियों की स्थिति सुधारने व उनके स्वावलंबन का कार्य कर रही है? सत्ता सामाजिक वर्जनाओं का किस प्रकार आंतरिकीकरण करती है, यह हम नीली की बहनों के माध्यम से भली-भाँति जान चुके हैं । सामाजिक-पारिवारिक मर्यादा व विवाह-संस्था के स्वरूप को बचाए रखने के नाम पर पितृसत्ता का ही ढाँचा मजबूत होता चलता है ।
इस उपन्यास की एक अन्य विशेषता यह भी है कि यह तटस्थ आलोचनात्मक दृष्टि के साथ स्वयं के समूचे मानसिक व शारीरिक क्रियाव्यापारों को विवेक की कसौटी पर परखने की बेचैनी भी लिए है । इस कार्य के लिए लेखिका नीली को ही अपने विचार पुत्री के रूप में चुनती हैं, जो अपनी बहनों के साथ-साथ स्वयं में भी निहित सूक्ष्म अभिव्यंजनाओं को विवेक की कसौटी पर कसती है और जब ऐसा होता है तो पुरातन सामंती संस्कारों, पितृसत्ता सत्ता से टकराने का अपेक्षित नैतिक व मानसिक साहस भी उसके भीतर स्वयं पैदा होता चलता है । यह सत्य है कि पितृसत्ता द्वारा बनाए गए शील व नैतिकता के ये प्रतिमान समय व समाज के सापेक्ष नहीं हैं । वे स्त्री की अस्मिता की बलि मांगते हैं । अपने इन विचारों और नीली की इस आत्मालोचन की यात्रा को जारी रखने के लिए लेखिका एक अन्य स्त्री-पात्र रचती हैं – मेनू जी, जो रिश्ते में श्यामा की चचेरी देवरानी हैं । अपने पति की मृत्यु के बाद भी मेनू अपने जीवन को उमंग व चाह से जी रही है और अपनी शारीरिक इच्छाओं पर भी खुलकर बात कर रही है । प्राय: इस तरह की स्त्री को परिवार-संस्था का विरोध सहना पड़ता है । मेनू के बहाने यहाँ लेखिका ने नीली को एक वैचारिक दृष्टि दी है । मेनू नीली से कहती है “जिंदगी की केंचुली छोड़कर निकल जाओ, सारे रंग, सारी उमंग, सारे रस, सारे राग…सबसे दूर, अनासक्त… यही है मैटेफिजिकल सुसाइड… पराभौतिक आत्महत्या…जिंदगी में होते हुए, जिंदगी में खटते, हुए जिंदगी से बाहर…क्या गजब की फिलॉसफी है।”
नीली का पति उसे छोड़कर कहीं दूर चला गया है । मेनू यह जानती है तो वह नीली से उन सभी चाहनाओं के बारे में पूछ रही है, “नीली दी,आपको फिर कोई ना मिला ?”
मेनू नीली के मन की एकाग्रता के नीचे नवीन बोध के प्रकाश की क्षणिक कौंध बनकर, उसकी अंतरचेतना को अधिक जाग्रत करती है और उसे अपने भीतरी मन के रेशों की जाँच करने की गति भी प्रदान करती है । यह उसके स्वयं की ही संज्ञान की स्थिति है, जो उसे अधिक मुखर होकर बुरी स्थितियों को बुरा कहने का साहस भी देती है । यह स्वयं व परिवेश को नि:संग दृष्टि से देखना ही है और साथ ही विश्लेषणधर्मी होना भी है ताकि स्त्री यह जान सके कि उसकी इस बुरी स्थिति के लिए कौन-कौन से कारण आज भी सक्रिय हैं । वह उन कारणों से उलझ कर रह जाना चाहती है या फिर उन्हें भेदकर अपनी एक सक्रिय भागीदारी का निर्वहन करना चाहती है, जो कि समूची स्त्री अस्मिता की पैरवी का शंखनाद है । नीली कह उठती है “मुझे अपनी आँख की कहानी फिर-फिर याद करनी थी । इसी पर बनते सौ सौ बिम्ब देखने थे…भीतर के, बाहर के,दुनिया के,जहान के ।
अब यहाँ नीली अपने इस विश्लेषण के से उपजे निष्कर्ष को स्वीकारने का साहस कर रही है और वह स्वयं से ही प्रश्न कर रही है “कहीं मैंने जिंदगी की केंचुल तो नहीं उतार फेंकी… मैटेफिजिकल सुसाइड!!!”
अब वह नई दृष्टि से स्वयं की उस मनोदशा तक पहुँचकर, स्वयं के खालीपन से उपजे दुख को दूर कर रही है और अपनी स्थितियों का विश्लेषण व पुनर्सर्जन कर रही है । यहाँ वो दुख को जीवन का अनिवार्य तत्त्व मानती है, जिससे उसका संघर्ष पुन: – पुन: बाधित होता है, परंतु यही दुख उसकी इस समूची संघर्ष यात्रा को एक नवीन सोपान तक भी लेकर जाता है । वह कहती है, “दुख सबके लिए एक तरह से नहीं आता,कोई टूट जाता है, कोई जीवन का अर्थ पाने लगता है।” वह ये जानने लगी है कि अब उसे अपनी दृढ़ताओं के प्रति संदेह बिल्कुल भी नहीं रखना है।
“आदमी को आगे की तरफ देखना चाहिए । पैर आगे की तरफ है । आँखें आगे की तरफ । सिर के पीछे कुछ नहीं-सब कुछ भविष्य की तरफ जाता है…पीछे मुड़कर अतीत में ठहर गए लोग ताउम्र उस जकड़न से अपने को छुड़ाने में खर्च हो जाते हैं।” इस जकड़न से मुक्त होने का अर्थ है- किसी भी स्वतंत्र व आत्मसजग मनुष्य की भाँति अपने निजी स्पेस वह आत्मसम्मान को पाना । नीली अपने साथ-साथ यहाँ समाज में प्रचलित स्त्री-द्वेष के सभी रूपों को पहचानने में भी सक्षम है । वह परिस्थितियों के पार जाना चाहती है । अब वह अपनी इस यात्रा में आने वाले बाधक तत्वों का शोक नहीं मना रही, अपितु वह उससे जूझ रही है और उनके पार जाने की पुख्ता कोशिश भी कर रही है ।
वह समझ चुकी है, “जीवन हमें हर क्षण कुछ बदलता, कुछ तोड़ता, कुछ दहलाता चलता है तो कुछ जोड़ता, कुछ सिखाता, सँवारता भी चलता है ।” यह उसकी आत्पमोलब्धि की उठान है । अब नीली का विश्लेषण उत्तरोत्तर गहन हो रहा है और वह अपने परिवार से बाहर निकाल कर अपने बचपन में जाकर अपने गाँव में घटित घटनाओं का भी पुन:विश्लेषण कर रही है । ये बाह्य रूप से सामाजिक संरचना पर पुनर्विचार की स्थिति तो है ही साथ में उसे अपने पारिवारिक संबंधों में समाज के प्रति भी वैचारिक रूप से अधिक प्रतिबद्ध बनाने की पहल है ।
अल्पना मिश्र के लेखन की यह अहम खासियत है कि वह एक तरफ तो अपने मन के तहखानें में बहुत गहरे उतरती हैं, साथ ही वह हमारे समय व समाजशास्त्र की आंतरिक दुर्बलताओं पर भी पैना प्रहार करती हैं, जो क्रमशः एक-दूसरे में स्वयं को प्रतिबिंबित करते चलते हैं । यहाँ उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग आए हैं, जहाँ उन्होंने अपने समाज में फैली अनेक भ्रांत व भयावह धारणाओं का भी जिक्र किया है । चाहे वह कुआनो नदी से जुड़ी नीली की बचपन की समृतियाँ हो या फिर अपने गांव माधोपुर में धरकोसवा या मुड़कटवा गैंग का प्रसंग ही क्यों ना हो या फिर मानवेंद्र व गजेंद्र सिंह के बीच का गैंगवार… इन सभी प्रसंग का केंद्र है-समय की विद्रूपताएँ चिन्हित करना, जो पूँजीवाद और सामंतवादी ताकतों के साथ मिलकर मनुष्य के विघटन की दास्तान लिखते हैं । इस प्रकार यह उपन्यास अपने आप में हिंसक होती मानवीय परिस्थितियों के आंकलन की गहरी समझ पर भी आधारित है, भले ही यह सब घटनाएँ नीली के बचपन में घटित हुई हैं परंतु इन घटनाओं को बुनते हुए जातिवाद के गणित के नाम पर आज के समय में घटने वाली भयानक घटनाओं को भी लेखिका ने नीली की घटनाओं के साथ-साथ जोड़ के देखने की कोशिश की है । नीली बेहद सजग भाव से उन सभी प्रसंग को पुन:अपनी डायरी में लिखते हुए बहुत आशांकित भाव से आज के समय में पनपती अपराधी गतिविधियों को भी क्रमशः दर्ज करते चलती हैं । “इतिहास के पन्नों पर यह गोलीबारी कभी दर्ज न हुई थी, तो पुलिस की पूछताछ भी नहीं हुई।”
इन विघटकारी घटनाओं पर हम लेखिका के स्टैंड को भी साफ-साफ देख सकते हैं, उसकी यही स्टैंड लेने की क्षमता पूरे उपन्यास में नीली के माध्यम से अंडरकरंट की तरह दौड़ती है, जो गहरी ऑब्जरवेशन क्षमता के साथ अपने पारिवारिक संबंधों में पितृसत्ता के दुष्प्रभावों,रा जनीति में सत्ता के वर्चस्व को बढ़ाने वाली कुत्सित मनोवृतियों का भी पर्दाफाश करते चलती हैं ।
अंत में एक और बात कि नीली डायरी के माध्यम से इन सब घटनाओं व उन पर अपने टिप्पणियाँ दर्ज करते हुए स्वयं को क्लीन-चिट देने का कोई धूर्त आयोजन भी नहीं रच रही । अपने पारिवारिक संबंधों को लेकर वह लिखती है “लगता था जैसे हम सब अपने बचपन को किसी ताकतवर इरेजर से मिटा चुके थे-पैदा होने के बाद हम सीधे यही गिरे थे, इसी वर्तमान में । बीच में कुछ था ही नहीं । इसलिए हम कई बार एक-दूसरे से अपरिचित जैसा या कहीं बार शत्रु जैसा व्यवहार करने में भी नहीं हिचकते थे । क्या इसमें मैं भी शामिल थी…शायद हाँ!”
नीली लेखिका की संवेदनात्मक दृष्टि, कल्पना व भविष्यबोध से रचा हुआ पात्र है । यही कारण है कि वह उपन्यास की घटनाओं में अन्य पात्रों के साथ जुड़कर अपना एक विशेष चरित्र बुनने लगती है । यहाँ समाजशास्त्रीय तथ्यों के साथ मनोवैज्ञानिक सच्चाइयाँ भी सामने उभर कर आती है कि किस प्रकार वह अपनी ही कमजोरियों, अपने ही द्वंदों से लड़ते हुए अपनी अस्मिता को पुन: केंद्रित करती है और अपने आपसी संबंधों को पहचानने की कोशिश भी करती है । उसका यह निजी संघर्ष, अपने परिणामों का आंकलन करके अपने समय व समाज की भी नब्ज़ टटोलता है और अपने हिस्से के सच को वह पूरी ईमानदारी के साथ कह जाती है । वह अपने जीवन को उसकी समग्रता ,व्यापकता और अन्य वृहतर संबंधों से जोड़कर देख रही है, जिससे उसके अपने यथार्थ की पूरी तस्वीर भी बन सके, एक ऐसा यथार्थ जिसमें दूसरों का पक्ष भी नदारद ना हो ।
अल्पना मिश्र नीली के माध्यम से विचारों की उस प्रवाहमान अवस्था को रचती हैं । उसकी डायरी में अनेक पाठ और अंतर्पाठ है, जहाँ वे अपने पात्रों के माध्यम से समाज के सभी पक्षों की उपस्थिति, गति व वाणी को विस्तार देते हुए यथार्थ को पुन: सर्जित करने का भी प्रयास करती हैं । वो अपनी स्थिति के साथ-साथ समाज के बने हुए पैरामीटर की स्थिति को भी नाप रही हैं । यह उपन्यास व्यक्ति के संदर्भ में समाज-व्यवस्था और संस्थाओं के पुनर्पाठ को प्रस्तुत कर, उसके पुनर्मूल्यांकन की बात भी करता है । यह पाठ हर हाल में जिंदगी के उस भ्रूण की रक्षा करना चाहता है, जो आज के आज संवेदनशील समय की क्रूरता से क्षरित हो रहा है । यहाँ नीली को आधार बनाकर, हमारे भीतर भी संकल्पदृढ़ता और जिजीविषा को निरंतर गतिशील रखने की बात की गई है और इस घुटनभरी व जानलेवा यंत्रणा के बीच भी मुक्ति की राह तलाशी गई है और दूसरों के द्वारा बनाये व बताए गए प्रतिमानों से मुक्ति की राह भी दिखाई है । तरलता और संवेदनात्मक-चिंतन को अपने मन में उतारने की समझ देता एक बहुत गहरा उपन्यास । माने कि “दुनिया में छूटा हुआ तुम्हारा ही एक सपना,जो स्मृति का एक टुकड़ा तुम्हारे हाथ में थमाने कि ज़िद के साथ चल रहा है ।” अपनी दृष्टि में चिंतन की ऊँचाइयों और गहराइयों की तरफ बढ़ता हुआ, हमें जीवन के सृजन की अन्तर्यात्रा पर ले जाता हुआ एक उपन्यास “अक्षि मंच पर सौ सौ बिंब” ।