जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर का यह व्यङ्ग्य-

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प्रेमचन्द जयन्ती के सुअवसर पर एक ख़राब कविता पढ़ने को मिली, जिसका शीर्षक था ‘ख़राब कविता’। वह इतनी ख़राब कविता थी, इतनी ख़राब कविता थी, इतनी ख़राब कविता थी कि उसे ख़राब कहना भी ख़राब की बेइज्जती होगी। इसलिए हमने ख़राब कवि से बातचीत करके इसकी पड़ताल करनी चाही। आप देखेँगे कि हमने कोशिश की है कि ख़राब कविता की चीर-फाड़ की जाए और उसकी ख़राबी को नुमाया किया जाए।

ख़राब कविता लिखने वाले से पहला ख़राब सवाल : आपने यह ख़राब काम क्योँ किया?
ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का ख़राब जवाब:  इसमेँ कौन-सी ख़राबी है? हमारा दिन ख़राब चल रहा था और घड़ी भी ख़राब चल रही थी, साथ ही सितारे भी ख़राब चल रहे थे। हमने ख़राब तरीके से सोचा कि समय ख़राब करने का सबसे ख़राब तरीका क्या हो सकता है? रील्स बनाना उतना ख़राब नहीँ क्योँकि मेहनत करने मेँ कुछ ख़राबी नहीँ। सोशल मीडिया देखना उतना ख़राब नहीँ क्योँकि हर कूड़ेदान मेँ कुछ काम का सामान मिल ही जाता है। सोना भी उतना ख़राब नहीँ क्योँकि उससे सेहत बुलन्द होती है और सुस्त दिमाग को ताजगी मिलती है। इन सब ख़राबियोँ के मद्देनजर यह तरकीब सूझी कि क्योँ न एक ख़राब कविता लिखी जाए।

दूसरा सवाल करने से पहले हम पाठकोँ की जिज्ञासा शान्त करने के लिए ख़राब कविता को उद्धृत कर देते हैँ ताकि इस ख़राब कविता की चीड़-फाड़ मेँ, अगर रुचि न हो, तो बेशक अभी ही पढ़ना छोड़ देँ और अपने मन के दूसरे ख़राब काम कर के दुनिया को और ख़राब करेँ।
 

[ख़राब कविता]

ख़राब कविता

ख़राब कवियोँ की

ख़राब वाहवाहियोँ के बीच

ख़राब पगडण्डियोँ से गुजरती

ख़राब राजपथ पर इठलाती

ख़राब तरीके से सिंहासन पर बैठ जाती हैँ


ताकि

ख़राब पत्रिकाओँ

ख़राब सम्पादकोँ

ख़राब आलोचकोँ

ख़राब प्रकाशकोँ

ख़राब राजनेताओँ

ख़राब ज्यूरी मेम्बरोँ

ख़राब पुरस्कारदाताओँ

की

ख़राबियोँ को खूब ढाँका जा सके


क्योँकि

ख़राब को ख़राब कहने वालोँ पर

ख़राब तरीके से पत्थरबाजी करते हुए

ख़राब तरीके से गालियाँ देते हुए

ख़राब तरीके से सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखते हुए

ख़राब तरीके से आहत होने का स्वाङ्ग रचते हुए

ख़राब तरीके से अपनी मूँछे ऐंठने के लिए

ख़राब तरीके से अपनी लिपस्टिक घिसने के लिए

ख़राब नज़र आते रहने के साथ-साथ

ख़राब न कहलाने की छूट चाहिए


इसलिए

ख़राब कविता लिखकर

ख़राबी को सामने लाने का

ख़राब काम करना पड़ रहा है


दरअसल

ख़राब कविता

ख़राब वर्तनियोँ से नहीँ जो कि प्रिण्ट की मजबूरी और समय की बचत मानी जाती है,

ख़राब वाक्योँ से नहीँ जो कि सीधी-सीधी कही जाती हैँ,

ख़राब शिल्प से नहीँ जो कि किसी प्रसिद्ध विदेशी कविता की नकल से आती हैँ,

ख़राब विषयों से नहीँ जो पहली दुनिया के फैशन से विचारे जा रहे हैँ,

ख़राब प्रोफेसरों, जिनकी नाक एक अनुच्छेद बिना मिलावट की हिन्दी मेँ लिख देने पर कटकर पश्चिमी आलोचना की पूँछ बन जाती है,

से नहीँ पनपती और फूलती हैँ

बल्कि

ख़राबी ये

गिद्धोँ की गिनती के ख़राब नतीजोँ के कारण है

जो लाशोँ को नोच-नोच कर खा जाया करते थे।

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ख़राब कविता लिखने वाले से दूसरा ख़राब सवाल: एक ख़राब कविता लिखने के लिए आप बधाई लीजिए। जल्दी ही आप की और ख़राब कविताएँ जानकीपुल, समालोचन, हिन्दवी, सदानीरा पर प्रकाशित होँगी इसकी सम्भावना जान पड़ती है। जल्दी ही आप ख़राब कवि होने के साथ-साथ सौन्दर्य विचारक, सूक्तियोँ के जन्मदाता, सिने आलोचक, समाजसुधारक, इतिहासकार, धर्मवेत्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता आदि भी हो जाएँगे, इसकी स्वाभाविक और प्रबल सम्भावना है। आपसे सवाल यह है कि आपके प्रेरणास्रोत कवि कौन हैँ?

ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का ख़राब जवाब: दरअसल ख़राब कविता एक नए आस्वाद को जन्म दे रही है, जो यह चीख-चीख कर पुकारती है कि इन्हें उन बूढ़ों को पढ़ना चाहिए जो हर जगह कहते घूमते हैँ कि आजकल बहुत ख़राब कविताएँ लिखी जा रही हैँ।
            मेरे प्रेरणास्रोत कवि स्वयं प्रेमचन्द हैँ। उनकी महान कविता को, जो कि उनकी कहानी ‘रसिक सम्पादक’ से ली गयी है, उसे मैँ आपकी जानकारी के लिए सुना देता हूँ:-

{ख़राब सुर मेँ गाकर}

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग जाओगे ?
भाग सकोगे ?
मैँ तुम्हारे गले मेँ हाथ डाल दूँगी;
मैँ तुम्हारी कमर मेँ कर-पाश कस दूँगी;
मैँ तुम्हारा पाँव पकड़कर रोक लूँगी;
तब उस पर सिर रख दूँगी।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे ?
छोड़ सकोगे ?
मैँ तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल चिपका दूँगी;
उस प्याले मेँ जो मादक सुधा है-
उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।
और मेरे पैरोँ पर सिर रख दोगे।
क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग जाओगे।


            देखिए, इस महान कविता के शिल्प को, बिम्ब को, वैविध्य को। यह कविता आपको विस्मय और आश्वस्ति से भर देती है कि ख़राब कविताओं के लिए इस क्रूर संसार मेँ जगह है। भावोँ को अनावृत करने के लिए, संवेदना के उद्वेग के लिए और समय की तीक्ष्णता का सन्धान के लिए, भाषा के पैनापन को खूब साधते हुए यह एक अविस्मरणीय कविता है।
            यही हिन्दी की आदिम ख़राब कविता है। आपको याद दिलाना चाहूँगा कि हर विधा अपने पूर्वज को ढूँढ निकालती है। युरोपी पुनर्जागरण ने यूनानियोँ को, उनके रङ्गकर्म को, उनके दर्शन को अपना पिता घोषित किया। यह बात और है कि उनका विध्वंस ईसाइयों ने ही किया था। बिना पूर्वज के कोई विधा हो नहीँ सकती। अत: यह कोई संयोग नहीँ था कि कविता प्रकाशित करने का पावन अवसर हमने प्रेमचन्द जयन्ती को चुना।
 

ख़राब कविता लिखने वाले से तीसरा ख़राब सवाल: आप इस ख़राब कविता की रचना प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डालेँ। आप ऐसी कविताएँ सायास लिखते हैँ या अनायास?

ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का ख़राब जवाब: ख़राब कविताएँ अनायास ही प्रकट होती हैँ। इन्हें शिल्प, छन्द, कथ्य – किसी चीज की दरकार नहीँ होती। ख़राब कविताओं का मूलमन्त्र ही है उनके अर्थहीन होने का निवेदन। अत: सबसे पहला निवेदन यह है कि मेरी कविता मेँ किसी तरह का अर्थ भूले से भी न ढूँढा जाए। आप जो भी अर्थ ग्रहण कर रहे हैँ वह अमूर्तन से मूर्तन होने का प्रयास मात्र है। इस ख़राब कविता का दार्शनिक उन्मेष आपको बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के अपोहवाद मेँ मिलता है, जहाँ कहा गया है कि शब्द का अर्थ से, अर्थ का शब्द से कोई तात्त्विक निबन्धन नहीँ है। अतएव शब्द न तो अर्थनिष्ठ है और न ही अर्थजात् बल्कि अर्थसङ्केत का ध्वन्यात्मक प्रतीक, वक्ता के अभिप्राय मात्र का निवेदन। हम दिङ्नाग और शान्तरक्षित जैसे भाषा दार्शनिकोँ से दो कदम आगे चल रहे हैँ। कैसे? समझाता हूँ।
            ऐतिहासिक दृष्टि से देखेँ तो हीगेल ने काव्य और कला, सभी को कला के अन्दर मानते हुए हर कला की अवधारणा को आत्मप्राप्ति का निवेदन मात्र माना है। इसी तर्ज़ पर हीगेल, स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला और सङ्गीत आदि के क्रम मेँ सबसे ऊपर कविता को रखते हैँ। यह सर्वोच्च कला है। देखिए, इसी बात का समर्थन क्रोचे ने भी किया जब उन्होंने कहा, ““कला सम्प्रतीति (विजन) अथवा सहजानुभूति है। कलाकार एक बिम्ब का सृजन करता है। जो कोई कला का रसास्वादन करता है, वह कलाकार की ही व्यञ्जना पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और कलाकार द्वारा खोले हुए वातायण से झाँकता है और अपने अन्तर मेँ उस बिम्ब की प्रति सृष्टि करता है।“ चूँकि मैँ क्रोचे को मानता हूँ और इसलिए कला सहजानुभूति है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह सायास हो नहीँ सकती। हर ख़राब कवि एक बिम्ब का सृजन कर रहा है और पाठक उसकी प्रतिसृष्टि में जुटा हुआ है, भले ही वे कथ्य भाववाचक विचारोँ से क्योँ न जुड़े होँ। इस लिहाज से मैँ जिस ख़राब कविता की मुहिम चला रहा हूँ वह अनायास ही सृजित होगी।


ख़राब कविता लिखने वाले से चौथा ख़राब सवाल:क्या आप ख़राब का अर्थ बदल देने के लिए ख़राब कविता की मुहिम चला रहे हैँ?
ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का ख़राब जवाब:दरअसल आपका सवाल दकियानूस है और समाज से कटा हुआ है। त्रिवेणी सभागार मेँ बैठ कर आप कविता और कविता के सिद्धान्तोँ की बात करते हैँ और जनता के आस्वाद से आपको कुछ लेना देना नहीँ है। मार्क्सवादी सौन्दर्य दृष्टि के अनुसार जब तक खेल और श्रम का ऐक्य नहीँ होता, तब तक कला का कार्य सिद्ध नहीँ होता। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हमारे शहर की तरफ चलने वाली रेलगाड़ियोँ मेँ ‘ख़राब चाय’ बिकती है। यह बकायदा बहुत ही जनप्रिय नुस्खा है। आम जनता ख़राब चाय पीती है और मज़ाल है कि कभी किसी ने उसकी बुराई की हो? कैसे करेँगे अगर वह बेच ही ख़राब चाय रहा हो तो?
            ख़राब कविता का गुण है कि वह समय ख़राब करने के अलावा और कुछ ख़राब नहीँ करती। गौर से देखिए तो हमारी सरकार ख़राब, सड़केँ ख़राब, पुल ख़राब, इन्जीनियर ख़राब, शिक्षा व्यवस्था ख़राब, फिल्मेँ ख़राब, गाना ख़राब, खाना ख़राब – फिर इस ख़ानाख़राब की ख़राब कविताओं की ख़राबी और क्या ख़राब कर सकती है?  
            मैँ समझता हूँ कि सभी ख़राब कवियोँ और ख़राब कवयित्रियोँ को मेरे ख़राब कविता की इस मुहिम मेँ शामिल हो कर एक विशेष अभियान चलाना चाहिए। हम बहुमत, पक्षधर, अनहद, तद्भव जैसी पत्रिकाओं से माँग करते हैँ कि वे ‘ख़राब कविता’ के लिए कुछ पन्ने आरक्षित करेँ। यह बिना धर्म, जाति, वर्ण, लिङ्ग के भेदभाव के सच्ची और सही मायनों में सार्थक पहल होगी। यह विधागत विविधता के स्वप्न को साकार करेगी। इस क्रान्तिकारी कदम के लिए सभी कवियोँ को अपनी कविताओँ के शीर्षक मेँ सबसे पहले ‘ख़राब कविता’ लिखना होगा उसके बाद कविता का शीर्षक। यह लोकतान्त्रिक अभियान है और इसमेँ स्वेच्छा से कोई भी शामिल हो सकता है। सभी का स्वागत है।

ख़राब कविता लिखने वाले से पाँचवा ख़राब सवाल:  आपकी ख़राब कविता की आलोचना कैसे की जाए जो कि यह दावा ही करती है कि यह ख़राब है? क्या यह आलोचना से बचने का तरीका है?
ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का ख़राब जवाब:
 पहली बात है कि आलोचना की परवाह किसे है? जिसे होगी वह ख़राब काम क्योँ करेगा? सौन्दर्यबोध के सन्दर्भ मेँ काण्ट के कुछ मौलिक विचार थे। जैसे कि उनका मानना था कि यदि कोई प्रेक्षक किसी चीज को पसन्द करता है तो वह यह मानता है कि सारी दुनिया उस चीज को पसन्द करेगी। इसका अर्थ यह नहीँ है कि दुनिया के सभी लोग को उक्त वस्तु या कलाकृति को पसन्द करना ही चाहिए या पसन्द करना ही पड़ेगा, बल्कि यह विश्वास कि यह सभी को पसन्द आएगा ही। इसके बाद काण्ट सौन्दर्यबोध के तीन स्तरों की बात करते हैँ – १. सहमति (एग्रीएबल) २. सुन्दर (ब्यूटी) और ३. उदात्त (सब्लाइम)।
            काण्ट का कहना था कि अच्छा खाना, पेय पदार्थ मेँ रुचि – यह सब सहमति के लक्षण हैँ। सुन्दरता और उदात्त कुछ और ही है। हमारी माँग बस इतनी है कि अधिकतर ख़राब कविताएँ किसी सौन्दर्यबोध के लिए नहीँ, किसी आह्लाद के लिए नहीँ, बल्कि उन्हीँ के शब्दोँ मेँ ‘सहमति’ मात्र के लिए निवेदित है। ख़राब कविता मेँ सुन्दर-फुन्दर, उदात्त-अनुदात्त कुछ नज़र आ जाता है तो वह संयोग मात्र है। हमारी समझ से रस वाली कविताओँ का हम निषेध करते हैँ। निषेध क्या खाक़ करेँगे जब वे हैँ ही नहीँ।
            केवल इतना ही नहीँ, ख़राब कविता से यदि आपकी सहमति नहीँ है तो आप पुरातनपन्थी हैँ, पिछड़े हैँ, दृष्टिहीन हैँ और बहुत सी गालियाँ जो मैँ बोल नहीँ सकता। संक्षेप मेँ, यदि आपको ख़राब कविता पसन्द नहीँ आती तो आपकी दृष्टि ‘गजब’ की है और आपके पैमानोँ का क्या कहना? हालाँकि कुछ लोग का यह मानना है जो कि ख़राब है, कि गद्य मेँ सारी नीचताएँ यथावत प्रस्तुत होनी चाहिए।
            ख़राब कविता की आलोचना किस बात पर की जा सकती है? पहली बात तो यह है कि ख़राब कविता लिख कर लिखने वाले को आनन्द आ रहा है। दूसरी बात है कि उसे छापने वाले को यह प्रकाशित कर के कुछ ख़राब करने का आनन्द ही आ रहा है और वाहवाही के आनन्द की सम्भावना बनी हुयी है। तीसरी बात यह है कि पढ़ने वाला यह पढ़ कर सिर धुन सकता है। तो सिर धुनता रहे, हम क्या करेँ? काव्य का स्वरूप ही ऐसा है कि सर्जक, रचना और प्रेक्षक से मिल कर पूरा काव्य-व्यापार होता है। यदि प्रेक्षक सहृदय नहीँ है तो हम क्या उसका अचार डाले?

ख़राब कविता लिखने वाले से छठा ख़राब सवाल:आप ख़राब कविता की इस जोरदार मुहिम को आगे कैसे ले जाने की सोच रहे हैँ?
ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का ख़राब जवाब:
  देखिए, पहली बात तो यह है कि यह मुहिम नयी नहीँ है। हम केवल इसे नाम और आवाज़ देना चाह रहे हैँ। पहले भी इस मुहिम की कविताएँ बड़े सभागारोँ मेँ, भवनोँ मेँ, मेलोँ मेँ पढ़ी जाती रही हैँ। इसमेँ बड़े-बड़े नाम शामिल हैँ। लेकिन समय की माँग है एकता – ‘दुनिया के ख़राब कवियोँ एक हो जाओ।‘ पर विडम्बना वही है जो महाभारतकार वेदव्यास की थी, मैँ दोनोँ हाथ ऊपर कर के रो रहा हूँ पर मेरी कोई नहीँ सुनता। हमारे शुभचिन्तकोँ ने इसका एक उपाय ढूँढा है। ख़राब कवियोँ, अगर तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीँ है तो पाने के लिए है – ‘ख़राब कवि सम्मान’। हम हिन्दी के हर ख़राब कवि को पाँच रुपए का पुरस्कार देना चाहते हैँ। चूँकि कवियोँ को शुरू-शुरू मेँ यह पुरस्कार लेने मेँ शर्म आ सकती है इसलिए हम उनके पते पर पाँच रूपए का मनीऑर्डर भेजने का विचार कर रहे हैँ। जो व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध होँगे उन्हेँ पारले-जी का पाँच रूपये वाले बिस्कुट सम्मान स्वरूप दिया जाएगा। हम तो जानते ही हैँ कि पुरस्कार पाँच रूपए का हो या पाँच लाख का, भावना देखनी चाहिए। जैसे कुछ वेबसाइट आर्काइवल के लिए काम कर रही है, हम हर ख़राब कवि की पहचान कर के उसे पुरस्कृत करने का काम करेँगे। जल्दी ही हम आपको इसकी अहर्ता के लिए न्यूनतम शर्तें और पुरस्कार के नियम बताएँगे। इस ख़राब कवि सम्मान योजना का परिणाम आप सन् २०४० में देखने को अवश्य मिलेगा।

ख़राब कविता लिखने वाले से आख़िरी ख़राब सवाल: आप की कविता ‘ख़राब कविता’ को आप ख़राब क्योँ कह रहे हैँ? गिद्ध से आपका क्या तात्पर्य है? 
ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवि का आख़िरी ख़राब जवाब:
  गिद्ध की दृष्टि पैनी होती है। वे बहुत दूर से अपने आहार को पहचान लेते हैँ। हिन्दी में इस का अनुप्रवेश इलियट के पङ्क्तियोँ को बदल देने से हुआ। मूल पङ्क्तियाँ थी – ‘ह्वाइ शुड द एज्ड ईगल स्ट्रेच इट्स विङ्ग्स’। यह पङ्क्तियाँ अज्ञेय की आलोचना मेँ ‘बूढ़ा चील’ से बदल कर ‘बूढ़ा गिद्ध’ कर दी गयी थी। हालाँकि गिद्धोँ के कम हो जाने के कारण हमारे पास ख़राब कविताओँ को सराहने के सिवा और कोई चारा नहीँ बच जाता क्योँकि जिनसे इस दायित्व उठाने की आशा थी वे खुद के सिंहासन की जड़ेँ मजबूत करने मेँ लगे हैँ और प्रोत्साहन के नाम पर ख़राब कविताओँ को परश्रय दे रहे हैँ। उन्हीँ से हमेँ ख़राब कविता आन्दोलन के समर्थन की आशा बची है। बाकी तो झोला उठाने मेँ, वाहवाही करने मैं और सन् १९९४ की अपनी उपलब्धियाँ बताने मेँ व्यस्त हैँ। वे किसी तरह के आशा के योग्य ही नहीँ है।
            अब आते हैँ आपके प्रश्न के पहले हिस्से पर – निश्चय ही उक्त ‘ख़राब कविता’ एक बेहद ख़राब कविता है। इसमेँ रसदृष्टि की ‘हानादानबुद्धि त्याग’,  ‘सहृदयता’, ‘मूल्यबोध’ जैसी संवेदनगत अन्त:प्रक्रियाएँ नहीँ हैँ। ध्वन्यात्मक दृष्टि से उस कविता मेँ लक्षणा नाम-मात्र की है, व्यञ्जना बड़ी ही छिछली स्तर की है। मार्क्सवादी दृष्टि से यह जनचेतना या क्रान्ति की पक्षधर नहीँ है। न उस कविता मेँ अलङ्कार है, न वक्रोक्ति है, न छन्द है, न रीति है, न गुण है। काण्ट की दृष्टि से न तो यह आनन्द जगाती है, न ही सार्वभौमिक अपील है, बल्कि उसमेँ एक उद्देश्य छुपा है जो कि काण्ट को पसन्द नहीँ। और काण्ट के ही अनुसार सौन्दर्यबोध की ‘सदाशयता की सार्वजनीन आवश्यकता’ का अन्तिम गुण भी नहीँ है।
            अब आप कहेँगे कि काव्यमीमाँसा और आस्वाद के लिए यह मानदण्ड पुराने और खारिज़ किए हुए हैँ। मैँ आपकी इस बात का समर्थन करता हूँ। अच्छे आचार्य की पहचान है कवि-हृदय को तत्क्षण समझ लेना। इसलिए आप जैसों के लिए, जो ‘ख़राब कविता’ मेँ सौन्दर्यबोध देखते हैँ उनके लिए ही ख़राब कविता नाम की नयी विधा की पेशकश कर रहा हूँ। आशा है आप सभी ख़राब कविताओँ को अपनी अपूर्व दृष्टि से तत्क्षण पहचान लेँगे।

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