यूक्रेन के लेखक यूरी बोत्वींकिन के नाटक \’अंतिम लीला\’ का आज अंतिम हिस्सा पढ़िए-
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इस नाटक के पात्रों में हिंदू देवी-देवताओं के साथ कुछ स्लाविक पौराणिक ईसाईपूर्व देव-देवता भी हैं, जिनका ऐतिहासिक आधार हिंदू चरित्रों की तुलना में कहीं कम प्रमाणित किया गया है, यहाँ तक कि कुछ वैज्ञानिक इन चरित्रों को नवरचित भी मानते हैं। कारण यह है कि ईसाई धर्म आने के बाद पुराने रूस (जो कि अधिकतर आधुनिक युक्रैन का ही नाम हुआ करता था) में पुराने धर्म-सिद्धांतों का नामोनिशान मिटाने का पूरा प्रयास किया गया था। फिर भी स्लाविक सनातनी परंपराओं की कुछ बची हुई झलकें आजकल एक नई परंपरा में विकसित हो रही हैं और इसके कार्यकर्ताओं की मूल प्रेरणा वैदिक सानातनी संस्कृति से ही आ रही है। ऐतिहासिकता का कोई दावा न लगाते हुए स्लाविक मिथकीय चरित्रों को इस नाटक में मात्र प्रतीकवादी रूप में लाया गया है।
पात्र –
कृष्ण
लेल – कुछ लोककथाओं के अनुसार पौराणिक स्लाविक वसंत और प्रेम का देवता, जो कृष्ण की भांति एक चरवाहा था और मुरली या वीणा बजाकर लड़कियों-महिलाओं को मोहित करता था। उन्हीं कथाओं के अनुसार उसकी बहन लेल्या वसंत की देवी होती थी। दोनों के नामों को संस्कृत “लीला” शब्द से जोड़ा जाता है।
रुसावा, ज़्लाता, होर्दाना – स्लाविक जनजाति की युवतियाँ।
प्रिलेस्ता – स्लाविक वैद्य महिला।
ज़ोर्याना, क्विताना – प्रिलेस्ता की दो चेलियाँ (निःशब्द)
भारतीय नर्तकियाँ (निःशब्द)
शक्ति देवी (काली और लक्ष्मी के रूप में)
यमराज
स्लाविक मृत्यु देवी (निःशब्द)
गायन दल
दृश्य 5
भारतवर्ष में स्थित मधुवन…
मंच पर भारतीय शास्त्रीय नर्तकियों के वस्त्र पहने युवतियों का दल शास्त्रीय संगीत के साथ कृष्ण को समर्पित नृत्य प्रस्तुत कर रहा है। उनकी गति और अभिव्यक्ति में विरह की उदासी छाई है… नृत्य के मध्य में अचानक संगीत में बांसुरी का स्वर मिल जाता है। नर्तकियाँ एक क्षण के लिए स्तब्ध रह जाती हैं, फिर उनके चेहरे आनंद से चमक उठते हैं। मंच पर मस्त अवस्था में, बांसुरी बजाते हुए कृष्ण आता है, अब बिना शॉल और थैले के। आनंद की चीखों के साथ लड़कियाँ उसको घेर लेती हैं। नृत्य का शेष भाग वह कृष्ण को घेरकर कर रही हैं, उनकी तुरंत बदली हुई अभिव्यक्ति श्रृंगार रस तथा हर्ष से भरी दिखाई दे रही है। कृष्ण मध्य में अपनी लोकप्रिय मुद्रा में खड़े बांसुरी बजा रहा है। संगीत और नृत्य बंद हो जाता है, कृष्ण नर्तकियों को प्रणाम करता है।
कृष्ण – हर्षित हुआ है मेरा हृदय, देवियो! सुखी रहो! और बात करता तुम लोगों से किंतु इस यात्री को विश्राम की है आवश्यकता।
युवतियाँ कृष्ण को प्रणाम करके सुखपूर्वक मंच से चली जाती हैं। कृष्ण प्रेम, आनंद और करुणा से कुछ देर चारों ओर दृष्टि घुमाता है। फिर भावों से भरकर फिर बांसुरी बजाने लगता है। इस बार बांसुरी की धुन में अचानक दूर से भैरवी शैली का संगीत मिल जाता है, “ऊँ नमः शिवायः” मंत्र गूंजता है और दूसरे कोने से मंच पर आती है शक्ति देवी काली के रूप में। बिखरे लंबे बाल, रक्तरंजित मुंह, कपाल–माला, लाल साड़ी, हाथों में तलवार, आँखों में विनाशक किंतु शांत ठंडक। उसको देखकर कृष्ण बांसुरी नीचे करता है। एक पल के लिए सन्नाटा फैल जाता है।
कृष्ण – शक्ति… मैं जानता था कि राधा से पहले तुम आओगी… (उसकी बिखरी हुई अवस्था देखकर, व्यंग्य से) सजने-संवरने में उसको अधिक समय लगता है…
शक्ति (उसके व्यंग्य को नज़रअंदाज़ करके) – उसको नहीं पता है कि तुम आए हो। इन लड़कियों को भी मैंने बताने से मना किया है।
कृष्ण (दृष्टि नीचे करके) – इसका यही है अर्थ कि जानती हो हमारे इस मिलन का परिणाम…
शक्ति (एक कदम आगे रखकर, भाव से) – काश नहीं जानती! किंतु कैसे?.. इतना गहरा जब तुम में उपस्थित हूँ…
कृष्ण (फिर उसको व्यंग्य से देखकर) – जितना शिव महादेव में उपस्थित हो – उससे भी गहरा?
शक्ति – तुम्हारा क्या है उससे लेना-देना?! महायोगी के साथ एकता प्राप्त की थी मैंने!
कृष्ण (ठंडे भाव से) – एकीकरण के उस मिलन में मग्न, दोनों उस तृतीय को कहाँ देख पाए जो घायल अग्नि की तड़प में सिमटकर रक्तरंजित वेदी पर निःशब्द चिल्ला रहा था… वह थी कामदेव की निर्दोष आत्मा…
शक्ति (क्रोध से) – तुम चुप रहो! तुमने कम रक्त बहाया है?!
कृष्ण (कड़वाहट से) – बहुत बहाया… सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं को मरवाया मैंने मर्यादा भूलकर और गंदे षड्यंत्र रचाकर… अब तुम को भी श्राप देना है?
शक्ति (शांत होकर) – अन्याय को तुम हराना चाहते थे किसी भी मूल्य पर…
कृष्ण (भावुकता से) – नहीं! कम से कम तुम उन भोले से भक्तों की भांति मत बनो! अन्याय के पक्ष को बस हराना होता तो उसी पक्ष में अपनी सेना मैं क्यों भेजता, उसमें जो मेरे ही अपनों की निश्चित मृत्यु थी और उनके हाथों से इस पक्ष के योद्धाओं की भी! शांति-समझौते की मेरी कोई बात उन रक्त के प्यासों के हृदय तक जब नहीं पहुंच सकी तो एक ही शेष उपाय था – उनको उन्हीं का सार दिखलाना! वे दोनों युद्ध में जब सहायता मांगने आए थे तो मेरा यह अंतिम प्रयास था समझाने का : नहीं जुड़ पाते हो भाइयों की भांति तो मुझे भी तोड़ो! मेरे अपनों को भी लड़वा दो मुझसे! मुझे बड़ा ही निपुण योद्धा था बनना उनके विरुद्ध निहत्था खड़े होकर, ऐसा न?! (दुख में सिर हिलाता है) दुर्योधन से तो आशा कम ही थी किंतु मेरे प्रिय मित्र अर्जुन को भी कहाँ समझ में आया वह संकेत! फिर दोनों ने अपना अपना चुनाव किया प्रसन्न होकर! यदि मैं सीधे समझाता उस समय संभवतः युद्ध स्थगित भी हो जाता , परंतु उनकी वह आपसी घृणा बढ़ती ही जाती! मेरी वह घोर निराशा फिर अचानक राक्षस बनकर मन मैं बैठ गई, फिर मैंने न केवल होने दिया, किंतु उकसाया भी!..
शक्ति – अर्जुन तो रुकने को तैयार भी हो गया था!
कृष्ण (कड़वी मुस्कान से) – निश्चय! नहीं… मुझे उसको दिखाना था कि वास्तविक प्रबोधन कैसा होता है, वह आधा पाप करने पर नहीं आता… उसकी शंका में भी एक पाखंड था। सही भी होता वह यदि अर्जुन घबराया होता युद्ध और नरसंहार से… किंतु वध से नहीं, “अपनों के वध” से ही घबराया वह! शेष लाखों सैनिकों की उसको क्या पड़ी थी! एक योद्धा होकर युद्ध करता वह आया था और उसका हाथ पहले कभी कांपा नहीं था। और इधर भाई तथा गुरु लोग खड़े हैं सामने… अब बड़े मानवीय हुए हो, भाई?! अब आ गई दया?! अवश्य होगा हृदय-परिवर्तन… किंतु इन्हें भी मारने के पश्चात!! (थोड़ा चुप रहकर, आह भरकर) क्या-क्या नहीं कहना पड़ा मुझे उसको लज्जित करते हुए… (हँसकर) और अब सुनने में आया है कि एक पवित्र ग्रंथ उस बातचीत का बना है, उनेक अध्यायों का! वे कौनसी दो मूर्ख सेनाएँ रणभूमि में प्रतीक्षारत खड़ी रहेंगी उतनी देर कि दो सखाओं का एक लम्बा गपशप पूरा हो जाए! नहीं, इस बात का तो अर्जुन को श्रेय देना बनता है, कम ही शब्दों में वह समझ गया… पर कोई आपति नहीं है, प्रबोधितों ने ही किसी भले उद्देश्य से वह पुस्तक रची होगी…
शक्ति (हँसकर) – फिर तुमको आनंद-सा भी आने लगा न, विनाशक बनकर सर्वनाश को जब चलाया?
कृष्ण (सिर हिलाकर, गहरी सोच में) – नहीं… निराशा जब सीमाएँ पार करके फूट जाए तो एक विचित्र सा उत्साह अवश्य आता है, किंतु आनंद नहीं…
शक्ति – और वह क्या शत्रुता हुई तुम्हें मर्यादा से कि धोखा कर करके दिलवाते गए जीत?
कृष्ण – वही, दर्पण दिखलाना था मर्यादा के रखवालों को… अब कोई एक कहे “धोखे से मारो शौर्य भूलकर!” और दूसरा मारे – किसके चरित्र का अधिक हुआ खुलासा? उनकी दृष्टि में यदि मैं नारायण हूँ तो अब कुछ भी कहूँ?! और वे करेंगे?! उस राक्षसी उत्साह में मैं रुका नहीं… पर वे भी तो नहीं रुके! तुम सोच नहीं सकती हो कितनी आशा थी मेरे हृदय में कि कोई उनमें से मेरा विरोध करके अपना सम्मान और मेरा लोगों पर विश्वास बचाए!! किंतु नहीं… मैं धूर्त आदेश देता गया तथा झटका खाता गया उनका वह पालन देखकर… हाँ, एक उस युद्ध में था सच्चा क्षत्रिय, किंतु हमारे पक्ष में वह नहीं था… अकेले कर्ण में ही वह साहस था कि मेरी बातों में न आए और मुझसे भाड़ में जाने को कहे!.. विशिष्ट एक आनंद था मेरे लिए उसका रणभूमि में सम्मान से उतरना… हाँ, मेरे ही आदेश पर धोखे से अर्जुन ने उस पर छोड़ा बाण!… पर मृत्यु मेरे लिए तब कर्ण की नहीं हुई , अर्जुन की…
शक्ति – उतने यदि केवल परखनेवाले थे तो भीष्म पर क्यों भड़क गए उतना कि रथ का छत्र उठाकर उसको मारना चाहा?
कृष्ण (धीमे, कठोरता से) – क्योंकि वह था तुम्हारे शिव के जैसा…
शक्ति (आश्चर्य और क्रोध से) – अर्थात?!
कृष्ण – एक व्यर्थ सी प्रतिज्ञा लिए उसने भी तो कामदेव को मारा था, अपने ही अंदर… ऐसा नहीं किया होता भीष्म ने और गंगा देवी के ही वंशज राज करते तो संभवतः यह घोर संकट नहीं आता इस पूरे देश पर… अब आ गई समझ में बात? प्रेम को ठुकराने से ही आता है प्रलय!
शक्ति (क्रोध से) – फिर से वही!
कृष्ण – हाँ, बहुतों की मृत्यु का मैं कारण हूँ किंतु वे सब थे योद्धा या शत्रु, उनका मरना फिर भी कर्म-धर्म का भाग था… किंतु जो स्वयं अमृत जैसा होकर अपने उदारता भरे हाथों में ले आए प्रेम-वरदान, उसकी हत्या…
शक्ति (क्रोध से) – बस भी करो!
कृष्ण – फिर क्या… जिसने तुम्हारे अनुरोध पर तुम्हारे प्रेम के वास्ते त्यागे प्राण, बस कुछ समय पश्चात उसी के राख के ऊपर कदम रखकर गृहस्थिनी बनी तुम महायोगी की, फिर तंत्र की भी ऊंचाइयों को छूकर महाशक्ति कहलाई…
शक्ति (तलवार उठाकर) – काट डालूंगी तुम्हें!!
कृष्ण (हँसकर) – काट दो! मुझे बड़ा पड़ता है अंतर…
शक्ति (शांत होकर, तलवार नीचे करके) – नहीं पड़ता है, जानती हूँ… इसीलिए कुछ कर नहीं सकती हूँ…
उतने में काली के क्रोध की आवाज़ पर मंच पर आता है यमराज। किंतु यह देखकर कि वह किससे बहस कर रही है रुक जाता है भयभीत होकर।
क़ृष्ण (उसको देखकर, व्यंग्य से) – अब देखो, मृत्यु देव यमराज पधारे हैं तुम्हारे क्रोध का स्वर सुनते ही। तुम क्रोध करो और कोई न मरे – यह कैसे हो सकता है! (यमराज की ओर बढ़ते हुए, हँसकर) आधा ही मर गया हूँ, भाई, आ जाओ, शेष करो!
कृष्ण को आते देख यमराज डरकर पीछे हटने लगता है, किंतु कृष्ण उसकी धोती का छोर पकड़कर उसको मंच के केंद्र की ओर खींचने लगता है।
यमराज (डरकर, छूटने का प्रयास करते हुए) – छोड़ो मुझे , दुस्साहसी कहीं के! अब मेरे लोक में भी तुम्हारी हरकतों का भय फैला हुआ है! छोड़ो! जाने दो! (छूटकर मंच से भाग जाता है, शक्ति ठहाका लगाकर ज़ोर से हँसती है)
शक्ति – बढ़ा है वास्तव में असीमता तक तुम्हारा यह दुस्साहस! पहले कभी नहीं देखा है मैंने कि कोई हँसकर खींच रहा हो अपनी ओर मृत्यु के देव को और वह अभागा भाग रहा हो डरकर! (कृष्ण के थोड़ा पास आकर) तुम्हारी आँखों में जीवन की पूर्णता तथा मृत्यु से निडरता दोनों ही है… यमराज इन आँखों से दृष्टि नहीं मिला सकेगा। वह पीछे से वार कर सकता है, कृष्ण… सावधान रहना!
कृष्ण – निश्चय ही कर सकता है… तुम्हारा ही तो सेवक है…
शक्ति (तलवार धरती पर रखकर) – इतने क्यों क्रोधित हो मुझसे, बताओ! सर्वश्रेष्ठ योगी से जुड़कर मैंने उसकी सहायता की थी महाशक्ति का परिचय संसार को देने में! कामदेव तो स्वयं ही प्रसन्न होता इसके लिए अपने प्राण देने को…
कृष्ण – प्रसन्न तो होता ही… प्रसन्नता, हलकेपन और संतुलन के सिवा उसमें तो था ही क्या?!.. न स्वयं से छुपी घृणा, न विश्व को नष्ट करने की चाह… बस जीवन-रस और आनंद बांटने की इच्छा… यही कहेंगे न, कि शिव के क्रोध से वह जला दिया गया था? झूठ! क्रोध से नहीं – ईर्ष्या से!.. वसंत के पुष्प सी वह चेतनावस्था कहाँ उपलब्ध थी क्रोधी तपस्वी को?!..
शक्ति – तुम्हें लगता है कि संहार का देवता होना कोई अयोग्य भाग्य है और बस वही उसे चुनता है जो प्रेम और आनंद से डरता हो?! ब्रह्मांड के सृजन में ही दोनों थे, अमृत और विष! तुम्हारे पुष्प से सकरात्मक देव इस दुविधा को जानकर डर गए थे! अंधेरे पक्ष का उत्तरदायित्व किसी को लेना था ही अपने ऊपर! और बस वही ले पाया जिस में न केवल सामर्थ्य सब से अधिक था, किंतु उदारता भी!
कृष्ण (आह भरकर) – महान है वह, कोई संदेह नहीं है… किंतु संसार को शिव से कौनसी सीख मिली है? यही कि प्रेम एक बाधा होता है आध्यात्मिकता के मार्ग में!! अब काम मरेगा प्रतिदिन ज्ञान व शक्ति के प्यासे सिद्धों की कठोरता से!
शक्ति – वह शिव का मार्ग था बस! अपनी यह साधना किस पर थोपी उसने?! और वैसे भी प्रेम का वरदान ग्रहण करने की क्षमता वास्तव में होती लोगों में तो क्या लगता है, शिव का उदाहरण उन्हें रोक पाता?! तुम्हें रोक पाया?!!
कृष्ण बेबसी में मंच पर रखे एक पत्थर पर बैठ जाता है दृष्टि नीचे करके। शक्ति कपाल–माला भी उतारकर नीचे रखती है, फिर एक कपड़ा और छोटा सा शीशा निकालकर मुंह से रक्त पोंछती है। फिर कृष्ण के निकट आकर खड़ी हो जाती है।
शक्ति – हर कोई थोड़े ही तुम्हारे जैसा भाग्यवान होता है कि बचपन से ही प्रेम ही प्रेम मिलता रहे और मन रहे संतुलित! संतुलन से पहले प्रेम-सिद्धि असंभव है! अपने बिखरे भावों व क्रोध पर दृढ़ नियंत्रण पाने के प्रयास में शिव पर क्या बीती है वह तुम कहाँ जान पाओगे! (थोड़ा रुककर) मेरी ही भूल थी वह कि प्रेम में पागल होकर कुछ देख नहीं सकती थी अपनी चाह के आगे! शिव तब तैयार नहीं था, एक भयानक आंधी चल रही थी उसके अंदर! वह मेरा अहंकार ही था जो काम के चरणों में गिर पड़ा! और पुष्प-सा देव मना नहीं कर पाया… अनुचित वह समय था… तुम सोचते हो कि उस घटना से मेरे हृदय को कम ठेस पहुंची?! फिर भागी क्यों वहाँ से उतना दूर और फिर स्वयं संयासिनी बनकर उस पाप का प्रायश्चित करने लगी?!.. (अचानक मुस्कुराकर) पर भाग्य का यह खेल तो देखो! कामदेव का जादू होकर ही रहा! जब शिव का असंतुलन और मेरा अहंकार नहीं रहे तब जुड़ गए हम दोनों दिव्य योग में! तुम पूछ रहे थे कौनसी सीख मिली संसार को इस घटना से, न? यही कि प्रेम-संबंध तभी पवित्र बनता है जब दोनों हों पहले से आत्मनिर्भर! अपरिपक्वता, क्रोध, वासना से मुक्त होकर ही रुद्र-पार्वती बन पाए शिव-शक्ति!!
कृष्ण सिर उठाकर शक्ति को देखता है, उसकी आँखों में पीड़ा और श्रद्धा दोनों मिली हुई हैं।
शक्ति – हाँ, शिव ने काम का वध किया है! किंतु अर्धनारीश्वर को भी तो वही प्रकट कर पाया, न?! और तुम?! तुमने तो प्रेम कभी नहीं ठुकराया, न? स्वयं को देखो! विस्थापित, श्रापित, विचलित, अकेले!.. अब भटककर यहाँ फिर आए यह भ्रम लेकर कि पूर्व समय की भांति प्रतीक्षारत मिलेगी राधा?.. मूर्ख! अब वह रही कहाँ इस लोक में!..(यह बोलते हुए शक्ति की आँखों में आँसू निकलते हैं)
कृष्ण सिर नीचे करके हथेलियों में चेहरा छुपा लेता है।
शक्ति (आँसू पोंछते हुए) किंतु एक बात तो अवश्य है तुम में, कृष्ण… इस काली को तुम्हीं रुला सकते हो…
कृष्ण (सिर उठाकर, आँसू भरी आँखों से उसको देखते हुए) – मैंने तुम्हें दुखी किया है, देवी!..
शक्ति (न रोने के प्रयास में आँखें बंद करते हुए और हाथ से कृष्ण को रुकने का संकेत देते हुए) – चुप !! यही हो तुम!.. यही तुम्हारा सार है!.. लहू-लुहान हो स्वयं का हृदय फिर भी सब की पड़ी रहती है!.. तुम्हारा क्या करूँ?!
शांत हो लेने के लिए शक्ति गहरी साँस लेते हुए इधर–उधर चलने लगती है, कृष्ण फिर चेहरा हाथों में छुपा लेता है।
शक्ति (थोड़े शांत भाव से) – तुम्हारे अंदर मेरी जिस गहरी उपस्थिति की बात कही थी मैंने, उसका तुम पूरा अर्थ नहीं समझे हो… मैं वह स्त्री-रूप हूँ जो तुम्हारे साथ भिन्न-भिन्न शरीरों में रहा जनम से और उससे पहले से भी… सर्वप्रथम मैं देवकी हूँ, तुम्हारी माँ, जिसका तुम्हारे इस व्यक्तित्व में योगदान लोगों के ठीक से समझ पाने के परे रह जाएगा… बहुत फिर बोलेगा विज्ञान गर्भावस्था में माँ-बच्चे के नाते पर… कि माँ का प्रत्येक भाव, सुख-दुख, भय-साहस, हँसना-रोना कितना गहरा प्रभाव छोड़ जाते हैं बच्चे के मानस पर गर्भावस्था में ही… अब सोचो, कारागार में डाली हुई स्त्री घोर आतंक में तथा अपने इतने बच्चों के मारे जाने की अकथ्य पीड़ा में रहती हुई… वह कैसे भाव अपने पेट में पलते उस नवीन जीव के साथ बांट पाती?.. मनोविज्ञान की तुम सुनो तो अवश्य तुमको जन्मना था किसी मानसिक अस्थिरता या फिर विकलांगता के साथ!..
कृष्ण (आश्चर्य से चेहरा उठाकर) – किंतु… कैसे कर पाई तुम?!..
शक्ति (दुखपूर्वक हँसकर) – यही होती है स्त्री-शक्ति! दबते-दबते, दुखते-दुखते एक सीमा आती है अचानक जिसके उस पार भाव ही नहीं रहते हैं… विचित्र, अलौकिक स्थिरता… तथा असीम शक्ति… तब स्त्री बनती है काली!.. हाँ, तुम्हें उस कारागार के आतंक से बचाने के लिए देवकी ने मेरी ही चेतनावास्था अपनाई थी!.. तुम्हें पहचाना सा लगा सुनने में, न? वही तो होती है तुम्हारी भी मनोस्थिति जब किसी संकट का करते हो सामना! समग्र, निडर, उर्जावान, उत्साहित, बंधन-मुक्त!.. एकसाथ अतिभयानक एवं अतिसुंदर!.. देवों के भी अपने और राक्षसों के भी!.. क्या सोचा सब ने? कि तुम्हारी यह विशेषता विष्णु-अवतार होने से आई है?! घंटा! यह मेरी देन है!! माँ की देन!.. (थोड़ा रुककर, फिर हँसकर) किंतु चिंता की बात नहीं है, ग्रंथों में काली-पुत्र नहीं कहलाओगे!..
कृष्ण भावपूर्ण मौन में प्रेम–श्रद्धा के भाव से आँखों में आँसू लिए शक्ति को देखे जा रहा है।
शक्ति रुककर अपने बिखरे बाल संवारकर बाँध लेती है, साड़ी थोड़ा ठीक करती है, फिर धरती पर पड़ी नर्तकियों की छोड़ी फूलों की माला उठाकर गले पर डालती है, अलग से एक फूल बालों में लगा लेती है। फिर पत्थर पर बैठे कृष्ण के पास आकर उसके सामने धरती पर उतरकर घुटनों के बल बैठ जाती है उसकी आँखों में देखते हुए। कृष्ण हाथ बढ़ाकर उसके चेहरे पर गिरे हुए कुछ बाल ठीक करता है प्यार से…
कृष्ण – लक्ष्मी के रूप में कितनी सुंदर हो…
शक्ति (नरमता से) – मेरा यही रूप फिर प्रकट हुआ यशोदा में जिसको सर्वप्रथम श्रेय जाता है तुम्हारे प्रेम करने के इस अद्भुत सामर्थ्य का… संभवतः कुछ अधिक ही उसने तुमको दिया स्नेह, पर जो कठोरता लेकर तुम जन्मे थे उसको संतुलित करने हेतु वह सही था… पड़ोसियों की वह उलाहनाएँ सुनना, तुम्हारे क्रोध को देखकर घबरा जाना, बिना घबराहत को दिखाए, तुम्हारे रुठने पर भी सोच-समझकर डांटना… और फिर बड़े हो जाने और घर से छूटने पर प्रत्येक युद्ध-सामाचार को थमे हृदय से सुनना कि क्या दुस्साहस अब की बार कर डाला होगा राजकुमार बने गोपाल ने!.. गांधारी ने तो तुमको श्राप दिया था अपने पुत्रों की मृत्यु का दोष देकर, किंतु उस श्राप की पीड़ा सर्वाधिक किसने भोगी, पता है?.. जब तक एक माँ का प्रेम है जीवित इस संसार में तुम प्रेम के कौनसे पतन की बात करते हो?!..
कृष्ण की आँखों से फिर आँसू बहने लगते है।
शक्ति – फिर वे सब गोपियाँ… तुम्हें तब क्यों लगा कि युवतियों के प्रेम में शुद्ध भक्ति के साथ जो पाए तुमने स्वामित्व-भाव तथा ईर्ष्या वह उनका कोई दोष था? तुम्हारा जो स्वभाव तुम्हें मिला था माओं के परिवेश से वह था अपने में परिपूर्ण, ईर्ष्या या स्वामित्व का कोई स्थान नहीं था उसमें! किंतु सभी का वह नहीं होता! तुम्हें अपने महत्व का पक्का हो अनुभव तभी न तुम कुछ पाकर भी नहीं डरोगे उसको खोने से! यदि किसी लड़की ने तुमसे प्रेम करके जताया तुम पर अधिकार, तो क्या, तुम्हें बस जलनेवाली प्रेमिका दिखी? असुरक्षित बच्ची नहीं?! (थोड़ा रुककर) इसके सिवा एक स्पष्ट सी बात तो यह भी है कि जिसको प्रकृति ने कोख में शिशु पालने का दायित्व सौंपा है, उसके लिए प्रेम-संबंधों में सावधान रहना और प्रेमी के टिकने का अनुमान लगाना स्वाभाविक ही है। और स्त्री के प्रेम की परमावस्था का यह एक मुख्य लक्षण है कि उस में माँ बनने की चाह जाग जाती है! रास-लीलाओं की नायिकाएँ तुमने देखी उनमें, किंतु उन्होंने तुम में एक पिता भी देखा… (रुककर) फिर भी, तुम न रुठो तो ध्यान भी सीख लिया उन्होंने, अपनी कल्पना की शक्ति से तुम्हें बसा लिया अपने ही अंदर… जिसको कहेंगे : कृष्ण बंट गया, हर गोपी का हुआ अपना-अपना…
कृष्ण रोने को थामते हुए आँखें बंद करके समझने के भाव से सिर हिला रहा है।
शक्ति (रोमांचक भाव से) – फिर मैं बनी थी राधा रानी… बस वह अकेली थी जो आरंभ से ही जानती थी कि तुम नहीं रहोगे साथ… फिर भी समा गई तुममें… उत्साह भरी थी वह, बहुत ही भावुक, उस अवस्था में उसने खेल ही खेल में जो झगड़े किए तुमसे और डांटा अन्य गोपियों की बात को छेड़कर, तुम, बावले, उससे भी दुखी हुए?! (रुककर) जिसमें हो स्वामित्व, क्या नहीं वह होता है प्राण देने को तैयार? और राधा से यदि किसी ने तुम्हारे लिए जीवन त्यागने को कहा होता तो पलक की झपक भर में तैयार हो जाती!.. तुम्हारे जाने और विवाह करने के पश्चात भी…
कृष्ण फिर चेहरा हाथों में छुपा लेता है, उसके कंधे कांप रहे हैं।
शक्ति – फिर रुक्मिणी… उसे किसी व्यर्थ प्रतियोगिता में उलझना नहीं था… किंतु जिस दिन से तुम उसको बचाकर घर ले आए थे तब से वह इस पर आश्वस्त होने को तड़प रही थी कि वह तुम्हारा प्रेम ही था, न कि उदारता, चयन ही था, न कि विवशता… और तुम कितना आश्वस्त कर पाए?.. प्रेम तो करते थे उससे तुम किंतु घर भी कितना रहते थे? राजनीति में जो व्यस्त थे… फिर और रानियाँ जब आईं तो वही हुआ होने लगा मनोरंजन – मिलकर गपशप, बहस भी। जब उन्हीं के साथ रहने लगी तो पीछे क्यों छूटे?.. उस बात को भी अधिक ही कुछ गंभीरता से लिया तुमने…
कृष्ण का कंपन बंद हो जाता है, अब वह बस चेहरा छुपाकर बैठा है।
शक्ति – फिर वह श्रेष्ठ नायिका तुमहारी, जिसको देखकर तुम्हें दिखा अपना ही प्रतिबिंब… तुम्हारे ही जैसे जो लीन थी उच्च प्रेम-अवस्था में…
कृष्ण चेहरा उठाकर ध्यान से उसको देख रहा है।
शक्ति – सही पहचाना तुमने मुझको द्रौपदी में… भविष्य में फैलेगी अटपटी सी बात कि बस कुंती के बिना सोचे बोलने पर उसे बनना पड़ा पांचाली… किंतु वह दासी तो नहीं थी न, एक नवविवाहित राजकुमारी थी! और युग भी तब यह नहीं आया था की स्त्री-सम्मान की सुरक्षा न हो… कृष्णा थी वह… इसीलिए बिना कुछ बोले ही गूं जता रहा एक वाक्य बीच तुम दोनों के : हम दोनों का अभाव न हो संसार को, अपनाना होगा यह अभाव एक दूसरे का… (दुखपूर्वक मुस्कुराकर) किंतु प्रलय की गति देखो! अनेक प्रेम-संबंधों में उलझे पुरुष को “कन्हैया” कहा जाए तो शर्माकर भी फूलेगा गर्व-प्रसन्नता से, किंतु यदि “द्रौपदी” पुकारा जाए स्त्री को तो एक घोर अपमान!.. “कृष्णा” तो वह तुम्हारी होगी, कृष्ण… संसार के लिए तो वह बस रह गई द्रोपदी जिसने पाँच पुरुषों से विवाह किया। और तो और लोगों ने द्वेष में पांचाल प्रदेश की इस राजकुमारी के नाम का ही अर्थ बिगाड़ दिया। ‘पांचाली’ में अब उनके व्यंग्य आ जुड़ा।
अब ऐसा लगता है कि कृष्ण में रोने के लिए भी शक्ति नहीं रही है, वह बेबस होकर पत्थर से नीचे फिसलकर शक्ति के पास ही धरती पर बैठकर अपना सिर उसके कंधे पर रखता है।
शक्ति (मुस्कुराकर) – जहाँ से घूमकर आ रहे हो न, वहाँ भी तो मुझसे मिले थे… रुसावा नाम की गोरी सुंदरी… जो पेट में अब तुम्हारा शिशु पाल रही है…
कृष्ण (झटके से सीधे होकर, आश्चर्य से उसकी आँखों में देखता है) – शिशु?!…
शक्ति – तुम्हें नहीं बताया भोली ने… वह डर रही थी न कि फिर तुम्हें यह न लगे कि सूर्य बांधने का प्रयत्न हो रहा है..
कृष्ण नीचे गिरकर शक्ति की गोद में चेहरा छुपाता है।
शक्ति (मुस्कुराते हुए) – और हाँ, वह प्यारी सांवली बालिका जो राजकुमारी जैसे पाली जाएगी लेल की जनजाति से – वह भी तो मैं ही हूँगी…
कृष्ण के कंधे फिर कांप रहे हैं। शक्ति उसके बाल सहला रही है।
शक्ति (प्यार और भावुकता से) – मेरे पिता… मेरे सखे… मेरे तुम प्रेमी हो… मेरे पति… और पुत्र… मेरे सब कुछ!.. मेरे नारायण… नहीं है तुम में कोई दुष्टता… तुमने किसी की पीड़ा नहीं चाही… समर्पित होते गए विश्व को सूर्य की भांति… इसीलिए करती हूँ तुमसे प्रेम!.. सर्वाधिक प्रेम करती हूँ तुमसे… (अब शक्ति की आँखों में आँसू निकलते हैं)
थोड़ी देर बाद कृष्ण का शरीर शांत हो जाता है। फिर वह धीरे से उठकर खड़ा हो जोता है। फिर शक्ति को हाथ देकर उसको भी उठा लेता है। दोनों खड़े होकर एक दूसरे को देख रहे हैं। कृष्ण के अभी रोए हुए चेहरे पर एक अद्भुत अलौकिक शांति है।
कृष्ण (मुस्कुराकर) – अब मुझे देखनी है अंतिम छवि तुम्हारी…
शक्ति (घबराकर और एक कदम पीछे हटकर) – तुम्हारा अर्थ क्या है?!…
कृष्ण – यमराज से कोई शत्रुता नहीं है। किंतु तुम जानती हो कि उसका मुख बिना हँसे मैं नहीं देख सकता… लेल के वहाँ एक ऐसी मृत्यु का संदर्भ सुना था जो स्त्री-रूप धारण करके आती है… मैं जानता हूँ कि वह भी तुम ही हो…
शक्ति (डरकर और पीछे हटती है) – तुम्हें पता भी है क्या बोल रहे हो?! वह स्त्री है वृद्ध, दुर्बल, कुरूप! तुम्हें नहीं मिलेगा आनंद उससे मिलकर!
कृष्ण – सभी डरते हैं उससे… किसी ने प्रेम नहीं किया होगा… इसीलिए कुरूप और दुर्बल हो गई है… युवावस्था भी छूट गई होगी क्योंकि किसी ने उसमें प्रेम-उर्जा नहीं भरी थी…
शक्ति – इन बातों से डरा रहे हो मुझे , कृष्ण! यदि उस रूप में मैं तुम्हें दिखी न, तो फिर कभी तुम्हारे साथ नहीं हो पाऊँगी!..
कृष्ण – तुममें ब्रह्मांड भर की जीवन-उर्जा है, शक्ति देवी, जिससे तुम माँ कि भांति पाल रही हो सब को… तुमने मुझे अपने सहयोग की पूर्णता भी दी है… और पूर्ण प्राप्त करके अधिक मैं कैसे मांग सकता हूँ… अब जानना है तुम्हें उस पक्ष से भी जहाँ… जहाँ संभवतः कोई पक्ष नहीं है…
शक्ति – किंतु मैं चाहती हूँ तुम्हें इस विश्व में देखकर आनंदित रहना! तुम तो अपनी हँसी और अपने प्रेम से इस विश्व को बदलने की भी क्षमता रखतो हो!!
कृष्ण – मेरी हँसी और मेरा प्रेम यहीं रहेंगे… किंतु तुम्हारा यह अमृत मैं नहीं पी सकता हूँ और… अपने पूरे अस्तित्व से मैं प्रेम करता हूँ तुमसे!! करता हूँ प्रेम… इसीलिए तो खोने को तैयार हूँ…
कुछ देर दोनों मौन में एक दूसरे को देखते हैं। फिर एक दूसरे को प्रणाम करते हैं। शक्ति मंच से चली जाती है।
कृष्ण प्रेम भरी दृष्टि से एक बार चारों ओर देखता है, फिर धरती पर गिरी अपनी बांसुरी उठाता है। उतने में मंच के जिस कोने मे शक्ति चली गई थी उससे मृत्यु देवी आ जाती है। उदास, उतरे रंग का चेहरा, ऊपर से नीचे तक एक काले कपड़े में लपेटी हुई। उसको देखकर कृष्ण के चेहरे पर एक अलौकिक चंचलता की मुस्कान खिल जाती है और वह बांसुरी बजाने लगता है। अचानक बांसुरी की धुन सुनकर मृत्यु मंच के मध्य में रुक जाती है, आधी बंद आँखें खुल जाती हैं, भावहीन चेहरे पर आश्चर्य सा भाव आ जाता है जो धीरे–धीरे आनंद में बदल जाता है। बांसुरी की धुन में दूसरे संगीत–यंत्रों के स्वर भी मिल जाते हैं और मृत्यु अचानक नृत्यात्मक ढंग से हिलने लगती है। फिर वह काला कपड़ा खोलती है और कढ़ाई से सजी लंबी सफ़ेद कमीज़ पहनी, लंबे सुनहरे बालोंवाली एक सुंदर युवती में बदल जाती है। आनंद के भाव से वह नृत्य करने लगती है बांसुरी बजाते हुए कृष्ण के चारों ओर मंडराते हुए। जब उसका नृत्य अपने चरम् बिंदु के निकट आता है तो संगीत थोड़ा धीमा हो जाता है और कृष्ण बोलता है।
कृष्ण (आनंद से मृत्यु को देखते हुए) – बच्ची जैसी पवित्र और सुंदर है यह तो!.. इससे भयभीत न रहकर यदि लोग मात्र अपनी दृष्टि बदल लें तो मस्त रहेगा जीवन भी! (आगे दर्शकों की ओर देखकर बोलता है) सुखी रहो, अद्भुत संसार! मैं धन्य हूँ! क्षमा करना यदि पड़ा हूँ तुम पर भारी! रख लो बदले में यह मेरा हलकापन! प्रिय भारतवर्ष… सब ज्ञान की खोज में आएँगे यहाँ… किंतु तुम प्रेम ही देना सर्वप्रथम! मेरे न होने पर भी लीला रची जाए!.. शक्ति-देवी… मेरी सर्वस्व… कहूँ ही क्या… शब्दों में वह नहीं है जो हृदय में है, जो है इस आनंदपूर्ण प्रस्थान में, मृत्यु के सुंदर नृत्य में!.. इतना कहूँगा बस कि फिर नहीं मिलेंगे तुम से… हर मिलन में आवश्यकता होती है दो की… और हम हैं एक!..
कृष्ण की बांसुरी धरती पर गिर जाती है। कृष्ण मृत्यु की ओर मुड़कर मुस्कुराते हुए बाहें खोलता है। मृत्यु नाचते हुए उसकी बाहों में दौड़ आती है। अचानक एक क्षण में संगीत रुक जाता है और रोशनी बुझ जाती है। अंधेरे और सन्नाटे में कृष्ण की अंतिम हँसी सुनाई देती है जो धीरे–धीरे बुझती है…
कुछ देर बाद रोशनी जल जाती है। मंच पर गायकों का दल खड़ा है। वे “गोविंदम अदिपुरुषम” का गायन करते हैं।
इति