कला-राग की आभा: रस निरंजन

    राजेश कुमार व्यास की किताब ‘रस निरंजन’ समकालीन कला पर लिखे निबंधों का संग्रह है। इस किताब पर यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है चंद्र कुमार ने। चंद्र कुमार ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से पढ़ाई की। वे आजकल एक निजी साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक है लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन है-

    ===============================

    कलाएँ वैसे अपने अर्थ का आग्रह नहीं करती, बस अपने होने के चिन्ह छोड़ती हैं। उन चिन्हों से पाठक-दर्शक-श्रोता अपने लिये जो ग्रहण कर सके, वही कलाओं का उद्देश्य है। इसीलिये प्रयाग शुक्ल कहते हैं कि कलाओं को देखना भी एक कला है। इस देखने-महसूस कर सकने में अक्सर कला-आलोचक, कला और रसिकों के मध्य एक सेतु का काम करते हैं। कला वस्तुत: अनंत के विस्तार की यात्रा होती है। इस निरंजन यात्रा में कोई सहचर अगर सहजता से रास्ता बताता चले, तो यात्रा का आनन्द असीमित हो सकता है। विभिन्न कलाओं को समदृष्टि से कला-रसिकों के लिये व्याख्यायित करना दरअसल कला को ही समृद्ध करना है। इस लिहाज़ से कला-आलोचक डॉ. राजेश कुमार व्यास का कलाओं पर एकाग्र — ‘रस निरंजन’ उनकी कला लेखन की यात्रा का ऐसा पड़ाव है जिस पर बरबस ही ध्यान जाता है।

     

    मूलत: उनका लेखकीय सफ़र एक साँस्कृतिक रिपोर्टर के रूप में शुरू हुआ जो नाट्य, संगीत, चित्रकला, संस्थापन कला और सिनेमा से होते हुए यहाँ तक पहुँचा है जहाँ वो कला के समग्र रूपों के एक वाचक के रूप में हमसे मुख़ातिब होते हैं। कहन के अन्दाज़ में लिखते हुए वे कला के विभिन्न रूपों से हमें परिचित करवाते हैं। उनके भीतर के यायावर ने उन्हें एक अलग तरह के कला-आलोचक के रूप में स्थापित करने में महत्ती भूमिका निभाई है। यायावर कहीं देर तक नहीं ठहरता लेकिन जहाँ है, वहाँ पूरी शिद्दत से वह सब कुछ देख-समझ लेता है जिसे फिर बाद में वह जब चाहे, उसी शिद्दत से महसूस कर सकेगा। उनका कला-लेखन शास्त्रीय तो है पर जड़ता लिये नहीं है। वे मूलत: भारतीय दृष्टि से कला आलोचना करते हैं लेकिन ज़रूरत पड़ने पर पश्चिमी दृष्टि और विचारकों के हवालों से अपनी बात के मर्म को समझाने में भी संकोच नहीं करते। जब वे ऐसा करते हैं तो यह स्वत:-स्फूर्त होता है, न कि कोई थोपा हुआ उदाहरण।

     

    शास्त्रीय गायन पर इत्मिनान से लिखने वाला कब ग़ज़ल (जगजीत सिंह), भजन (हरिओम शरण) और लोक-गायकी के रंग से सराबोर रेशमा तक पर सहजता से

    अपनी बात कह जाता है, अचंभित करता है। इसी तरह संगीत के साथ ही नाट्य-कला, चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी, संस्थापन कला, नृत्य कला इत्यादि कला के विभिन्न अनुशासनों में वे जिस प्रकार सहजता से उन कलाओं का शाब्दिक चित्रण करते हैं वह पाठकों को कला जगत के विभिन्न आयामों को आत्मसात् करने में सहायक है। दरअसल, कला के विभिन्न अनुशासनों का अनवरत अनुशीलन उन्हें इस मुक़ाम पर ले आया है जहाँ वो इन कला रूपों पर सहजता से लिखते-बोलते हैं। उनका कला-आस्वादन, एक कला-रसिक के रूप में उनके निबंधों में भाषिक रूप में उतरता है। वह पाठक को इतनी सहजता से कला के सूक्ष्म विश्लेषण तक ले जाता है जहाँ कला से प्राप्त आनन्द लेखक और पाठक एकसार ग्रहण करते हैं। रस निरंजन में यह आनन्द पाठकों को हर आलेख में महसूस होता है।

     

    एकाग्र की सहज और सुरुचिपूर्ण भाषा व छोटे लेकिन सारगर्भित निबन्ध पाठकों के सामने विहंगम कला-संसार के भीतर पहुँचने के द्वार-सा कार्य करते हैं। रस निरंजन को पढ़ते हुए पाठकों को प्रस्तुत कला-रूप के सूक्ष्म विश्लेषण के बावजूद किसी तरह का भाषाई आडम्बर नहीं दिखता। एकाग्र में संचयित निबंध विभिन्न कला-रूपों, कला-साधकों और कला की दुनिया के अनजाने स्वरूपों को पाठकों के सामने खोलते हैं लेकिन इन निबंधों में एक अन्त:कथा है जो इन स्वतंत्र निबंधों को एक सूत्र में पिरो कर रखती है। यह अन्त:कथा दरअसल विभिन्न कला-रूपों के ज़रिये आस्वादन और अन्तत: भीतर के तम को उजास देने वाला वह प्रकाश है जो हर कला का अन्तिम उद्देश्य होता है। देशज भाषा का स्वच्छंद उपयोग, कलाओं में लोक का सतत् स्पंदन और कलाओं के अन्त:सम्बन्धों का सहज विश्लेषण इस एकाग्र को सिलसिलेवार पढ़ने हेतु प्रेरित करता है।

     

    लेखक कलाकार की विराटता से नहीं, बल्कि उसके कला-कर्म के बारीक विश्लेषण से जो कला-दृश्य हमारे सामने रखता है वहीं इस एकाग्र की विशेषता है। इस छोटी सी पुस्तक में समकालीन भारतीय कला के सुपरिचित साधकों के कला-कर्म पर आलेख मिलेंगे। कला-लेखन के साथ ही कला-रसिकों और विद्यार्थियों को इस पुस्तक से भारतीय कला की विराट छवि अपने सूक्ष्मतम विश्लेषण के साथ, सहज भाषा में प्राप्त होगी। प्रेरणा श्रीमाली के नृत्य पर डॉ. राजेश कुमार व्यास का कथन है कि उनका नृत्य मौलिक है, वह पारम्परिक होते हुए भी जड़त्व धारण नहीं करता, नृत्य में शास्त्रीयता है लेकिन वह दुरूह नहीं। यही बात स्वयं डॉ. व्यास के कला-लेखन के लिये भी कही जा सकती है। उनकी कला-दृष्टि, भाषिक सहजता और भावपूर्ण संप्रेषण उनकी भाषा की शास्त्रीयता को बचाये रखते हुए भी उसे अकादमिक और क्लिष्ट नहीं होने देते। वह कलाओं का आस्वादन करते हुए पाठकों के साथ आनन्द की अनुभूति साझा करते है।

     

    चार खण्डों में समायोजित इक्कतीस निबन्धों में लेखक ने समकालीन भारतीय कला का पूरा दृश्य पेश किया है जिसे बोधि प्रकाशन, जयपुर ने ‘बोधि पुस्तक पर्व’ के पाँचवें बँध के रूप में नौ अन्य पुस्तकों के साथ प्रकाशित किया है। दस पुस्तकों का यह सैट मात्र सौ रुपयों में पाठकों के लिये उपलब्ध है।

     

    पुस्तक: रस निरंजन

    लेखक: डॉ. राजेश कुमार व्यास

    प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर

    पृष्ठ: 96

    प्रकाशन वर्ष: दिसम्बर 2020

    मूल्य: 10/- (पूरा सैट – 100/-)

     

    ~ चंद्रकुमार

    505, एमरॉल्ड-यूडीबी

    नन्दपुरी अण्डरपास, मालवीय नगर

    जयपुर – 302017 (राजस्थान)

    मोबाइल: 9928861470

    इमेल: ckpurohit@gmail.com

    ===========================

    दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

    https://t.me/jankipul

     

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *