हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है!
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘पंचलैट’ पर बनी फ़िल्म के ऊपर यह टिप्पणी की है साक़िब अहमद ने। साक़िब किशनगंज में रहते हैं और पुस्तकालय अभियान से जुड़े हैं। आप भी पढ़ सकते हैं-
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(पंचलैट के सिनेमाई प्रस्तुतिकरण की मुश्किलें और दुश्वारियां)
क्या हर रचनात्मकता को कलात्मकता मान लेना चाहिए? क्या यह उम्मीद करना बैमानी नही है कि किसी अच्छी कहानी पर कम संसाधनों से बनी फिल्म को हर हाल में सराहना की जाये। दर्शकों से ये क्यों अपेक्षा की जाती है कि कम संसाधनों जैसे मारक शब्द विन्यास की आड़ में सब स्वीकार्य कर लिया जाये। हमारे सामने ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद है जहाँ कई महान रचनाओं पर अच्छी फिल्में बनी है तो कई महान रचनाओं पर औसत से नीचे की फ़िल्में बनी है। मनुष्य हर चीज़ को लेकर चाहे वो कला का कोई भी रूप हो या रोजमर्रा का जीवन अपने दिल में कुछ अपेक्षाएं पाले रखता है। अगर आसान शब्दों के सहारे कहा जाये कि सामान्यता मनुष्य की जिंदगी अपेक्षाओं से भरा हुआ होता है। तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नही होगी। मैं भी एक सामान्य मनुष्य हूँ इस लिए ये नियम मुझ पर भी लागू होते हैं।
महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कहानी पंचलैट पर इसी नाम से बनी फिल्म देखते हुए मुझे ये अनुभव हो रहा है कि फिल्म निर्देशक शूटिंग से एक रात पहले साम्यवाद पर कोई मोटी किताब चट कर गये होंगे। इसलिए निर्देशक ने पूरी फिल्म पर साम्यवाद का ऐसा जादू चलाया है कि जाति के हिसाब से रहन-सहन और खान-पान का भेद ही ख़त्म कर बैठे हैं। इतना ही नही वक़्त को भी साम्यवाद की कसौटी पर तोल के भेद मिटा डालें है। फिल्म देखते हुआ आपको गुमान ही नही होगा कि कहानी 2020 में घट रही है या 1954 में। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि जल्दबाजी में रिसर्च करने का मौका ही न मिला हो और वातानुकूलित कमरे में बैठकर ही स्क्रिप्ट फाइनल कर लिया हो। कहानी के इतर हम देखें तो पंचलैट फिल्म अपेक्षाओं पर पूरी खरी नही उतर पाती। इस फिल्म के दामन में सूक्ष्म नही बल्कि स्थूल इतने छेद हैं की रफ़ू करना मुश्किल है। वैसे इस बात को कहने के लिए ग़ालिब के एक शेर के मिस्रा का सहारा लिया जा सकता है और वह मिस्रा है “ हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है।” खैर जो भी हो मैं सिलसिलेवार तरीके से इन छेदों की ओर ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ।
फिल्म की कहानी जिस क्षेत्र पर केन्द्रित है मैं वही का रहने वाला हूँ। इसलिए जब मैंने फिल्म देखी तो हैरत में पड़ गया। जिस तरह से फिल्म निर्देशक ने आज़ादी से कुछ साल पहले का ग्रामीण भारत और आज़ादी से कुछ साल बाद का ग्रामीण भारत दिखाया है क्या वह वास्तविकता के करीब है? क्या 50-60 के दशक का ग्रामीण भारत ऐसा ही कलरफुल था जैसा फिल्म में दिखाया गया है? तो जवाब है बिलकुल भी नही। फिल्म बनाने से पहले कम से कम रेणु जी का उपन्यास “ मैला आंचल” ही पढ़ लेते तो ग्रामीण जीवन और उसके रहन- सहन का इल्म हो जाता। या नही तो फिर समानांतर सिनेमा की चर्जित फिल्में जैसे अंकुर, दामुल, सद्गति, चिरुथा, पार ही देख डाले होते तो यूँ ग्रामीण भारत का सतही चित्रण करने से बच जाते।
किसी भी फिल्म को सबसे खास बनती है उसकी बारीक़ डिटेलिंग, जो इस फिल्म से “दिल्ली दूर” जितना दूर है। फिल्म निर्देशक ने डिटेलिंग का बिलकुल भी ध्यान नही रखा है। आज भी ग्रामीण इलाकों में जहाँ औरतें चप्पल नही पहनती वहां फिल्म कि नायिका अलग-अलग दृश्य में अलग अलग रंगों के चप्पल पहने नज़र आती है। इतना ही नही कहीं-कहीं तो अल्बेस्तर के टीन भी फिल्म में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती नज़र आ जाती है। नायक द्वारा सिवाए कमर में बंधे रहने के अलावा बासुरी से भी कोई काम नही लिया गया है. शायद निर्देशक ने नायक के चंचलता को दिखाने के लिए बासुरी को बिम्ब के तरह प्रयोग किया हो। अगर ऐसा है तो ये बहुत आम और घिसा पीटा बिम्ब है। इसकी जगह कोई नया बिम्ब तलाशने की जरूरत थी। एक बात और किरोसिन का रंग पानी जैसा बिलकुल नही होता। निर्देशक यहाँ भी गच्चा खा बैठे है। ऐसी कितनी ही छोटी-छोटी गलतियाँ है बस यहाँ मैंने दो चार पर ही ध्यान केन्द्रित किया है।
कपड़ों से भले ही दंगाइयों का पता नही चलता हो लेकिन कपड़ों से जाति का पता जरूर चल जाता है। अगर आप मेरी इस बात से नाक सिकुड़ना लगे हैं तो आप को एक बार कम से कम बिहार के ग्रामीण क्षेत्र का दौरा जरूर कर लेना चाहिए। किसी भी फिल्म में वस्त्र विन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होता है। जिसे फिल्म निर्देशक में अपने इस फिल्म गैर जरूरी समझा है. खैर, ऐसा कहा जा रहा है कि फिल्म बहुत सीमित संसाधनों के सहारे बनी है. लेकिन फिल्म देखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि फिल्म के बहुत सीमित संसाधन डिजाइनर कपड़ों और गमछों में ही खर्ज हो गये होंगे। दरअसल कपड़ों और गमछों ने ही यह भेद मिटा डाला है कि फिल्म की कहानी 1954 में घट रही है या 2020 में। फिल्म देखते हुए आप चाहे जितना भी 1954 में पहुँचाने की कोशिश करते रहे लेकिन डिजाइनर कपड़े और गमछे दीवार की तरह खड़ी हो जाती है। कपड़ों और गमछों को लेकर निर्देशक ने कोई भी भेदभाव नही किया है। सभी जाति के लोगों को एक जैसे कपड़े और गमछों ने नवाजा है।
जिस गाँव में रात में भी रौशनी अपने छंटाये बिखेर नृत्य करता हो भला वहां पंचलैट के लिए इतना हाहाकार करने की जरूरत क्या है? कुलमिलाकर फिल्म का प्रकाश संयोजन बहुत ही साधारण है और यहीं पर फिल्म सबसे ज्यादा पिछड़ी नज़र आती है। अगर बात फिल्म के सेट की करे तो ये बहुत नकली लगते है।कहीं-कहीं तो ऐसा भी लगता है कि सेट किसी फिल्म का न होकर किसी नाटक का है। शायद सेट का ही इतना प्रभाव पड़ा है कि कुछ-कुछ दृश्य फिल्म का न लगकर नाटक का लगने लगता है। जैसे जब- जब कैमरा पंचलैट के इंतज़ार में बैठे महतो टोला या पंचलैट के इर्द- गर्द केन्द्रित होती है तो फिल्म, फिल्म न लग कर नाटक लगने लगता है।
जहाँ तक अभिनय की बात है तो फिल्म का मुख्य नायक राज कपूर की अभिनय शैली कॉपी करते- करते कब ओवर एक्टिंग करने लगते है पता ही नही चलता। और जहाँ तक मंझे हुए कलाकारों की बात है तो उन्होंने भी औसत ही काम किया है। बस गुलेरी मौसी जिसके हिस्से में बस कुछ ही सीन आयें हैं एक उम्मीद जगाती है. मुझे ऐसा लगता है कि अगर उन्हें कोई मजबूत किरदार दिया जाये तो उसके साथ वह न्याय करेंगी। महतो टोली के सरपंच की पत्नी और गाँव की भौजी के रूप में कल्पना झा बहुत खूबसूरत लगी हैं। फिल्म में उनकी प्रतिभा तो सामने नही आती लेकिन उनकी खूबसूरती जरूर मोह लेती है। कल्पना में अभिनय की अपार संभावनाएं नज़र आती हैं। वह नाटक के मार्फ़त सिनेमा में आई है। इस लिए वह अभिनय की बारीकियों से बखूबी वाकिफ़ है। रुदाली नाटक से लेकर अभी तक उनकी यात्रा हमें उम्मीदों से भरती है। बस उन्हें ध्यान रखना होगा कि कही उनकी खूबसूरती इनकी प्रतिभा पर हावी न हो जाये। खैर ये तो वक़्त ही बतायेगा।
सिनेमा मनुष्य की चेतना में एक घुलनशील रसायन की तरह प्रवेश करती है। इस लिए सिनेमा कला का सबसे सशक्त रूप है, जिसने हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। इस लिए मैं जब किसी फिल्म पर अपने 2 घंटे खर्च करता हूँ तो यह उम्मीद रखता हूँ कि फिल्म मेरे यथार्थबोध या सौन्दर्यबोध में से एक को जरूर संवारे। या कम से कम थोड़ा बहुत आनंद ही जरूर पहुंचाए। लेकिन पंचलैट फिल्म का फिल्मांकन इतना अति साधारण कि इसमें न तो यथार्थबोध को और न ही सौन्दर्यबोध को सँवारने की कुव्वत है। इतना ही नही ये फिल्म थोड़ा बहुत आनंद की अभिव्यक्ति से भी महरूम रख जाती है। लेकिन एक बात जरूर है। अगर आपको डिजाइनर गमछों से अपार प्रेम है तो ये फिल्म आपको जरूर देखनी चाहिए।
*शीर्षक ग़ालिब के एक शे’र का मिस्रा
साकिब अहमद
9771070709
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