पिता को याद करते हुए यह कविताएँ लिखी हैं संदीप नाईक ने, जो गहरे मन तक छूती हैं, जिन्हें पढ़ते हुए प्रत्येक व्यक्ति को पिता के साथ अपना संबंध याद हो आए।बहुत संभव आप को भी वह गहन संबंध की अनुभूति हो।
संदीप नाईक ने छः विषयों में स्नातकोत्तर किया है, 38 वर्षों तक विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ करने के बाद आजकल देवास, मप्र में रहते हैं। इनके ‘नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं’ कहानी संग्रह को प्रतिष्ठित वागेश्वरी पुरस्कार प्राप्त है।इन दिनों हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में लेखन-अनुवाद और कंसल्टेंसी का काम करते हैं।
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पिता का होना आकाश के मानिंद था
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1
तुम गए ही नहीं पिता
अब चिट्ठियाँ आती नहीं तुम्हारे नाम
बिजली, फोन, मकान के टैक्स से लेकर
राशन कार्ड तक में बदल गए है नाम
कोई डाक, पत्रिका, निमंत्रण तुम्हारे नाम के आते नहीं
हमारे बड़े होने के ये नुकसान थे और
एक सिरे से तुम्हारा नाम हर जगह गायब था
कितनी आसानी से नाम मिटा दिया जाता है
हर दस्तावेज़ से और नाम के आगे स्वर्गीय लगाकर
भूला दिया जाता है कि
अब तो स्वर्ग में हो वसन्त बाबू
और बच्चे तुम्हारे ऐश कर रहें हैं
बच्चों से पूछता नहीं कोई कि
बच्चे कितना ख़ाली पाते हैं
अपने आपको कि हर दस्तावेज़ से नाम मिटाकर
अपना जुड़वाने में कितनी तकलीफ़ हुई थी
और अब जब बरसों से सब कुछ बिसरा दिया गया है
तो नाम भी लेने पर काँप जाती है
घर की नींव
जिसमें तुम्हारे पसीने और खून की खुशबू पसरी है
घर में मिल जाती है कोई पुरानी याद
तो घर के दरवाज़े और छतें
सिसकियों से भर उठती है
रात के उचाट सन्नाटों में
2
आखिरी दिनों में पिता
आखिरी दिनों में बिना आँखों के भी
जिंदगी को पढ़-समझ लेते थे
काँपते हाथों से भी बताई जगह पर
हस्ताक्षर कर देते थे
छुट्टी की अर्जी
मेडिकल के बिल
बैंक का लोन
ज्वाइंट अकाउंट का फ़ार्म
आखिरी दिनों में पिता की
आँखें काम नहीं कर पाती थी
मैं, माँ, भाई उन्हें देखते थे
और पिता देखते थे हमारी आँखों में आशा, जीवन, उत्साह
अस्पताल की कठिन जाँच प्रक्रिया
लेज़र की तेज किरणें
पर आँखों का अन्धेरा गहराता गया
पिता
तुम आखिरी दिनों में कितना ध्यान रखते थे हमारा
स्कूल से आने पर पदचाप पहचान लेते थे
हमारे साथ बैठकर रोटी खाते
और हाथों से टटोलकर हमें
परोसते
माँ के आंसू की गंध पहचानकर
डपट देते थे माँ को
पिता का होना हमारे लिए आकाश के मानिंद था
ऐसा आकाश जिसके तले
हम अपने सुख दुःख
ख्वाब, उमंगें
उत्साह और साहस
भय और पीड़ा
भावनाएँ और संकोच
रखकर निश्चित होकर
सो जाते थे
पिता हर समय माँ से हमारे बारे में ही बाते करते थे
हमारी पढाई, हिम्मत
तितली पकडना
पतंग उड़ाना
कंचे खेलना
बोझिल किताबें
टयुशन और परीक्षाएँ
नौकरी और शादी
माँ कुछ भी नहीं कहती
तिल-तिल मरता देख रही थी
घर से अस्पताल
अस्पताल से प्रयोगशाला
प्रयोगशाला से घर
एक दिन रात के गहरे अँधेरे में
आँगन की दीवार को
पकड़ कर खड़े हो गए
पिता की ज्योति लौट रही थी
हड्बड़ाहट सुनकर
माँ जाग गयी थी
एक लंबी उल्टी करके गिर गए थे
पिता
माँ कहती थी
आखिरी समय में
नेत्र ज्योति लौट आई थी
पिता तुमने कातर
निगाहों से माँ को देखा था
माँ के पास हममें से किसी को
ना पाकर तुम्हारी आँखों से
दो आंसू भी गिरे थे
लेज़र की किरणें
मानो उस अंधेरी रात में
आँखों में चमक रही थी
जिंदगी भर आंसू पोछने वाला आदमी
उम्र के बावनवे साल में आंसू बहा रहा था
लोग कहते है वो खुशी के
आंसू थे- ज्योति लौट आने के
मैं कुछ भी नहीं कहता
क्योंकि बाद में मैंने ही तो
आँखे बंद करके रूई के फोहे
रखे थे
पिता – तुम सचमुच हमें ज्योति दे गए
3
विस्मृत पिता से मुस्कान की याचना
अठ्ठाईस बरस कितने कम होते हैं
यह भूल जाने को कि हम अब जब बड़े हो गए
तो पिता की याद बहुत धुंधली पड़ गई
हमारी अपनी पीढियों की नजरों में हम धूमिल हो रहे
तो जाहिर है अपने पिता और फिर उनके पिता जो
और पहले गुजर गए थे, को कैसे याद करें
गूंजती है यादें तो धूप में तपा पसीने से लथपथ चेहरा
दो या तीन पुरानी पेंट और सफेद हो चुके शर्ट
एक काला सा रेग्जीन का बैग और शायद जूते
चमड़े के या बारहों मास बरसाती पता नही
माँ से शाम को आने के बाद चिकचिक और रुपयों का रोना
छुट्टियों में आई बहनों और उनके बच्चों को दो जोड़ी कपड़े
याकि सद्य प्रसूता बहनों के अस्पताल के खर्चें
आये दिन शादी में देने वाले मामेरा के बर्तन भांडों
याकि दादी की हमेशा की तरह से उठने वाली मांग
पिता इन्हें सबसे पहले पूरा करते और हमारी ख्वाहिशें फिर कभी
नब्बे ढाई सौ के वेतनमान में हम तीन भाई और बड़ा गौत्र
किराये के घर से तीस पचास के प्लाट को लेकर पक्का घर
मासिक किश्तें और फिर भी हममें से कोई कम नही पढ़ा
क्या जादू जानते थे इस सांसारिक मोहमाया का वे
हम तो आज इत्ता कमाकर एक रुपया देने की नीयत नहीं रखते
उनके बनाये घर की पुताई भी तीन साल में एक बार करवा पाएँ तो
गधे घोड़ें गंगा नहा लिए, यह कह देता हूँ अक्सर
बीमारी ने मार दिया बावन वर्ष की उम्र में तुम्हे
ठीक आज के दिन सुबह चार बजे दम तोड़ दिया था
जबकि सातवें दिन जन्मदिन था तुम्हारा
हम सूतक में बैठकर बहुत रोये थे फिर सीख लिया जीना
माँ ने बड़ा किया और हम सबको सँवारा इतना कि हम सच मे बड़े हो गए
इतने कि हमारे जीवन से पिता विलुप्त ही हो गए
आज के दिन को मैंने कई दिनों से याद करके रखा था
अब जब पचास पार बैठा हूँ और अपने होने के अर्थ बदल गए हैं
एक तटस्थता से जीवन को देखता हूँ तो लगता है हमने कुछ जिया ही नहीं
सब कुछ पाने के लिए सब कुछ छोड़ दिया और नैराश्य में रह गए
पिता तुम मुझमें अब जिंदा नहीं हो यह शिद्दत से कह रहा हूँ
तुम मैं हूँ और मैं तुम थे यूँही इसी तरह हमेशा से, आज भी
मैं चाहता हूँ कि बावन के पहले ही मैं उस शीर्ष को पा लूँ
और एक अनंतिम दिशा में बिखर जाऊं बगैर अवरोध के
तुम आ जाओ एक बार स्मृति में मैं उस चेहरे की आभा से
अपनी अंतिम यात्रा के लिए अपने चेहरे पर एक मुस्कान तुमसे लेना चाहता हूँ
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