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    सुकृता पॉल कुमार की कविताएं

    By January 6, 20154 Comments4 Mins Read
    सुकृता पॉल कुमार ने इतनी विधाओं में इतना अच्छा काम किया है कि उनके किसी भी एक रूप का परिचय अधूरा होगा. अंग्रेजी-उर्दू-हिंदी भाषाओं के सेतु की तरह वे पिछले कई दशकों से साहित्य में सक्रियता की एक मिसाल हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी भाषा की प्रोफ़ेसर सुकृता पॉल कुमार एक बेहतरीन अध्यापिका भी रही हैं, जिन्होंने न जाने कितने विद्यार्थियों को साहित्य की आरंभिक दीक्षा दी. लेकिन सबसे बढ़कर वे एक बेहतरीन कवयित्री हैं. जिनकी कविताओं का रेंज कई बार विस्मित कर देता है. जैसे मैं मिथिला पर उनकी कविता को पढ़कर हो गया था. आज उनकी कुछ चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद किया है सरिता शर्मा ने. आपके लिए- प्रभात रंजन 
    ======================================================              
      सपनों को पकड़ने वाला
    मुझे जंगल में समय पर पहुँचना होगा
    हर दिन पौ फटने से पहले
    धुंधले अंधेरे में बिखरे हुए
    कुछ सपने पकड़ने के लिए
    मुझे पहुँचना होगा
    उन पेड़ों की पत्तियों पर
    सूरज निकलने से पहले
    जिन पर सपनों को ढेर लगा है
    रात भर के लिए
    शाखाओं पर जिनका बसेरा है
    सपने – अधदेखे सपने, पूरे सपने
    और वे सपने जिन्हें देखा जाना है
    जन्मे और अजन्मे,
    ध्यान दिलाने के लिए छटपटाते
    नींद में अजीब से चेहरे बनाते बच्चों की तरह
    मैं उन्हें चुनता हूँ जो मेरी कल्पना को तरंगित करते हैं
    गोधूलि में घुलते हुए
    मेरे दुखद अतीत और
    सायादार भविष्य के टुकड़े
    सूर्योदय के साथ गायब होने के लिए तैयार
    ओस की बूंदें
    हर दिन मैं एक बोरा भर सपनों के
    साथ घर आती हूँ
    जो मेरे और सभी के लिए
    दिन से टपकते रहते हैं
    हर रात
    मैं नई सुबह की प्रतीक्षा करती हूँ ।
    कलाकार
    मैंने यह सब
    उस क्षण में देखा
    सृष्टि का नृत्य
    अपने चेहरे पर
    हंसता हुआ बुद्ध
    झुर्रियों से बहते
    आँसू ढुलकाता हुआ
    समय में गहरी दरारें
    क्या वह रो रहा था, कोई फर्क नहीं पड़ता था …
    संगीत की समस्त बाईस श्रुतियां
    टिकी थी उसकी भौंहों के बीच
    नाद और अनहद के बीच
    दर्द की, खुशी की
    कोलाहलपूर्ण अंधियारी चुप्पी
    मध्य कान से होकर
    सुरंग में थरथराती हुई,
    निकलने नहीं देती,
    सूक्ष्म ध्वनियाँ तक
    धीरे-धीरे घर लौटता है
    विभिन्न भावों, अलग रंगों वाले  
    झूलते पेंट से सजाता है
    तमाम नौ रस और उनसे कहीं ज्यादा
    घाटियों में, शिखरों पर सोये
    पिघलने के लिए बढ़ते
    हवा में उठते, आसमान को भरते
    उसके लकवाग्रस्त शरीर में झुनझुनी होती है
    क्या वे खुशी के आँसू थे
    इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!
    कैसे शुरू करें
    इस तरह
    उस तरह
    इसे उतराना होगा
    इस कागज पर
    जंगल और उसकी चुभनेवाली बिच्छू बूटियों
    गंठीली झाड़ियों और टहनियों के
    उजाड़ से,
    इसे उभरना होगा
    इस रिक्त स्थान पर
    देखे और अनदेखे ब्रह्मांडों के
    ब्लैक होलों से,
    उल्का के तूफानों और
    कलाबाजी खाते ग्रहों से गुजर कर
    हाथ को दिखना है
    उंगली से इशारा करते हुए
    इस तरफ
    उस तरफ
    पुनर्जीवन 

    आओ  प्राण फूंको
    शब्दों में
    शब्द पत्थर हो जाते हैं
    जब निर्वासित होते हैं
    जिन पर कवियों का स्वामित्व नहीं
    बेजान और शिथिल पड़े रहते हैं
    अलग थलग,
    करवट न बदल पाने पर
    वे जीवाश्म बन गये हैं
    ऐसा नहीं है, कुत्ते…
    जो सड़क से उजाड़े गए
    अपनी जीवित रहने की प्रवृत्ति से
    डगमगाते और लड़खड़ाते हैं
    और एक बार फिर, पा लेते हैं
    क्षेत्रीय अधिकार
    वे जड़ें जमा लेते हैं और
    सहृदयों के साथ पुनः जुड़ जाते हैं
    इस्तेमाल किये जाते हैं और चलाये जाते हैं
    अपने अतीत की
    स्मृति की धड़कन से, वे सवारी करते हैं
    वर्तमान की जीवंत लहरों पर
    उनकी तरह
    आओ, काठी कसो
    उन अचल शब्दों, मौन चट्टानों
    तक पहुंचो  
    प्रतीक्षा में हैं जो
    उन्हें जगाओ
    सृजन, जीवन,
    कविताओं के
    सपनों के संसार में
    पशु, मनुष्य और पौधे
    सभी जुड़े हैं आपस में
    अलग थलग नहीं कोई।
    पेरिस कविताएं
     पुरानी यादें ही नहीं
    विमान धीरे से जमीन पर उतरा
    मेरे जीवन की सुदूर और गुलाबी भोर पर
    और आकाश का गाढ़ा नीला रंग
    चमक उठा,  मुझे हमेशा पता था
    कि स्टीन गर्टरूड का कद एफिल टॉवर से ऊंचा है
    उसकी काली परछाई सुलगाती थी हेमिंग्वे की कलम

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