कुछ लेखक परम्परा निर्वाह करते हुए लिखते हैं, कुछ अपनी परम्परा बनाने के लिए. रवि बुले ऐसे ही लेखक हैं. उनका पहला उपन्यास ‘दलाल की बीवी’ शीर्षक से चौंकाऊ लग सकता है, मगर यह संकेत देता है कि भविष्य के उपन्यास किस तरह के हो सकते हैं. पढ़ते हुए मुझे अक्सर मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘हमजाद’ की याद आती रही. बहरहाल, फिलहाल ‘दलाल की बीवी’ का एक रोचक अंश- मॉडरेटर.
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ओसामा का एक पैर नहीं था, लेकिन उसके पास सबकी जरूरत का पानी था। पानी पर उसका कब्जा था। ओसामा सोसायटी से पीछे बनी झुग्गियों का मालिक था। सोसायटी की तरफ आने पानी के पाइप झुगिगयों से होकर आते थे। ओसामा ने नल बीच में ही काट लिए। उन्हीं से केन और टैंकर में भर-भर कर वह पानी बेचता था।
बीस रुपये में बीस लीटर की केन… चाहे पीने के लिए लो, चाहे धोने के लिए…!
लेकिन एक केन में कैसे गुजारा हो सकता है…?
ओसामा से जितनी कही जाए, उतनी केन दे देगा…। बस, पैसा पूरा लेगा।
ओसामा पानी का देवता था…। उसके आदमी घर तक पानी पहुंचाते थे। होम डिलेवरी फ्री।
…लेकिन अपने ही हक का पानी खरीदना?
कमाल बोला, ‘ऊपर तक ये पैसा पहुंचाता है। अफसर से ले कर नेता तक। सारी पार्टियां मिली हुई हैं। शिकायत करके भी कुछ नहीं होगा। सब साल भर का कमाएंगे दो-तीन महीने में…। इसलिए कोई नहीं बोलता ओसामा के खिलाफ। थोड़ा कंप्रोमाइज किधर नहीं करना पड़ता मुंबई में…? यही कोई दस बरस हुआ… नॉर्थ मुंबई में पानी के लिए दंगे हुए थे। पानी के चोरों ने पानी को खून से रंग दिया था। खून-खराबा बोलो किसको पसंद?’
कमाल सच कहता था।
पानी को लेकर लगातार खबरें आ रही थीं…!
एक युवती अपनी बड़ी बहन के साथ रहती थी। एक प्राइवेट फर्म में टेलीफोन ऑपरेटर थी। उसे बार-बार हाथ धोने की आदत थी। पानी की इस बर्बादी के लिए बहन उसे रह-रह कर डांटने लगी। इससे युवती डिपे्रशन का शिकार हो गई। लाख कोशिशों के बाद भी वह अपने को हाथ धोने से नहीं रोक पाती थी और डांट सुनती थी। एक दिन बड़ी बहन ने साफ कह दिया कि यदि वह इसी तरह पानी बर्बाद करती रहेगी तो अपने रहने का अलग बंदोबस्त कर ले। युवती को इतना धक्का लगा कि उसने खुद को तेज रफ्तार से आती लोकल ट्रेन के आगे फेंक दिया। घटना घाटकोपर में हुई।
दादर में बीएमसी के दफ्तर के बाहर विरोध प्रदर्शन में एक एनजीओ कार्यकर्ता की मौत हो गई। एक बड़े नेता का बेटा पानी पर आंदोलन चला कर अपनी राजनीति चमका रहा था। उसके चमचे नारा लगा रहे थे, ‘राव साहब अंगार हैं, बाकी सब भंगार हैं…।’ उसी के नेतृत्व में वह मोर्चा निकला था, जिसमें एनजीओ कार्यकर्ता की मौत हुई। पुलिस ने उसे लाठियों से खूब पीटा था। इस मौत के बाद हंगामा बढ़ा और नेता पुत्र के चमकने के मौके भी बढ़ गए।
खबरें और भी थीं… अश्लील…!
बांद्रा, सांताक्रूज और अंधेेरी के पांच सितारा होटलों और रईसों के क्लबों के स्वीमिंग पूल पानी से लबालब थे। गर्मी में ठंडक पाने के लिए अमीर तरणतालों में पड़े बीयर की चुस्कियां ले रहे थे। देसी-विदेशी सुंदरियां बिकनी में उनके इर्द-गिर्द मंडरा कर उनकी आंखों को भी ठंडक पहुंचा रही थीं। हालांकि ये अमीर गहरे रंग के चश्मे चढ़ाए थे और उनकी आंखों की बेशर्मी को पकड़ पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं था।
बॉलीवुड का एक फिल्म निर्देशक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गर्व से बता रहा था कि उसकी फिल्म, मुंबई में 26 जुलाई 2005 की भीषण बरसात पर है। मुंबई को पानी में डूबी दिखाने के लिए उसे दो सौ टैंकर पानी बहाना पड़ा। दूसरे निर्देशक ने अपनी कॉमेडी में सुनामी का क्लाइमेक्स फिल्माया और सात सौ टैंकर पानी बहा दिया। तीसरे ने न्यूयॉर्क का सैट मुंबई में बनाया और बाढ़ दिखाने के लिए हर दिन बीस टैंकर पानी बहाया। शूटिंग हफ्ते भर से ज्यादा चली। इनमें से हर टैंकर में करीब बारह हजार लीटर पानी था और नौ सौ टैंकरों के पानी से सवा लाख से ज्यादा मुंबई निवासियों की जरूरत पूरी हो सकती थी।
आंकड़े कह रहे थे कि मुंबई को हर दिन 21 करोड़ बाल्टी पानी की जरूरत है। मगर 17 करोड़ बाल्टी ही उपलब्ध है। मुंबई के हर परिवार की जरूरत प्रतिदिन साठ लीटर पानी की है और पिछले मौसम में बरसात औसत से 21 प्रतिशत कम हुई है। ऐसे में अगर 15 से लेकर 30 प्रतिशत तक की कटौती पचास फीसदी तक बढ़ा दी जाए… तो आश्चर्य कैसा?
सिर्फ ओसामा का सहारा था। मरते के मुंह में पानी देने का पुण्य उसके ही हिस्से लिखा था।
कमाल ने कहा, ‘मैं उससे बात करता हूं। सोसायटी वालों को चाहिए कि मुश्किल वक्त में मिलकर साथ खड़े हों। हर परिवार कम से कम छह से आठ केन मंगाता है। यानी हर दिन सवा सौ-डेढ़ सौ रुपये का खर्च। अलग-अलग पानी मंगाना महंगा पड़ता है। ओसामा से टैंकर खरीदो। सस्ता पड़ेगा। दूसरों को दो हजार में देता है, मैं बात करूंगा तो पंद्रह सौ तक दे देगा। सोसायटी मिल कर पैसा इकट्ठा करे तो हर परिवार के हिस्से अस्सी-नब्बे रुपये के करीब आएंगे। पानी भी भरपूर मिलेगा। इतना कि दो दिन चल जाए।’
वाकई कमाल बुद्धिमान था। इस सौदे में किसी को खोट नहीं दिखा।
ढूंढने पर ओसामा शराब के ठेके पर मिला। बात चली तो बोला : ‘जितना चाहिए ले लो सर जी, पानी तो आपका ही है…’
‘हमारे लिए तो पानी लक्जरी है…’
‘हम तो दारू में भी पानी नहीं मिलाते…’
‘सर जी, हम तो सोडा मिला के पीते हैं…’ कहते हुए उसने जोर का ठहाका लगाया।
कमाल ने पूरे उत्साह से उसका साथ दिया तो वह पंद्रह सौ में टैंकर देने को राजी हो गया।
सोसायटी का जल-संकट समाप्त हुआ।
लेकिन दलाल के लिए एक नया संकट खड़ा हो गया। उसकी बीबी ने बाहर निकल कर टैंकर से पानी भरने से इंकार कर दिया। इस पर दोनों में खूब झगड़ा हुआ।
…और तब वह लड़की निकली, जो अब तक सबकी नजरों से छुपी थी। वह, जो स्वामी नयनानंद की शिष्या बन कर आई थी। जिसे वह बेचने के लिए नेपाल से लाया था। लेकिन मनमाफिक सौदा न होने के कारण दलाल के पास छोड़ गया।
जब सोसायटी में पानी का टैंकर आता, तब वह लड़की बाहर निकलती। बाल्टी, हंडे और घड़े से पानी भरते हुए तर-ब-तर हो जाती। उसका बदन गठीला था और वह कभी हांफती नहीं थी। उसका चेहरा सदा भावशून्य रहता और वह कतार में खड़ी होकर अपनी बारी का इंतजार करती। किसी से बात नहीं करती। टैंकर के पाइप को दलाल खुद संभाल रहा होता। लड़की जब उसके सामने पहुंचती तो वह उसके भीगे कपड़ों में नजरें गड़ा देता। लड़की शलवार-सूट पहने होती। दुपट्टा नहीं होता। पाइप को थामे हुए दलाल के चेहरे के भाव बदलते। लड़की उसकी आंखों में आंखें डाल कर देखती और चुपचाप पानी के बर्तन उठा कर चली जाती। दलाल लड़की को देखता रहता और वहां मौजूद लोग दलाल का लड़की को ललचाई नजरों से देखना देखते रहते।
दलाल इस बात से बेपरवाह था कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं।
दलाल में धीरे-धीरे परिवर्तन नजर आने लगा। सबसे पहले उसका हेयरस्टाइल बदला। घने घुंघराले बाल ‘स्ट्रेट’ हो गए। फिर उसके कपड़े पहनने का अंदाज बदला। कपड़े रंग-बिरंगे हुए। उसकी आंखों पर स्टाइलिश काला चश्मा आ गया। उसके जूते स्पोर्टी हो गए। कुल मिला कर वह अपनी उम्र से कम और ज्यादा जवान दिखने की कोशिश में नजर आने लगा। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, दलाल का रूप बदलता गया। उसके साथ धीरे-धीरे लड़की का भी रूप बदला। वह अब पहले से ज्यादा नजर आती और अक्सर सज-धज कर दलाल के साथ बाहर जाती।
हमेशा पहले लड़की तैयार होकर बाहर निकलती और उसके पीछे दलाल…। कभी दलाल लड़की से कोई चुहल करता और कभी लड़की दलाल से। कभी दलाल उसका दुपट्टा खींच लेता तो कभी वह उसके बालों को बिखेर देती। कभी दलाल उसकी कमर में चिकोटी काट लेता तो कभी लड़की दलाल के गाल खींच लेती।
दोनों को सोसायटी की दर्जनों जोड़ी आंखें देखतीं, लेकिन वे किसी को नहीं देखते और बाइक पर सवार हो कर निकल जाते। लड़की अपनी दोनों बांहें पीछे से दलाल की छाती पर कसती और उसकी पीठ से चिपक जाती। दलाल झटके से बाइक को रेस देता और लड़की ‘ओ मां…’ कहती हुई खिलखिला कर हंस पड़ती…।
दलाल के फ्लैट की खिड़की से एक जोड़ी आंखें यह देख रही होतीं। दलाल की बीवी की आंखें।
दलाल की बीवी अकेले में रोती रहती। अपनी जिंदगी के दुखों के बारे में सोचती हुई सोफे पर अधलेटी, कमरे में मंडराती बिल्ली को देखती रहती। जाने क्यों उसे बिल्ली अपनी-सी लगती। वह उठ कर रसोई में जाती और एक प्लेट में दूध लाकर उसके सामने रख देती। बिल्ली दूध को देखती और फिर दलाल की बीवी को। दलाल की बीवी की आंखों में दूध पीने का आग्रह होता। बिल्ली आग्रह को स्वीकार लेती। दूध पीने के बाद वह प्लेट को इतने बढ़िया ढंग से अपनी लंबी गुलाबी जुबान से चाटती कि प्लेट धुली हुई मालूम पड़ती। हालांकि पूरी सफाई से दूध पीने के बाद भी बिल्ली की मूंछ के एक बाल में ओस बराबर दूध की बूंद चिपकी रह जाती… और यह देख कर दलाल की बीवी के मन में हंसी का हल्का सा खयाल आता। लेकिन उसके दुख उसकी मुस्कान को स्थगित कर देते। वह गहरे पे्रम से बिल्ली पर नजर डालती और उसे उठा कर गोद में बैठा लेती।
बिल्ली को उसकी गोद में बैठना अच्छा लगता। वह पैरों को सिकोड़ लेती और सिर निढाल छोड़ देती। दलाल की बीवी उसका सिर खूब संभाल कर अपनी जांघ पर रख लेती। बिल्ली की आंखें मुंद जाती। दोनों के बीच मौन खिंचा रहता। कुछ मिनट यूं ही बीतते और उसके बाद दुख से भरी दलाल की बीवी अपना मन खोलने लगती…
‘जब से ये रंडी आई है, हरामी इस पर लट्टू है। कमीना मुझसे कटा-कटा रहता है। अपने दिन भूल गया, जब मेरे पैसों पर टुकड़े तोड़ता था। कुत्ता भी नहीं पूछता था इसको। मेरी गोद में सिर छुपा के रोता था। मेरी मति मारी गई थी कि इस पर दया खाती रही। किसी को कम में भी ले आता तो उसके साथ चली जाती थी कि इसको चार पैसे मिल जाएंगे…। इसके पास दो के चार ग्राहक आएंगे…। आज मुझे ही आंखें दिखाता है।’
उसकी आंखें नम हो जातीं…।
‘मेरी किस्मत ही फूटी है। मरे मिनिस्टर ने डांस बार बंद न कराए होते तो क्या मेरे को कोई कमी थी? रोज अच्छा कमा लेती थी। कोई न कोई मिल ही जाता था। बार बंद हुए तो किस्मत पर भी ताले पड़ गए। क्या करती और कब तक करती? तभी ये बोला कि चल मेरे साथ बैठ जा, तुझे ब्याह करके रखूंगा। …सच्ची कहती हूं, जब उसने ये बात बोली थी तो मैं बहुत खुश हुई थी! कौन औरत गंदे धंधे में रहना चाहती है? कौन नहीं चाहती कि ब्याह हो, घर बसे…? मुझे इस पर इतना प्यार आया था कि क्या बोलूं? मैंने जरा भी नहीं सोचा…।’
‘वैसे झूठ क्यों बोलूं… इसने मुझसे ब्याह किया तो फिर धंधा नहीं करने दिया। मां कसम… उस दिन के बाद आज तक बैठ के खा रही हूं। पर सच तो यह है कि इसकी दलाली मुझसे ब्याह करने के बाद फूली-फली…। डांस बार बंद होने के बाद लड़कियां कहां किसको ढूंढतीं…? इसने ही उन्हें ग्राहक ढूंढ के दिए। मेरी पहचान की तो सारी इससे लग गईं…। सब मुझसे जलन खाती हैं कि इसके पास कुछ ‘अलग-सी’ है क्या…?’
कहते कहते दलाल की बीबी के गाल लाल हो जाते। उसके होठों पर हल्की मुस्कान खिंचती और वह बिल्ली का नर्म-रोएंदार बदन सहलाने लगती। बिल्ली कुनमुनाती और आंखें खोल कर उसे देखती। दोनों की नजरें मिलतीं और दलाल की बीवी को लगता कि उसकी आखिर
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