संजीव क्षितिज दुर्लभ कवि हैं. बरसों बाद उनकी कुछ कविताएं ‘समास’ पत्रिका में पढ़ी तो आपस साझा करने से खुद को रोक नहीं पाया. बड़ी सहजता से जीवन की गहनतम सच्चाइयों से रूबरू कराती इस कविताओं के कवि से यह अपेक्षा है कि वे कुछ और कवितायेँ हमें पढने का अवसर देते रहें- प्रभात रंजन
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1.
एक लड़की क्रोध में
चली जाती है
पृथ्वी से
एक लड़की
चली जाती है पृथ्वी से
प्रेम में
2.
जैसे अभी अभी
दरवाजे से निकल कर
चली जाती है एक छाया
कभी कभी ऐसे भी आती है
मृत्यु
3.
किसने लिखी होगी मृत्यु
किसने पढ़ा होगा शोक गीत
किसने सुने होंगे रुदन
जब छायाएं मंडराती हैं आत्मा के
चारों तरफ
किसने बनाया होगा मनुष्यों को
इतना सहनशील
4.
मैं था तो मुझमें
होने का डर था
मैं होता
तो होने से डरता
वहां
5.
आज स्वप्न में जो
अग्नि दिखी
एक देह से उठती थी वह
और देह को
जलाकर देह से उठती थी
वह
6.
जीवन रहेगा तो एक स्त्री के
बोल रहेंगे जीवन रहेगा
तो एक स्त्री की हँसी रहेगी
जीवन रहेगा तो एक स्त्री का
साथ रहेगा
मृत्यु एक शब्द भर नहीं है अब
7.
इस शहर से चलो
तो बादल साथ चले जाते हैं
वे आते हैं जैसे विदा के
योग आते हैं जीवन में वे आते हैं
और निःस्वर देखते हैं हमें
सामान जमाते
वे जानते हैं कौन कहाँ जा रहा है
लौटने के लिए कौन कौन
न लौटने के लिए
इस शहर से चलो तो बादल
साथ चले जाते हैं
8.
पत्तों में एक घर था
सिर्फ रहने वाले जानते थे पेड़ का नाम
वे पक्षी नहीं थे और आसमान
खोजते थे वे खोजते थे कि उन्हें
मिल गया आसमान
जैसे जैसे पंख पसार कर जिंदगी
वे उड़ान भरते थे धीमे धीमे वे उड़ान भरते थे
जैसे उन्हें उड़ान शुरू करना है अभी
यह बहुत पहले की बात है और
बहुत पहले भी ऐसा ही था जीवन
जैसे अभी अभी