तहलका पत्रिका के संस्कृति विशेषांक में शालिनी माथुर का लेख छपा था ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच‘ , जिसमें कुछ लेखिकाओं की कहानियों को उदाहरण के तौर पर इस रूप में पेश किया गया था जिसे आपत्तिजनक कहा जा सकता है। मेरा निजी तौर पर यह मानना है कि नैतिकता को मूल्यांकन का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। साहित्य का ऐसा कोई भी मूल्यांकन सम्यक नहीं हो सकता। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘हमज़ाद’ को अश्लील कहकर आलोचक खारिज करते रहे हैं, लेकिन यह सच्चाई है कि पतनशील समाज का ऐसा यथार्थ उसमें अंकित है जो अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन आप उसे यथार्थ के आधार पर खारिज नहीं कर सकते। जिस तरह यथार्थ का कोई एक आधार नहीं होता उसी तरह नैतिकता का कोई एक माप तौप विभाग नहीं हो सकता। बहरहाल, शालिनी माथुर ने जिन लेखिकाओं की कहानियों के हवाले दिये थे उनमें हमारे दौर की एक महत्वपूर्ण लेखिका जयश्री रॉय भी हैं। यहाँ प्रस्तुत है उनका प्रतिवाद- प्रभात रंजन
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सामाजिक सरोकारों की प्रहरी- शालिनी माथुर जी!
मुझे मालूम नहीं कि आप वयोबृद्धा हैं या प्रौढ़ा या युवती, इसलिए वयोचित सम्बोधन नहीं कर पाने के लिए क्षमा चाहती हूँ।
तहलका के पठन-पाठन अंक में आपका लेख ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच‘ पढ़ा, जिसमें आपने समकालीन स्त्री लेखन के बहाने मेरे सहित कुछ अन्य कथाकारों की कथा-कृतियों की समीक्षा करते हुये अपने उच्च सामाजिक सरोकारों (?) की दुहाई दी है। पाठकों के हाथ में सौंप दी गई रचना की समीक्षा-आलोचना करना या उससे सहमति-असहमति प्रकट करना किसी भी व्यक्ति का लोकतान्त्रिक हक है, आपका भी। कायदे से लेखकों को इन आलोचनाओं से विचलित होकर उत्तर-प्रत्युत्तर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन आलोचना जब सामान्य शिष्टाचार और शालीनता की सारी हदों को एक नियोजित और बेशर्म ढिठाई के साथ पार कर लेखकों की मानहानि और चरित्र हनन पर उतारू हो जाएतो इसका प्रतिरोध जरूरी हो जाता है। आपने जिस तरह कहानियों की समीक्षा करते हुये मेरे सहित अन्य लेखिकाओं को चूके हुये संपादकों-समीक्षकों को रिझानेवाली तवायफ, रैम्प पर कैटवाक करती बार्बी डॉल्स आदि-आदि कहा है, वह शर्मनाक और आपत्तिजनक है। मैं औरों की कहानियों के बारे में तो नहीं कह सकती, पर हाँ, अपनी कहानियों के हवाले से यह जरूर कहना चाहती हूँ कि इस क्रम में आपने न सिर्फ संदर्भों से काटकर अपने मतलब की सेलेक्टिव पंक्तियों को उद्धृत किया है बल्कि जो कहानी में नहीं है उसे भी कहानी पर आरोपित कर उसका मनमाना पाठ या यूं कहें कि कुपाठ रचने की कुत्सित कोशिश की है। कई बार तो यह भी लगता है कि कहानी के शीर्षक और पात्रों के नाम तो जरूर मेरी लिखी हुई कहानियों से हैं, पर जो घटनाक्रम आप लिख रही हैं वह तो मेरी कहानी के हैं हीं नहीं। अपनी मनगढ़ंत कहानी को किसी दूसरे लेखक की कहानी पर आरोपित कर के बीच बाज़ार उसे जलील करने के इस तथाकथित सामाजिक सरोकार पर वारी जाने को मन करता है। मैं आश्चर्यचकित हूँ कि कैसे कोई स्त्री किसी दूसरी स्त्री को अपमानित करने के लिए इस हद तक जा सकती है, वह भी स्त्रीवाद के नाम पर! मैं निजी तौर पर यह मानती हूँ कि दुनिया की सारी स्त्रियॉं के दुख मौलिक रूप से एक ही हैं, यही कारण है कि स्त्री-स्त्री के बीच एक सहज-स्वाभाविक बहनापे का भाव मिलता है। यानी एक स्त्री दूसरी स्त्री का प्रतिरूप या विस्तार होती है। ऐसे में इस लेख में वर्णित चीर हरण का-सा दृश्य, यदि आपके ही शब्द उधार लूँ तो, ‘अपने ही शरीर का अवयवीकरण‘ है, जिसे आप एक पोर्नोग्राफर की सीख कहती हैं। आपको तो मेरे बहनापे की यह बात भी खल रही होगी, कारण कि स्त्री हितों के हक में आवाज़ उठानेवाली एक महान स्त्री का देह-व्यापार करनेवाली किसी तवायफ से कैसा बहनापा हो सकता है? शालीन शालिनी माथुर जी! माफ कीजिएगा ये शब्द मेरे नहीं आपके ही हैं और इन्हें दुहराते हुये भी मैं घोर यंत्रणा से गुजर रही हूँ। निजी और चारित्रिक आक्षेपों के दंश से झुलसे आपके इस लेख से गुजरते हुये मुझे अचानक ही दु:शासनों की किसी कौरव-सभा में घिर जाने का-सा अहसास भी हो रहा है।
आप चाहे लाख कहें कि इसके लिखने का आपका उद्देश्य रचनाकारों के व्यक्तित्व की चर्चा करना नहीं है, लेकिन बार-बार, घूम-फिर कर जिस तरह आप अपनी सारी लेखकीय ऊर्जा का इस्तेमाल इन लेखिकाओं के चरित्र हनन के लिए करती हैं उसमें किसी षडयंत्र का भी आभास होता है। आप हमारे लेखन को हारे-चूके, बृद्धवृंद संपादकों-समीक्षकों को रिझाने के लिए किया गया नाच कहती हैं, लेकिन मेरा विवेक, मेरे संस्कार और मेरी प्रवृत्ति उसी तर्ज पर आपके लिखे को, किन्हीं ‘न हारे‘, ‘न चूके‘ समर्थ और युवा संपादकों-पाठकों के लिए लिखा हुआ कहने की इजाजत नहीं देता। पर हाँ, अपनी कहानियों की आपकी व्याख्या को देखकर इतना जरूर कहने की इजाजत चाहती हूँ कि सूक्ष्म पितृसत्तात्मक अवधारणाओं ने आपके तथाकथित स्त्रीवाद और सामाजिक सरोकार का अनुकूलन जरूर कर दिया है। मनोविज्ञान बहुत सही कहता है कि हम वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं। वरना मेरी उन्हीं कहानियों में, जिन्हें आपने उद्धृत किया है, स्त्रियॉं के संदर्भ में कही गई घरेलू हिंसा, असमानता, यौन शोषण, अवसर का अभाव, उपेक्षा, संपत्ति का अधिकार, विवाह संस्था में अपमानजनक स्थिति, शिक्षा आदि जैसी बातों पर आपकी नज़र क्यों नहीं गई? और जहां आपकी नज़र गई भी, वहाँ पितृसत्ता से पोषित और अनुकूलित आपके पूर्वाग्रहों के साथ गलबहियाँ कर के! पुरुषवादी मानसिकता ने स्त्रियॉं को हमेशा से दोयम दर्जे का नागरिक माना है। ‘इनफीरियर सेक्स‘ और ‘अन्या‘ जैसे सम्बोधन उसी सामंतवादी मानसिकता की उपज हैं जो यौनिकता जैसी सहज और प्राकृतिक क्रिया को भी सिर्फ और सिर्फ पुरुषों के आनंद का साधन मानती हैं। यह उसी मानसिकता से संचालित होने का नतीजा है कि किसी स्त्री का अपनी मर्जी के पुरुष के साथ संबंध बनाना, वह भी प्रेम में, आपको स्वीकार नहीं होता और उसकी सजा देने के लिए आप उन्हीं मर्दवादी नख-दांतों से निजी होने की हद तक लेखिकाओं पर आक्रमण करने लगती हैं। पितृसत्ता से उपहार में प्राप्त शुचिताबोध आप पर इस कदर हावी है कि इस क्रम में आप भावना, संवेदना और प्रेम से सिक्त स्त्री-मन की न सिर्फ अनदेखी करती हैं बल्कि बिना पात्रों की पृष्ठभूमि, भावभूमि और मनोदशा को समझे ही अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को कहानी पर आरोपित कर देती हैं।
आपको मेरी कहानी ‘औरत जो नदी है‘ की नायिका दामिनी से शिकायत है कि वह एक शादीशुदा पुरुष से संबंध बनाती है। आप उसकी इस मान्यता से भी ख़ासी असहमत हैं कि वह विवाह संस्था को वेश्यावृत्ति मानती है। और इस क्रम में आप मुझ पर यह भी आरोप मढ़ती हैं कि मैंने ‘पत्नी घर में, प्रेयसी मन में‘ की मर्दवादी अवधारणा के अनुरूप खुद को ढाल लिया है इसी कारण से उस कहानी के पुरुष पात्र अशेष के जीवन में तीन स्त्रियाँ हैं- एक पत्नी उमा और दो प्रेयसियाँ दामिनी और रेचल। आपने जिस चालाकी से यहाँ बिना दामिनी के मन में झाँके अपना फतवा मेरी कहानी और मेरे व्यक्तित्व पर चस्पाँ किया है, आपका ध्यान उधर आकृष्ट करना चाहती हूँ। आपको याद हो कि दामिनी अपनी मां के जीवन में विवाह संस्था का असली रूप देख चुकी है, उसके पिता की उपेक्षा ने उसकी मां की हत्या कर दी थी। मतलब यह कि विवाह संस्था में उसका अविश्वास अकारण नहीं है। जहां तक अशेष के साथ उसके संबंध की बात है तो यह भी आपको पूरी तरह याद होगा कि वह उसके प्रेम में है। आप यह भी न भूली होंगी कि अशेष बार-बार उससे अपने असफल दांपत्य की बात भी कहता है। दामिनी न सिर्फ अशेष से प्रेम करती है बल्कि उसे उमा के प्रति उसकी जिम्मेवारियों के लिए भी सतर्क करती है। और जिस दिन उसे यह पता चलता है कि अशेष प्रेम के नाम पर उसे छल रहा है और वह समानान्तर रेचल के साथ भी संबंध में है, वह उसे उसी क्षण अपने प्रेम और अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देती है। मुझे आश्चर्य है कि अपनी मां के दांपत्य की त्रासदी को देख चुकी दामिनी का प्रेम के नाम पर धोखे से छलनी व आहत लेकिन आत्मसम्मान और आत्मचेतना से दमकता चेहरा तथा उमा के लिए उसके मन में पलता बहनापा आपको बिलकुल भी नहीं दिखता। आपको यह भी नहीं दिखता कि अशेष की करतूतों को देख-समझ कर वह रेचल के प्रति तनिक भी असहिष्णु और तिक्त हुये बिना अशेष को अपनी ज़िंदगी से बाहर कर देती है। बिना स्त्री मन में झाँके उस पुरुष के व्यवहारों के आधार पर, जिसने एक स्त्री को छला तथा उसके प्रेम और भरोसे की हत्या की, आप कहानी के सिर पर अपने मनगढ़ंत निष्कर्ष का बोझ लाद देती हैं। पुरुषवादी नैतिकता यही तो करती रही है हमेशा से! माफ कीजिएगा शालिनी माथुर जी! एक स्त्री ने शादीशुदा पुरुष से प्रेम क्यों किया, उसने विवाह संस्था में अविश्वास क्यों जताया, जैसे तर्कों का यह संजाल उसी पुरुषवादी व्यवस्था की देन है। मैं नहीं जानती आप शादीशुदा हैं या नहीं, पर आप जैसी सामाजिक सरोकारों की धनी स्त्री ने विवाह संस्था की हकीकतों पर जरूर गौर किया होगा। यदि अब तक न भी किया हो तो, कृपाकर एकबार अपने उन तथाकथित सरोकारों के वास्ते ही सही, इस व्यवस्था पर गौर कीजिएगा, क्या यह सच नहीं कि दो वक्त का खाना-कपडा देकर पुरुष स्त्री की देह, उसका मन, विचार, अस्मिता, पहचान सब खरीद लेता है? रोटी-कपड़े और एक मर्द के नाम के बदले खरीद ली गई कोई स्त्री क्या आजीवन किसी पुरुष का अपमान इसलिए झेलती है कि वह अपने पति से प्रेम करती है, या इसलिए कि वह शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और सामाजिक रूप से निर्भर और विपन्न
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