तोताबाला ठाकोर के नाम एक खुला ख़त

    हिंदीनेक्स्ट पर तोताबाला ठाकोर की कविताओं को पढ़कर उसके नाम एक खुला ख़त लिखा है ‘नीना आंटी’ की लेखिका अनुकृति उपाध्याय ने। आप भी पढ़ सकते हैं-
    तोतबाला ठाकोर के आत्मकथ्य वाली कविताएँ पढ़ीं । कविताओं का मुहावरा और शैली मौलिक है, कविता में कथा तत्त्व के कारण रोचकता भी है, यानि कविता के स्तर पर मैंने इन उन्हें सराहा। लेकिन कथ्य और प्रसंग के तौर पर मैंने इन कविताओं से स्वयं को विरक्त पाया।मुझे लगा कि तोताबाला स्त्री का छद्म भर है, जैसे नौटंकी में पुरुष स्त्री का नेपथ्य पहन कर स्त्री भूमिका निभाता था। पुरुष कल्पना को स्त्री का जामा पहनाया सा लगा। अतः तोताबाला ठाकोर के नाम यह पत्र लिखने से नहीं रह पाई। खुला ख़त है, सो आप भी पढ़ें- अनुकृति
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    तोताबाला ठाकोर के नाम एक खुला ख़त
     
    मैं तुम्हें जानती हूँ तोताबाला ठाकोर
    तुम बांग्ला आख्यानों की नायिका का शेंदूर-अलक्तक-शाँख-पोला-ताँत धारे
    अकूतागावा की कहानी की केसा हो
    तुमने ही मारा था अपने पति वातारू को अपने उस प्रेमी मोरीटा के लिए
    जिसे तुम प्रेम नहीं करती थीं, न वह ही तुम्हें
    विषाक्त वासना के रिश्ते में डाँवाडोल
    तुमने चुभा दिया था एक रात पति के सीने में ख़ंजर
     
    तुम बहुरूपिनी हो, तोताबाला ठाकोर –
    कुंकुम और राख में लिप्त देह
    नाभि के विषकूप में चन्दन गंध
    गुप्तांगों में जवा फूल सजाए
    तुम कामुक हिंसा की मारक प्रतिमा हो
    जिसे देखता है भयमुग्ध पुरुष टुकुर -टुकुर
    तुम्हारी कामुकता पर लहालोट होता
    तुम्हें कितने ही नामों से पुकारता-
    कामिनी, दामिनी, कुलटा, चुड़ैल
     
    किन्तु सच तो यह है, तोताबाला, कि तुम स्त्री हो ही नहीं
    तुम तो एक मनघड़ंत अफ़वाह हो
    एक भीषण कल्पना
    पुरुष की कामना का आरोपण
    मैं तुम्हारे झूठ की कलाकारी को सराह सकती हूँ, तोताबाला
    तुम्हारे छद्म के दुरावों, तुम्हारे छल के वलयों पर अश-अश कर सकती हूँ
    लेकिन तुम्हें सच को कुंठित नहीं करने दे सकती
    और सच यह है कि तुम उतनी ही स्त्री हो तोताबाला ठाकोर
    जितना कि फेन लहर होता है
     
    यदि तुम स्त्री होतीं तो जानतीं
    कि स्त्री के वक्ष और योनि
    दूध और ख़ून में लिथड़े होते हैं
    उसकी पीठ और कन्धों पर चंदन के फूल-पत्र नहीं
    मार के नीलगूँ निशान अंके होते हैं
    उसकी कामना जब तक जागती है
    उसकी देह पस्त हो कर सो जाती है
    उसके ओंठों में जो फँसी होती है वह हँसी नहीं, कुछ और ही होती है
    उसके हाथों में पति की जीवन-नाड़ी काटने वाला चाकू नहीं होता
    बल्कि उसके हाथों में तो कुछ होता ही नहीं
     
    मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर उस स्त्री-गृह में ले जाना चाहती हूँ
    जहाँ अपने फूटे कपार पर हल्दी का फाहा लगाए स्त्री अपने मदकी पति से बचने आई है
    उसके बच्चे भय से काँप नहीं रहे
    क्योंकि वे जड़ हो गए हैं
    मेज़ के उस ओर बैठी उसे सांत्वना देती स्त्री का माथा नहीं फूटा है
    लेकिन उसके भीतर भी कुछ टूटा हुआ है
    आती-जाती, हंसती और चुप औरतों में क्या कुछ टूटा और बेजोड़ सा है
    यह तुम नहीं जानतीं, तोताबाला ठाकोर
    क्योंकि तुम तो उतनी भी स्त्री नहीं हो
    जितना की हवा का स्वर बच्चे का कुरलाना होता है
     
    तुम सिर्फ़ पुरुष की ओर से देखती हो तोताबाला
    यदि तुम स्त्री होतीं तो स्त्री की ओर से देख पातीं
    कि जीवन वासना की जाली से छनती रहस्यमयी रात सा नहीं
    पैरों-तले की ठोस, खुरदुरी, धूल -भरी ज़मीन सा है
     
    जाओ, तुम उसी पुरुष-दृष्टि में लौट जाओ, तोताबाला ठाकोर
    जिसने तुम्हें जन्म दिया है
    कि अपने भय और कामना के जुड़वां विष-फल
    तुम्हारे कंठ में लटका कर सुर्ख़रू हो जाए
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