ब्रजेश्वर मदान को मैं तब से जानता था जब डीयू में पढ़ते हुए फ्रीलांसिंग शुरू की थी. दरियागंज में ‘फ़िल्मी कलियाँ’ के दफ्तर में उनसे मिलने जाया करता था. वे उसके संपादक थे. मनोहर श्याम जोशी से जब बाद में मिलना हुआ और उनसे एक गहरा नाता बना तो वे कहते थे कि ब्रजेश्वर मदान स्वाभाविक जीनियस है. वे आज भी हैं लेकिन हमारी स्मृतियों से दूर हो गए हैं, जाने कहाँ. लेखक शशिभूषण द्विवेदी का यह संस्मरण पढ़ा तो एक ज़माना याद आ गया जिसे भूले एक ज़माना हो गया था. शशिभूषण ने बहुत प्यार से लिखा है. उस सम्मान के साथ जिसके वे हमेशा हकदार थे. हैं. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर ने एक बार एक गोष्ठी में सार्वजनिक रूप से कहा था कि पूरे दक्षिण एशिया में जीवित महान लेखकों में इंतिजार हुसैन के बाद अगर कोई दूसरा है तो वो हैं ब्रजेश्वर मदान। हो सकता है कि अजीत कौर की बात में कुछ अतिश्योक्ति हो लेकिन मदान साहब कई मामलों में अनोखे लेखक तो हैं हीं। हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में वे समान रूप से मकबूल हैं, बल्कि उर्दू में तो शायद हिंदी से कुछ ज्यादा ही। वे दोनों हाथों से एक साथ लिख सकते हैं-एक हाथ से हिंदी में तो दूसरे से उर्दू या पंजाबी में। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी के वे समान रूप से विद्वान हैं। लेकिन लेखन की दुनिया में जब मैं आया तो ब्रजेश्वर मदान को जानता तक नहीं था। मगर जब जाना तब मैं उनका दीवाना हो गया। आगे बढऩे से पहले मैं बता दूं कि अभी हाल ही में मैंने कनॉट प्लेस की अंग्रेजी किताबों की एक दुकान में एक किताब देखी जिसमें हिंदी की कुछ अनूदित कहानियां थीं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस किताब को बेस्ट सेलर का दर्जा हासिल है और यह शायद हार्पर कालिंस या पेंगुइन से छपी है(प्रकाशक का नाम अब ठीक-ठीक याद नहीं)। इस किताब में हिंदी के जिन लेखकों को प्रतिनिधि लेखक माना गया उनमें-प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कमलेश्वर, स्वदेश दीपक और ब्रजेश्वर मदान हैं।
इस किताब में मदान साहब की कहानी ‘लेटर बॉक्स’ है। इसी नाम से उनका एक संग्रह भी है जो हिंदी के एक गुमनाम प्रकाशक ने छापा है और अब शायद आउट ऑफ प्रिंट है। मदान साहब के अनुसार यह प्रकाशक दरअसल उनका मित्र है (भले ही उसने उनका कितना ही शोषण किया हो)। मदान साहब की ज्यादातर किताबें ऐसे ही गुमनाम प्रकाशकों ने छापी हैं जो शराब के नशे में उनके दोस्त बन गए। अजीब बात है कि बाद में जब मैं और प्रभात रंजन उनके संपर्क में आए और हमने चाहा कि उनकी किताबें बड़े प्रकाशकों के यहां से ढंग से छपकर आएं तो उन्होंने इंकार कर दिया। उनका कहना था कि ‘यार, दोस्ती भी कोई चीज होती है’, जबकि इन किताबों के लिए उन्हें बाजार दर से ज्यादा पैसे देने की बात हो चुकी थी। प्रभात गवाह हैं। मगर मदान साहब टस-से-मस नहीं हुए। उन दिनों मैं मदान साहब के साथ दिन-रात रहता था और प्रभात ने यह जिम्मेदारी मुझे दी थी कि मैं मदान साहब को मना लूं। लेकिन लाख कोशिश के बावजूद मैं उन्हें नहीं मना सका। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी असफलता है।
उन दिनों मदान साहब मुझे अपना बेटा मानते थे और अपनी वसीयत मेरे नाम करने को उतावले थे। हालांकि यह सब शराब के नशे में होता था। ऐसी हालत में अक्सर वे मुझसे कहते कि ‘यार, सुनील दत्त के पास तो इतना पैसा था कि संजय दत्त का इलाज उसने लंदन में करा लिया। मैं तो अपना सब कुछ बेच-बाच भी दूं तो भी तेरे लिए इतना पैसा नहीं जुटा सकता।’ और मैं सोचता कि मेरे पास तो इतना पैसा भी नहीं कि इसी शहर में आपका इलाज करा सकूं। यानी हम दोनों बाप-बेटे एक दूसरे के इलाज के मुताल्लिक सोचते रहते और यह सब नशे में होता था। होश में आते ही वे मुझे हरामी कहते और मैं उन्हें। हालांकि हमारी उम्र में कम-से-कम तीस-चालीस साल का अंतर था।
लेकिन ये रिश्ता बहुत गहरा था। इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने नौकरी बदल दी और उनसे दूर चला आया। दो-तीन महीने बाद ही पता चला कि मदान साहब को फालिस का अटैक पड़ा है और उनका दायां हिस्सा पूरी तरह बेकार हो चुका है। मैं उन्हें देखने जाना चाहता था लेकिन पता नहीं था कि वे कहां हैं। चूंकि अपने घर में वे अकेले थे और फालिज के अटैक के बाद अपने किसी रिश्तेदार के यहां चले गए थे। यह खबर मिलते ही मैंने प्रभात को फोन किया। न प्रभात न मेरी हिम्मत पड़ी इस अपाहिज हालत में उन्हें देखने की। वे हमारे हीरो थे और अपने हीरो को हम अपाहिज नहीं देख सकते थे। इस दौरान कवि चंद्रभूषण और रंजीत वर्मा से उनकी खोज-खबर मिलती रही। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाए। हिंदी के कई धुरंधरों और मठाधीशों को उनके बारे में बताया तो उन्होंने भी कोई रुचि नहीं ली। क्यों लेते? अब उनसे उन्हें कोई लाभ जो नहीं था। यूं भी मदान साहब जिंदगी भर इन लोगों को अंगूठा दिखाते रहे। उनकी ज्यादातर क्लासिक कहानियां बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में नहीं छपीं। अधिकांश कहानियां तो ‘फिल्मी कलियां’ में छपीं जिसके वे अघोषित संपादक थे और जिसका मालिक उन्हें रोज वेतन की जगह शराब की एक बोतल पकड़ा देता था। उन्होंने बताया था कि मुद्राराक्षस से उनकी दोस्ती ‘फिल्मी कलियां’ में छपी उनकी एक कहानी के जरिए ही हुई। जाने क्यों वे मुझे बहुत जहीन और पैदाइशी किस्सागो मानते थे और इस बात को अपने उस बेटे से जोड़ लेते थे जो जन्म के चार-छह महीने बाद ही गुजर गया था। वे अक्सर कहते कि अगर मेरा बेटा जिंदा तो बिल्कुल तेरे जैसा होता। उन दिनों नशे में वे अक्सर मुझे बहुत सारी किताबें डांट-डांट कर पढ़ाते थे। उनकी दी हुई बहुत सी किताबें आज भी मेरे पास हैं जिनमें हेनरी मिलर की ‘ट्रॉपिक ऑफ कैप्रिकॉन’ खास है।
खैर…उनके बेटे से जुड़ी कहानी सचमुच बहुत दुखद है। मदान साहब की जिंदगी की सबसे बड़ी ट्रेजडी। महज बीस-पच्चीस रुपये न होने की वजह से उनका बेटा 30-३५ साल पहले बीमारी में बिना इलाज के मर गया। इस सदमे को उन्होंने तो जैसे-तैसे बर्दाश्त कर लिया लेकिन उनकी पत्नी नहीं कर पाईं और सारी जिंदगी के लिए साइकिक हो गईं। उस बेटे के कपड़े और मोजे तक उन्होंने संभाल कर रखे थे और उन्हें देखकर अक्सर वे मदान साहब की लानत-मलामत करती थीं। उनका मानना था कि उनके बेटे की मौत के जिम्मेदार मदान साहब ही हैं। यह सब तो मेरा अपना देखा हुआ है। मदान साहब उनकी बात चुपचाप सुनते रहते और उनका कुछ ज्यादा ही खयाल रखने लगते। हालांकि ये बहुत बाद की बात है।
मदान साहब को शराब की लत थी और यह सब उनकी जिंदगी के भयानक दुखों के बायस था। ये दुख इतने बड़े थे कि मैं उन्हें लिख नहीं सकता और लिख दूं तो कोई समझ नहीं पाएगा। जिंदगी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो कही नहीं जा सकतीं। मदान साहब से मेरा संबंध सहारा समय और राष्ट्रीय सहारा में नौकरी के दौरान ही बना। इस दौरान उन्हें उसी एक चीज से अरुचि हो गई थी जिसने उन्हें इतनी शोहरत दी यानी फिल्मी लेखन। मनोहर श्याम जोशी को मदान साहब अपना गुरु मानते रहे हैं और प्रभात बताता है कि जोशीजी कहा करते थे कि पूरे दक्षिण एशिया में फिल्म की ऐसी समझ रखने और उस पर लिखनेवाला मदान से बेहतर कोई नहीं। और यह सच भी है। उनकी किताब ‘सिनेमा: नया सिनेमा’ इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
मदान साहब को फिल्म लेखन के लिए हिंदी में पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। यह सम्मान उन्हें तब मिला था जब राष्ट्रीय पुरस्कारों में आज की तरह तीन-तिकड़म नहीं चलते थे। लेकिन मदान साहब को कभी इस बात का अहंकार नहीं हुआ और न उन्होंने इसका कोई लाभ ही उठाया। उन्हें तो इसी में खुशी थी कि यह पुरस्कार उन्होंने अपनी बीवी के साथ लिया और उस समय वह बहुत खुश थी। पत्नी की मौत के बाद वह चित्र जिसमें वे उनके साथ वह पुरस्कार ले रही हैं और बहुत खुश हैं, मदान साहब ने अपने सिरहाने रखा हुआ था। उनके तकिए के नीचे हमेशा फिल्म अभिनेत्री माला सिन्हा का चित्र रहता था। एक जमाने में माला सिन्हा से उनका प्रेम चला था, शायद एकतरफा। हालांकि उनके नाम माला सिन्हा के कई भावभीने पत्र मैंने खुद देखे हैं। एक पूरी एल्बम थी जिसमें वे माला सिन्हा के साथ हैं या उनकी बेटी को गोद में खिला रहे हैं (जो अब खुद भी फिल्म अभिनेत्री है।) माला सिन्हा के बारे में वे अक्सर कहते कि इस औरत ने मुझे बर्बाद कर दिया। दरअसल माला सिन्हा के चक्कर में उन्होंने बहुत पापड़ बेले थे। बीए करने के बाद माला सिन्हा के एक परिचित के यहां ट्यूशन पढ़ाया और फिर फिल्मों की दीवानगी के चलते घर (स्यालकोट) से भागकर दिल्ली चले आए। दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं था सो ‘फिल्मी कलियां’ और दूसरी फिल्म पत्रिकाओं में बेगारी की। शायद ‘फिल्मी कलियां’ में ही उन्होंने माला सिन्हा पर कोई लेख लिखा था जिसे पढक़र माला सिन्हा ने उन्हें पत्र लिखा और मिलने के लिए बंबई बुलाया। वे अचानक सब कुछ छोड़-छाडक़र बंबई चले गए। माला सिन्हा मिलीं और भी बहुत से लोग मिले।
राजकपूर, दिलीप कुमार और भी उस जमाने के जाने-माने लोग। मणि कौल और कुमार साहनी बाद में उनके दोस्त ही बन गए। इसके बाद से ही वे पूरी तरह फिल्म के हो गए। लेकिन फिल्म उनका पहला प्यार नहीं था। वह मजबूरी का काम था। उनका पहला प्यार तो साहित्य था। लेकिन साहित्य से उन्हें पैसा नहीं मिल सकता था। पैसा मिलता था फिल्म लेखन से। नौकरी उन्होंने कभी की नहीं। की भी तो एकाध साल के लिए जब वे रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच गए थे। हिंदी में उनके जैसा ‘होलटाइमर फ्रीलांसर’ मैंने नहीं देखा। पहले होते होंगे तो नहीं जानता। मदान साहब ने जो कुछ पाया-कमाया सिर्फ लेखन से ही। इसके अलावा उन्होंने कभी कुछ और किया-मैं नहीं जानता। एकबार उन्होंने किसी और के जरिए अपना एक ब्लॉग भी बनवाया था जिस पर लिखा था-‘नौकरी कभी कभार, चाकरी कभी नहीं की।’
मंटो और अहमद नदीम कासमी उनके प्रिय लेखक हैं। कासमी तो उनके दोस्त ही थे। कासमी के तमाम संस्मरण अक्सर वे मुझे सुनाते थे। सिर्फ लेखन के दम पर ही उन्होंने नोएडा में इतना बड़ा बंगला बनवाया जिसमें पत्नी की मृत्यु के बाद वे भूत की तरह अकेले भटकते रहते थे। शक्की बहुत थे। जब तक पत्नी जिंदा थीं उन्हीं के हाथ का बना खाना खाया। उसके बाद अपनी साली के हाथ का बना खाना भी उन्होंने कभी नहीं खाया। उन्हें शक था कि ये लोग उन्हें जहर दे देंगे। हालांकि मदान साहब के इस शक या फोबिया के पीछे कुछ तथ्य भी हैं। दरअसल, प्रापर्टी के चक्कर में उनके तमाम रिश्तेदार उनके पीछे पड़े हुए थे। उन्हें डर था कि ये लोग इस चक्कर में उनकी जान ले लेंगे। लेकिन जिंदगी अजीब है। जिस संपत्ति के लिए वे इतने सशंकित थे, फालिज के अटैक के बाद अब वे उसे ही छोडक़र किसी और के यहां पड़े हुए हैं। खैर…
एक जमाना था जब हम लोग ऑफिस के बाद शाम सात बजे नोएडा सेक्टर-१२ की मार्केट में होते थे। पूरी मार्केट में हर दुकानदार उनका परिचित था और उनकी बहुत इज्जत करता था। उनमें बहुत से लोग उनके पाठक भी थे। एक कसाई और एक कपड़े की दुकान वाले को तो मैं खुद जानता हूं जो उनका लिखा जरूर पढ़ते थे। वहां शराब की एक शानदार दुकान है जो शाम को उनका स्थाई अड्डा हुआ करती थी। उस दुकान का मालिक उनका पाठक था और उनकी बहुत इज्जत करता था। चूंकि मदान साहब घर पर नहीं पीते थे (क्योंकि उनकी पत्नी को यह पसंद नहीं था) इसलिए उसने दुकान में ही उनके लिए विशेष इंतजाम कर रखा था। मैंने आज तक कहीं और कभी नहीं देखा कि शराब की दुकान पर किसी का उधार खाता चलता हो। लेकिन उस दुकान पर मदान साहब का उधार खाता बाकायदा चलता था। मैंने खुद उनके खाते से कई बार उधार शराब ली है। इसका एक कारण तो मदान साहब के प्रति उन लोगों की श्रद्धा थी। दूसरा यह कि मदान साहब पे मास्टर थे। ज्यादा दिन वे किसी का उधार नहीं रखते थे और बिना किसी हिसाब-किताब के सबको खुश रखते थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मदान साहब कोई शाहखर्च थे। कई बार वे कमीनगी की हद तक कंजूस हो जाते थे। मैंने देखा है कि कई बार उन्होंने बहुत जरूरतमंदों को भी जलील करके भगा दिया। हो सकता है कि इसके पीछे कुछ और कारण हों जिन्हें मैं नहीं जानता। अकारण तो वे किसी को बेइज्जत नहीं करते थे। कई बार फिल्म वालों को मैंने उनकी चिरौरी करते भी देखा है लेकिन उन्होंने उन्हें डांट कर भगा दिया। उन दिनों उन्हें फिल्मों से चिढ़ हो गई थी। यहां तक कि टीवी से भी उन्हें नफरत थी। उनके घर पर एकाध बार मैंने उनका टीवी चला दिया तो वे भडक़ गए और बोले इस ‘इडियट बॉक्स’ को उठाकर बाहर फेंक दे। लोगों को इस मीडियम की कोई समझ नहीं है। टीवी में सब बेवकूफ भरे हुए हैं। मैं उनका मूड देखकर खमोश बैठा रहा।
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