‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ की कविताओं से पाठकीय आत्मालाप
युवा लेखक आलोक कुमार मिश्रा ने कवि पंकज चतुर्वेदी के कविता संग्रह पर यह टिप्पणी लिखी है। पंकज चतुर्वेदी का कविता संग्रह ‘आकाश में अर्धचंद्र’ का प्रकाशन रुख़ प्रकाशन ने किया है। आप इस टिप्पणी को पढ़ें-
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जैसे कविताएं शब्दों का जामा पहन अनगिन रूपों में शाया होती हैं, वैसे ही शायद विविध तरीके से पाठक कविताओं का पाठ भी करते होंगे। इन्हें पढ़ते हुए वो बेहद निजी अनुभूतियों से लेकर बड़े सामाजिक सांस्कृतिक राजनीतिक आयामों तक को महसूस कर सकते हैं। ऐसा ही कुछ आभास मुझे कवि ‘पंकज चतुर्वेदी’ का नया काव्य संग्रह ‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ को पढ़ते हुए बारहा होता रहा। इस संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए मैं कभी शब्दों और भावों की तिलस्मी दुनिया में घूमा, तो कभी ख़ुद में उतर कर इन कविताओं के दर्पण में अपना ही अंतस टटोल आया। कभी लगा कि मैं अपने समय का हूबहू चलचित्र देख रहा हूं, तो कभी पाया कि मनुष्यता के आख्यान से अपने लिए ही कुछ संदर्भ ढूंढ रहा हूं।
जैसे-जैसे संग्रह की छोटी-छोटी कविताएं सामने खुलती गईं, इनसे आत्मालाप जैसा एक संवाद होने लगा। इस संवाद में अंतर्विरोध या प्रतिरोध सिरे से गायब रहा, क्योंकि ये उस भाषा में दृश्यमान थीं जिनसे मेरी ही आत्मा को वाणी मिल रही थी। हर कविता मन को मथती और फिर उसे खिला देती। खिला मन कविताओं से बात करने लगता। अब कविता से बात तो उसकी भाषा में हो पाती, सो कुछ कविताओं से बतियाते हुए वह ख़ुद ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति का रूप धरने लगीं। ये कविताएं कवि के शब्दों का महज़ पाठकीय विस्तार हैं, जो उसे गुनते हुए उतर पड़ीं और ये पाठक उन्हें रोक न पाया।
‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ पढ़ते हुए उसकी कुछ कविताओं पर हृदय में पनपी कुछ कविताएं-
(संग्रह की कविताओं के लिए क़िताब पढ़नी होगी।)
(1)
‘हिंसा सिर्फ़ भय का आवरण है’
कहते हैं मेरे प्रिय कवि
पंकज चतुर्वेदी
पर जब देखता हूं
तरह तरह की हिंसा में लिप्त
अपने देश की सरकार को
तो पता हूं कि-
दिनोंदिन वो होती जा रही है भयहीन
और उतनी ही हिंस्त्र भी
उसे पूरा विश्वास है
अपने फैलाए मायाजाल पर
वह जानती है
कि अनंत दुख सहकर भी
जनता अब उसकी है
इस हिंसा में मुझे भय नहीं
अहंकार और अभय दिखता है
तुम क्या कहते हो
प्रिय कवि?
(कविता ‘हिंसा’ पढ़ते हुए)
(2)
‘अगले दिन की
छुट्टी का एहसास भी
बना देता है रात को सहज और अपना सा’
तो सोचो-
जब इतना सुखद है
एहसास एकदिवसीय क्षणिक मुक्ति का
तो कितनी आनंदकारी होगी
‘सतत मुक्ति’
यही बताना चाहते हो न
प्रिय कवि!
(कविता ‘अधिक अपनी’ पढ़ते हुए)
(3)
कवि कहता है-
‘प्यार के अभाव में
असुंदर मालूम होते हैं दृश्य’
तो लगता है
वो ये भी कह रहा हो कि
कुछ लोगों के लिए
बनी ही रहती है ये दुनिया
असुंदर।
(कविता ‘दृश्य असुंदर नहीं होता’ पढ़ते हुए)
(4)
‘सभी बर्बर हैं
यह बर्बरों का प्रिय तर्क है’
सही कहा कवि!
और देखो
आज बर्बर ही तो
अधिकांश प्रिय भी है।
(कविता ‘बर्बर’ पढ़ते हुए)
(5)
‘जो प्यार नहीं करता
सत्ता का साथ देता है’
कवि, बात तो सही है
पर अफ़सोस!
लोगों के प्यार में ही
उखाड़ दिया हमने
पिछली कम बेहतर लेकिन शर्मयुक्त सत्ताओं को
और ले आए पूर्ण बेशर्म सत्ता
विडंबना देखो-
मज़बूरी या अज्ञानतावश ही
कर रहे हैं लोग इससे प्यार।
(कविता ‘जो प्यार नहीं करता’ पढ़ते हुए)
(6)
कवि ने पाया-
‘लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता उन्हें है
जो सफल हैं’
मुझे भी यही लगता है
और अफसोसनाक रूप से ये भी कि-
‘आज सफल वही है
जो साथ है
सत्ता के।’
(कविता ‘आज़ादी का मतलब’ पढ़ते हुए)
(7)
कवि तुम कहते हो कि-
‘देश जानता ही है
वह किसी भूभाग का
नाम नहीं’
क्या करें
पर उस जनता का-
जो मानती ही नहीं ख़ुद को
देश।
(कविता ‘देखना’ पढ़ते हुए)
(8)
भले कर दिया मुक्त
अपनी हत्या के अपराध से
रोहित वेमुला ने उनको
ये महानता थी उसकी
पर ध्यान रहे
उन्हें कोई परवाह नहीं
ऐसी महानता की
अपराध ही उनकी महानता है
उन्हें झुका सकती है
तो बस
हमारी सम्मलित जीवटता और प्रतिरोध।
(कविता ‘अपराधियो’ पढ़ते हुए)
(9)
‘व्यवस्था
इच्छा मृत्यु का
वरदान दे सकती है
जैसी इच्छा हो
वैसा जीवन नहीं’
कवि, तभी तो देखे मैंने
जितने भी जीवन अनुरागी
थे सब के सब
व्यवस्था के द्रोही।
(कविता ‘वरदान’ पढ़ते हुए)
(10)
कवि, तुम कहते हो
‘यह अभिधा की अहमियत को
पहचानने का समय है’
और देखो
यही वो समय है जब
सबसे सबसे मोटी परत चढ़ा दी गई है इस पर
झूठ की
भ्रम की।
(कविता ‘अभिधा’ पढ़ते हुए)
(11)
सब मुद्दे तिरोहित कर
सच है कि वे
चिल्ला रहे हैं सिर्फ़ गाय गाय
पर भोले कवि!
ये अंत नहीं है मुद्दों का
मुद्दे हों या चेहरे
जितने असली होते हैं
उससे ज्यादा होते हैं नकली
देखो गाय के उस पार
खड़े हैं पंक्तिबद्ध-
मंदिर
धर्म
आबादी
भोजन
आज़ादी
पहनावा
संस्कृति
प्रजनन
स्त्री
संहिता
संविधान
परंपरा
पहचान
आदि
इत्यादि…
(कविता ‘हाय’ पढ़ते हुए)
(12)
सही कहा कवि तुमने कि-
‘पहना सबसे बाद में
पर उतारा सबसे पहले
जाता है मुकुट’
अब देखना है कि-
‘चिपकाए रखता है कब तक इसे
अपने सिर पर
हमारा नया राजा!’
(कविता मुकुट पढ़ते हुए)
(13)
साँप से सिहरन होती है
मनुष्य को
पर क्या कभी किसी ने सोचा कि-
मनुष्य को देखकर
क्या सोचते हैं साँप?
आख़िर क्यों
आहट मात्र से भागने लगते हैं
अमूमन सभी विषधर?
क्या मनुष्य उनसे भी ज़हरीला है?
बताओ कवि!
(कविता ‘साँप से सिहरन होती है’ पढ़ते हुए)
(14)
लंपटता को
समय की पहचान बताकर
कहीं हम मनुष्यों की धूर्तता
छिपा तो नहीं रहे कवि
मुझे पता है
मनुष्यता के प्रेमी कवि
तुम देख नहीं सकते उसे यूं
दोषी।
(कविता ‘प्रिय सभासदो’ पढ़ते हुए)
(15)
कवि तुम कहते हो कि-
आंसू न हों तो नहीं ढाली जा सकती
कोई अंतर्वस्तु किसी सुन्दर साँचे में
बहुत सही कहा
मैं इसमें शामिल मान रहा हूं
श्रम का पसीना भी।
(कविता ‘आँसू’ पढ़ते हुए)
(16)
आकाश में अर्द्धचंद्र देख
कवि तुम्हें याद आई
माँ के हाथ से मिलने वाली खीर भरी कटोरी
और मुझे
मिट्टी का वो कोसा
जिसमे भरकर दही उड़ेलती थी दादी
हमारी थाली में दही।
(कविता ‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ पढ़ते हुए)
(17)
न कोई दुर्दिन
न कोई प्रताड़ना
न कोई उपेक्षा
न कोई उलाहना
हर सकती है
किसी कवि का सारा तेज
तो बस-
सत्ता की कृपा और
उसकी सराहना।
(कविता ‘कृपा’ पढ़ते हुए)
(18)
जो प्यार नहीं कर सकता
वह कविता पर विचार नहीं कर सकता
प्रिय कवि ने लिखा
सतह पर जैसे ही ये सच
शर्म से धंसने लगीं
दुनिया की तमाम नफ़रतें।
(कविता ‘आज और आज से पहले’ पढ़ते हुए)
(19)
‘प्यार के लिए मनुष्यता चाहिए और अभाव मनुष्य बने रहने में हमारी मदद करते हैं’
कितनी सुन्दर बात है ये कवि!
मैंने नहीं देखा दुनिया में कोई ऐसा
जो अभावग्रस्त न हो
यानी सबमें है
मनुष्यतर होने की संभावना
हालांकि कुछ अभाव मन के हैं
जो बहुत दूर हैं
मनुष्यता के पथ से।
(कविता ‘अभाव’ पढ़ते हुए)
(20)
प्रिय कवि,
सौम्य राम की छवि से हम
आलोचना का सही ढंग नहीं
बल्कि सीख रहे हैं
उनके नाम से
राजनीतिक स्वार्थों का रथ खींचना।
(कविता ‘आलोचना का ढंग’ पढ़ते हुए)
(21)
कवि तुम कहते हो
सफ़र में चाँद के साथ चलने को
हमारे लिए
सौंदर्य की परवाह
पर क्या नाम दोगे उस रिश्ते को
जो है दुखों के साथ
कि सोते जागते हर पल
रखे कांधे पर हाथ
बने ही रहते हैं साथ।
(कविता जैसे ‘पढ़ते’ हुए)
(22)
‘कला
उस जीवन के
करीब ले जाती है
जिससे तुम दूर आ गए हो’
जब तुम ये कहते हो कवि
तब मैं ये भी समझता हूं कि-
जीवन से दूर
नहीं है
कला का कोई अस्तित्व।
(कविता ‘चित्र को झोपड़ी’ पढ़ते हुए)
– आलोक कुमार मिश्रा
‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ (रुख़ पब्लिकेशन) पढ़ते हुए।