पूनम अरोड़ा की कहानी ‘उस हवा का रंग स्लेटी था’

    पूनम अरोड़ा समकालीन साहित्य में अपनी अलग उपस्थिति रखती हैं। उनकी कहानियाँ, उनकी कविताओं का अलग ही मिज़ाज है। आज अरसे बाद उनकी नई कहानी पढ़िए-

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     साइकिल ठीक गेट के सामने रुकती है. सर पर सफ़ेद सूती कपड़ा बांधे एक भलामानस आवाज़ लगाता है– कूरियर ! आवाज़ के साथ गेट के दाईं ओर लगी घंटी भी बजाता है. यह सोचते हुए कि आवाज़ अपना सफर तय करेगी और घंटी अपना.

    लेकिन गेट के बाहर से कोई चाहे कितने ही ऊँचे स्वर में पुकार ले, चाहे तो उस पुकार को गेट की ऊँचाई से भी ऊपर ले जाये तो भी वे न सुनते हुए अखबार की कीड़ेनुमा छपाई में जाने क्या खोजते रहते. वह भलामानस आवाज़ और घंटी के साथ इस बार गेट का कुंडा भी बजाता है. थोड़ा ऊपर झांककर घर के अंदर देखने की कोशिश करता है तो उसे गेट के बहुत करीब लहराती हुई एक छाया दिखाई देती है.

    – आपका कूरियर है, ले लीजिए.

    आखिरकार उन्हें सुनना ही पड़ता है और बचकानेपन से मुँह टेढ़ा कर वे कूरियर ले लेते हैं.

    वे अख़बार को ऊपर से नीचे, दाएं से बाएं हर तरफ से चाट जाने की हद तक पढ़ डालते. जैसे उस पर शहद लगा हो और वे शहद के दीवाने कोई भालू हों. कई बार तो शाम तक अख़बारी करतबों में गोते लगते रहते. उनकी पत्नी दरनादद (संबोधन की सुविधा के लिए उन्हें श्रीमती फ़ाकर पुकारना सही होगा) जो राजनीति और अपराध से सम्बन्धित कार्यक्रमों को देखने का ऊँचा शौक रखती हैं, जब भी अपने पति से पूछती कि क्या ख़बर है आज की तो श्रीमान फ़ाकर कहते “कुछ ख़ास नहीं, वही सब है” लेकिन श्रीमती फ़ाकर फिर भी यह रोज़ पूछना कभी नहीं भूलती. हालाँकि उनकी जिज्ञासा केवल आपराधिक और राजनैतिक प्रपंचों के पोल खुलने तक की ही होती.

    गेट उनके घर में बाहरी और भीतर के संसार को एकदम अलग कर देता है. उनके घर लोगों का आना-जाना और पड़ौसियों से मेल-जोल कम होता है और ऐसा मान लेना चाहिए कि वे न तो सभ्य गणमान्य हैं और न ही सभ्यता के चाहने वाले हैं लेकिन कुत्तों और गाय के भोजन की व्यस्था रोज़ करते हैं. वे महादानी भी नहीं थे और वफ़ादार तो बिल्कुल भी नहीं.

    एक दिन उस सुबह

    रोज़ की तरह थी वह सुबह. दोनों की ततेरी हुई आँखे और ज़हरीले साँपों की युद्ध-क्रीड़ा स्थली यानी घर की लॉबी जहाँ श्रीमती फ़ाकर चिंघाड़ते स्वर में श्रीमान फ़ाकर से बोलीं

    -जाओ स्टोर में से आठ आलू, दो छोटे प्याज और फ्रीज़ में से पाँच टमाटर ले आओ.

    श्रीमान फ़ाकर ले कर आते हैं- चार आलू, तीन प्याज़ और दो टमाटर. श्रीमती फ़ाकर दहाड़ती हैं

    -बुड्ढे, अंधा है क्या? क्या ले आया? आठ आलू बोले थे, पाँच टमाटर और दो प्याज़.

    -चिल्ला मत, सुन लिया, बहरा नहीं मैं. ले आता हूँ. आँखे फाड़ के मत देख मुझे.

    -आँखे फटे तेरी बहन की, तेरे जीजा की. मेरी क्यों फटें? चल जा, अपना काम कर.

    -ले, यह ले. रख अपने आलू-प्याज़ अपने सर पर. सुबह-सुबह कुत्ते की जबान में भौंकती है.

    -तेरी माँ कुत्ती, मैंने तेरा कर्जा नहीं देना. चल जा.

    और शांति, और सन्नाटा. लगा, सवेरे का युद्ध समाप्त हो गया जिसकी मुहर कूकर की सीटी लगा देती है. उनके दोनों बच्चे मनसा और रोहुल अपने कमरों में बिस्तर पर सुकड़े हुए मेमनों की तरह अपने कानों को कस कर बन्द किये आधी नींद और आधी जाग में पड़े हैं क्योंकि वे रोज़ के युद्ध में शामिल नहीं होना चाहते. श्रीमान फ़ाकर फिर अपने अख़बार में घुस जाते हैं और बड़ी शिद्दत से मृत और गुमशुदा लोगों की शक्लें और लिखी गई निशानियाँ पहचानने की कोशिश करने लगते हैं.

    -चल जा, मोटर चला कर आ. पूजा के लिए चीनी और थोड़े चावल भी ले आ. सारा दिन अख़बार में घुसा रहता है, कुछ पूछो तो कहता है- यह खबर तो मैंने पढ़ी ही नहीं. श्रीमती फ़ाकर एक और तीर छोड़ती हैं.

    श्रीमान फ़ाकर सोचते हैं कि वे जड़-बुद्धि थोड़े ही हैं फिर मंद-मंद मुस्कुराते हुए ख़ुद के जड़-कदम और जड़-करम होने पर गुरुर करने लगते हैं. अपने अर्जित किये भाग्य पर घमंड की उड़ान भरते हुए वे कानों पर हाथ लगाते हैं(ईश्वर से क्षमा) और आस्था के लाल (ब्लडी) फूल (होने) की वायु अपने फेफड़ों में भरकर पूजा घर की ओर चल देते हैं. इस बीच वे शांत भाव रखने का बेहूदा नाटक करते हुए अपनी चोंच बन्द रखते हैं.

    श्रीमती फ़ाकर- हे ईश्वर, रक्षा कर तू इस घर की.

    ईश्वर चिर-मौन में या शायद चिर-निद्रा में है.

    श्रीमती फ़ाकर- मेरे गुनाहों को माफ कर.

    ईश्वर अब भी मौन है या शायद स्थिर गढ़ी गई काजल से सनी आँखों से अपने वस्त्रों का मुआयना कर रहा है.

    श्रीमती फ़ाकर- भगवान के कपड़े ले आ अलमारी से. वे अपने बुड्ढे से कहती हैं लेकिन इस बार कम दुत्कारते हुए.

    ईश्वर अचानक अपने नग्न होने पर हड़बड़ाने लगता है. लेकिन देखता है कि उसके शरीर(मूर्ति) पर कपड़ों और आभूषणों का आभास होने की चित्रकारी की गई है.

    श्रीमती फ़ाकर- मेरे गुनाहों को माफ़ कर. वे आँखें बंद कर नग्न ईश्वर से वही प्रार्थना दोहराती हैं. और वस्त्रों को बदलने की प्रक्रिया शुरू कर देती हैं.

    ईश्वर टी-सीरीज़ के कैसेट से निकलती अनुराधा पौडवाल की मीठी आवाज़ में खो जाता है.

    श्रीमती फ़ाकर- मेरे गुनाहों को माफ कर. मैं नीलकंठ आऊँगी तेरे दर्शन को.

    ईश्वर ज़्यादा देर अनुराधा पौडवाल की सुरीली आवाज़ और हद दर्जे के बनावटी भजनों को      बर्दाश्त नहीं कर पाता और यह सोचते हुए अपने कान बन्द कर मूर्छित हो जाना चाहता है कि श्रीमती फ़ाकर को नीलकंठ तो आना ही है दर्शन को तो इस शोर को क्यों ही झेलना.

    इस तरह से श्रीमती फ़ाकर ने एक बार फिर अपने गुनाहों को माफ़ होने से स्थगित कर दिया. और एक बार फिर वे दोनों अख़बार और समाचारों में आने वाली राजनीति की संदिग्ध गतिविधियों की गठिया के दर्द में डूब गये.

    आगे बढ़ते हैं-

    यह लीची के रंग वाली दोपहर है और अभी सब सो रहे हैं. गर्मियों के इस दैवीय फल ‘लीची’ के गूदे को श्रीमान फ़ाकर राजेश खन्ना के गीत ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ के साथ निगलते जाते हैं. श्रीमान फ़ाकर सबके जागने से थोड़ा पहले उठ जाते हैं क्योंकि वे जड़-बुद्धि थोड़ी न हैं, वे तो जड़-कदम  वगेरह-वगेरह हैं और इसकी याद वे ख़ुद को छोटी-बड़ी नालायकियों भरी चतुराइयों में दिलाते रहते हैं. इस समय वे लीची की लाल झाड़ियों के सौंदर्य से इतनी बुरी तरह आकर्षित हैं कि अपनी जलती हुई सिगरेट को फेंक कर उन पर टूट पड़ते हैं. तब तक श्रीमती फ़ाकर की भी नींद खुल जाती है. वे दहाड़ती हैं- सारा गुच्छा मत निगल जाना.

    श्रीमान फ़ाकर अपना चेहरा एक ओर झटक कर कहते हैं- हुँह, और जल्दी-जल्दी हाथ और मुँह चलाते हैं. इस समय वे कुछ नहीं कहना चाहते लेकिन ऐसा एक मिनट के लिए भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके मुँह में श्रेष्ठम अपशब्द हमेशा भरे होते हैं.

    सुअर का बाल

    श्रीमान फ़ाकर अपनी माँ के गर्भ में तैर रहे हैं. माँ ने अभी-अभी पेशावरी मलाईदार आलू की सब्ज़ी खाई है. वे तीखा खाने की शौकीन हैं. वे अपने पति के सामने चिड़िया जितना खाती हैं. पति चिंतित होकर उनके सर पर हाथ रखते हैं और वे जी मितलाने की शिकायत करती हैं. होता कुछ नहीं बस तीन-चार बार वे चारपाई से उठती हैं फिर लेट जाती हैं, फिर उठती हैं और फिर लेट जाती हैं. इस बीच ‘हाह’ और ‘आह’ की बेसुरी आवाजें निकालती जाती हैं ताकि उनके नाटक का कोई भी दृश्य अपनी लय की पटरी से नीचे न उतर आए. ऐसा उन्हें उनकी माँ ने सिखाया था. उतर जाते हैं तो उनके पति, जो चारपाई पर अपनी गर्भवती पत्नी को सहारा देने के लिए एक कोने में सिकुड़ कर बैठे होते हैं. वे जैसे ही दुकान से लौटते हैं, सीधे पत्नी की ओर जाते हैं. ऐसा उन्हें उनके पिता ने सिखाया था. बरसात की एक काली-अंधेरी रात में बच्चे के आने की आहट सुनाई पड़ती है तो दाई को बुलाया जाता है. दाई की बुकिंग उन्होंने पेट के आकार के बढ़ने के अनुसार पहले ही करा दी थी. ऐसा उन्हें दाई ने ही सिखाया था कि हर बार उन्हें ऐसा ही करना है, जब तक वे पिल्ले पैदा करना चाहें.

    दाई नवजातों को पिल्ले कहती थी. जन्मते ही श्रीमान फ़ाकर कव्वे की तरह कांय-कांय करने लगे. नाल काटते ही वे अपनी माँ की छुनकी से चिपक गए और दूध पीते-पीते सो गए. तब उनका कोई नाम नहीं सोचा गया था लेकिन जिस गति से वे दूध पी रहे थे उसे देख दाई ने उनका प्यार का नाम बिल्ला रख दिया.

    बिल्ला तीन साल का हुआ तब भी माँ की छुनकी से लटका रहता था. जबकि इन तीन सालों में उसकी माँ से दो और पिल्ले जन्म ले चुके थे. यानी हर साल की ताजी फसल. दाई जब भी उनके घर की तरफ से गुजरती सौ-सौ बातें सुनाती बिल्ले की माँ को.

    दाई- सारा दूध इसी पिल्ले को पिला देगी क्या? कब तक यह तेरी छुनकी से लटका रहेगा?

    बिल्ला शायद दाई की बात तो नहीं समझ पाता लेकिन उसकी आँखों में तैरता क्रोध पढ़ लेता है और फिर से अपनी माँ की छुनकी मुँह में भर लेता है. दाई हाय-तौबा करती हुई बिल्ले की माँ की नालायकी को कोसती दूसरे पिल्लों को संसार में लाने के लिए दौड़ जाती है.

    उस गली और उस गली की आगे की कई गलियों और पीछे के बाज़ार के पार की भी गलियों में वे केवल एक ही दाई थीं जो अनुभवी थीं, और बीमारियों के देसी इलाज भी जानती थीं. इसलिए उनकी पूछ भी थी और भारी मांग भी.

    बिल्ला सात साल का हो गया लेकिन घर भर का दूध पी कर दस वर्ष के होने का आभास देने लगा. बिल्ले को अब सभी इसी नाम से पुकारने लगे. बिल्ला अपना नाम सुन कर उत्तेजना से भरने लगा. वह अपने भीतर बिल्ले के गुण महसूस करने लगा. वह गले में रुमाल बांधने का शौकीन हो गया. किसी भी रंग का रुमाल वह अपने गले में बांध लेता लेकिन अगर उसे अपनी माँ का हरा रुमाल मिल जाता तो उस दिन बिल्लेपन की उसकी उत्तेजना अपने चरम पर होती. वह खेलता, दौड़ता, पतंग उड़ाता, यहाँ तक तो ठीक था लेकिन पानी मुँह में भरकर लोगों पर फेकने का मतवाला शौक भी रखने लगा, इसके लिए उसकी माँ उसकी पिटाई करती लेकिन वह जड़ और तीव्र आंदोलित एक साथ होने लगता.

    बिल्ला अब तेरह वर्ष के वसंत में प्रवेश कर गया. इस उम्र में उसे वसंत सेनाएं नज़र आने लगीं. उसी की तरह नये उगे मशरूमों की गीत-संगीत की छत वाली महफिलों में आना जाना और रामलीलाओं में कभी राम तो कभी लक्ष्मण के किरदार में वह अपनी माँ का दिल जीतने लगा. वह जब से रामलीला में राम और लक्ष्मण बनने लगा था उसकी माँ ने अपने बाकी पिल्लों के हिस्से का प्यार भी बिल्ले पर लुटाना शुरू कर दिया. लेकिन एक बार उसे न राम का किरदार मिला न ही लक्ष्मण का क्योंकि चयन समिति को उसके कठोर और विशाल शरीर में राम और लक्ष्मण के किरदार के लिए कोमलता नहीं दिखाई दी और उन्होंने बिल्ले को राम, लक्ष्मण और सीता के पीछे खड़ा होकर हाथ पंखे से हवा करने का किरदार निभाने की विनती की. चयन समिति के एक सदस्य ने तो यहाँ तक भी कहा कि — बेटा यह तो बहुत पुण्य का रोल मिला है तुझे. साक्षात भगवान लोगों को ठंडी हवा देनी है तुझे. यह देखने में भले ही पीछे का रोल लगे लेकिन सबसे अधिक पुण्य तू ही कमाएगा इस बार की रामलीला में. बिल्ला पुण्य के तर्क को मान लेता है और घर आकर अपनी माँ से वही सब कहता है जो उसे चयन समिति के सदस्य ने कहा था. माँ की आँखें भर आती हैं और वह इस रोल की तैयारी में बिल्ले को सबसे खूबसूरत और भरपूर नौजवान के रूप में उतारने के लिए कड़ी मेहनत करने का प्रण लेती है.

    बिल्ले की माँ हर वर्ष एक नये पिल्ले को जन्म देती है. दुर्भाग्य से अब तक दो की मौत हो चुकी थी लेकिन वह और उसके पति पूरी शिद्दत से एक-दूसरे पर न्योछावर होते थे. बिल्ला सब बालकों में सबसे बड़ा था और सोने से पहले माँ-बाप के एक-दो घंटे कमरा बन्द किये जाने के रहस्य को समझना चाहता था. उसने अपनी तीसरी आँख को जागृत किया और एक रात परदे के पीछे से इस रहस्य का बोध उसे हो गया. बिल्ले की आँखे एक नये ज्ञान की रोशनी में झिलमिला रही थीं. इस झिलमिलाहट में वह रोज़ इस रहस्य का साक्षी होने लगा. धीरे-धीरे उसकी चाल और बाल दोनों बदलने लगे. उनमें एक लहर बनने लगी थी. वैसी ही लहर जैसी समुद्र में तैरती मछली या कछुए की होती है या जंगल में दौड़ते भालू या बंदर की होती है.

    एक रात उसकी माँ ने उसे परदे की ओट में छिपे हुए देख लिया लेकिन बिल्ला उस रहस्य की रोशनी में इतना डूबा था कि माँ ने उसे देख लिया है यह उसे नहीं दिखा.

    माँ ने अगली सुबह देखा कि बिल्ले की आँख में तो सुअर का एक बाल उगा हुआ है.

    ले, ले-ले

    एक ऊँची डकार. खा ली होंगी तूने सब लीचियाँ, है न बुड्ढे. बुड्ढा सदमे में आ जाता है जब उनकी पत्नी उन्हें बुड्ढा कहती हैं.

    श्रीमान फ़ाकर- बुड्ढा? मैं? बुड्ढी तो तू हो गई है. घटवा-चो,

    श्रीमती फ़ाकर- तू क्यों होगा बुड्ढा? सारा दिन तो अपने हुड़दंग की मालिश करता है. तू कहाँ से घिस रहा है? बुड्ढे तो वे होते हैं जो दिन-रात काम कर के खुद को घिसते हैं.

    यह सुन कर श्रीमान फ़ाकर के भीतर की चतुर चिड़िया फड़कने लगती है. दरअसल यह चिड़िया उनके हृदय के सबसे वाहियात कोने में विश्राम करती रहती है. संगत का असर. जैसे वे खुद जड़-कदम और करम सो ही उनकी कमीनी चिड़िया.

    भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती यानी श्रीमती फ़ाकर के पीड़ा-संहारक, यानी मॉडर्न वर्ज़न में ‘ईश्वर-एक कॉन्सेप्ट’ की तर्ज़ पर वैराग्य भरे भजनों की पीड़ित सजीली मूर्तियाँ, अभी पूजा घर में खड़े-खड़े ही सो रही हैं. शाम को पूजा-घर का किवाड़ खोलने का समय होते ही श्रीमती फ़ाकर को फिर से अपने गुनाहों की याद आने लगती है और वे थोड़ी मासूम हो जाती हैं जैसे उनकी समूची देह में कोई सुराख बन जाता हो जहाँ से उनमें मासूमियत रेंग कर प्रवेश करती हो.

    श्रीमती फ़ाकर- जा बुड्ढे, सब्ज़ी मंडी से कटहल, पालक और मोटी वाली हरी-मिर्च ले आ.

    श्रीमान फ़ाकर की कमीनी चिड़िया उनके हृदय में करवट बदलती है और फड़फड़ा कर चोंच खोलने ही वाली होती है कि राधा का आगमन उस दृश्य में विघ्न डाल देता है. राधा को देखते ही श्रीमान फ़ाकर के भीतर कमल का फूल खिल आता है. वे अचानक एक सौ छियालीस कलाओं से परिपूर्ण महापुरुष में परिवर्तित हो जाते हैं और ठीक कृष्ण की तरह कुरुक्षेत्र के मैदान के बीचों बीच ख़ुद को खड़ा पाते हैं. वे अपने विराट रूप के दर्शन केवल राधा को देते हैं. लेकिन राधा अर्जुन की भांति किसी दुविधा में नहीं है, न ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रभु के समक्ष हाथ जोड़े खड़ी है. राधा के एक हाथ में झाड़ू है और दूसरे हाथ में निरमा सर्फ़, जिससे वह बाथरूम को फर्श को धोने जा रही है. अपनी विराटता को भूलकर जितनी तेजी से वे मंडी जा सकते हैं, जाते हैं और सब्ज़ियाँ लेकर लौट आते हैं. राधा अभी भी घर बुहार रही है. बर्तन की धुलाई वह श्रीमान फ़ाकर की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी से बतियाते कर चुकी.

    श्रीमान फ़ाकर राधा के घर में आते ही खोये-खोये से हो जाते हैं. एक बार राधा ने उनसे कहा था कि वह लखनऊ और बंगाल की नस्ल है और इस बात पर वह बहुत गर्व भी करती है. लखनऊ की अदा और तहज़ीब  उसके पिता का जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों में रही. जबकि माँ बंगाल की थी जिसे उसके माँ-बाप ने पंद्रह हज़ार रुपये में उसके पिता को बेच दिया था. माँ रोज़ बंगाली गीत गाकर पिता के लिए मछली-भात बनाती, और पिता ने मन ही मन यह ठान लिया था कि उनके समाज के चलन के अनुरूप अब वे कोई और स्त्री गुलाम बनाकर पत्नी के रूप में नहीं लाएंगे, नहीं तो ये बंगालन पगला जाएगी और बंगाली में कोई शाप दे देगी. उत्तर भारत में बंगाली दवाखाने तो सड़कों-चौराहों पर खूब होते हैं लेकिन अच्छे बंगाली बाबा नहीं मिलते जो शाप और काले जादू से मुक्त कर सकें, तो अपने जीवन से क्यों ही खेलना?

    वे यह सब याद कर राधा को मन में बहुत मान देते हैं. और आज चुपके से उसके लिए मंडी से जिमीकंद लाये हैं जिसे उन्होंने गलती से मेज पर रख दिया.

    श्रीमती फ़ाकर- अरे बुड्ढे, यह क्यों ले आया? यह नहीं बनाना मुझे.

    श्रीमान फ़ाकर- क्या, क्या ले आया मैं? जो तुझे नहीं बनाना.

    श्रीमती फ़ाकर (बड़बड़ाते हुए) कमरे में से अपना बटुआ लेने चली जाती हैं ताकि वे राधा को महीने की तनख्वाह दे सकें. इतने में मौका पाकर वे राधा के करीब जाकर उसकी साड़ी के पीछे छिपी ढलानों का मुआयना कर लेते हैं. कोई भी पहाड़ नहीं दरका न ही कोई पिघला है. पिघला है तो उनका दिल. राधा के नथुनों से आती घुटी हुई साँसों में, गैंडा ब्रांड फिनाइल से लथपथ उसके कपड़ो में, बर्तन और सफाई करती उसकी फुर्ती में और वे यह सब खुद में ग्रहण कर लेना चाहते थे.

    वे अचानक उछल कर जिमीकंद राधा को पकड़ा देते हैं और उसे बिना तनख़्वाह लिए जाने को कहते हैं. राधा इस महापुरुष की लीला से पूरी तरह परिचित है और फ़ौरन वहाँ से चली जाती है.

    श्रीमती फ़ाकर- राधा, यह ले तनख़्वाह, और सुन, मेरे सर में तेल लगाती जाना. लेकिन राधा की ओर से कोई जवाब नहीं. वे फिर आवाज़ लगाती हैं- राधा, ओ राधा, कहाँ है तू? अपनी तनख़्वाह ले जाना मत भूलना. वे राधा को खोजती हुई मेज तक आती हैं और देखती हैं कि सब सब्जियाँ मेज पर हैं सिवाय जिमीकंद. उनका दिमाग दौड़ने लगता है. वे आँखें फैलाकर सारा माजरा पल में समझ जाती हैं.

    – बुड्ढे तू कभी नहीं सुधर सकता.

    – ले, ले ले. वे अंगूठा दिखा कर चिढ़ाते हैं

    – हरामी, तेरे हुड़दंग को आग लगे.

    – ले, ले ले. वे शिकार में जीत हासिल किए किसी जंगली पशु समान दाँत दिखाते हैं.

    – तेरी माँ ने क्या खाकर तुझ नीच को पैदा किया था?

    – ले ले, ले. और वे मोर की तरह अपने अदृश्य पंखों को फैलाकर ख़ुद की एक परिक्रमा लगाते हैं.

    श्रीमती फ़ाकर गुस्से में बिस्तर पर ढेर हो जाती हैं लेकिन ले, ले ले और बीच-बीच में ताली का स्वर उनके कान फोड़ डालता है.

    राजा बल्लभ का किला

    आसमान में बहुत ऊंचाई पर कुछ चीलें उड़ रही हैं और उनसे कुछ नीची ऊंचाई पर कव्वे. उन दिनों आसमान में कव्वों की भरमार होती थी. उन्हीं दिनों यह अफवाह भी हवा में थी कि राजा बल्लभ के किले से चुड़ैलें निकली हुई हैं और यह हिदायत एक फरमान की तरह शहरवासियों को दी गई कि सभी लोग अपने-अपने घरों की दीवारों पर रोज़ ताज़ी मेहंदी से पंजे छाप लें. जिस घर में ये पंजे नहीं होंगे उस घर मे वे चुड़ैलें आ जायेंगी.

    बिल्ला इस दौर में पूरा हरामी बन चुका था. सिगरेट, दारू और वेश्यागमन उसके जीने के सहारे थे. उन दिनों एक पार्लर बहुत नाम और दाम कमा रहे थे शहर में– ‘नारायणी पार्लर’. जैसा कि नाम से ज़ाहिर है नारायणी नाम की सुंदरी उस पार्लर की मालकिन थी और शहर में उसका रुतबा ऐसा था कि वह बाज़ार निकलती तो सब लोग रास्ते के अगल-बगल खड़े हो जाते थे. अब क्योंकि बिल्ला अपने पिता की दुकान से पैसों की हेरा-फेरी करने लगा था ताकि वह अपने ऐब पूरे कर सके और नारायणी भी अब उसके ऐब का एक नया रूप थी. वह सुंदरी कई प्रेमियों की मल्लिका थी. उसका हर प्रेमी उसके दूसरे प्रेमियों को जानता था और उसकी बेवफाई की चर्चा करता लेकिन फिर भी उसे छोड़ता कोई भी प्रेमी नहीं था. बिल्ले ने भी ठान ली उसका प्रेमी बनने की.

    उन दिनों घरों की दीवारों पर पंजे रात को छापे जाते थे. दिन के समय ऐसा करना अपशकुन माना जाता था. उन्हीं दिनों नारायणी को बिल्ले की चिट्ठी एक दोस्त के माध्यम द्वारा पहुँचाई जाती है. तय होता है कि चमेली के फूलों का गजरा, हरी-चूड़ियाँ और एक साड़ी आदि उपहारों के साथ बिल्ला नारायणी से मिलने जायेगा और उसके समक्ष प्रणय-निवेदन करेगा.

    नारायणी मिलने के लिए उसे राजा बल्लभ के किले के अंदर मुख्य कक्ष में बुलाती है. उसका कहना था कि जिस समय यानी शाम को चुड़ैलें किले से बाहर शहर की ओर चली जाती हैं तो इस समय उन्हें किले में कोई ख़तरा नहीं होगा.  पुरुष जल्दी से जल्दी घरों को लौट रहे होंगे और घर की स्त्रियाँ मेंहदी के पंजे छापने में व्यस्त होंगी. इस समय उन्हें न संसार का भय होगा न चुड़ैलों का.

    बिल्ला यह सब सुनता है तो उसके भीतर बैठी चतुर कमीनी चिड़िया फड़कने लगती है. वह भूल जाता है किला, उपहार और कई प्रेमियों की मल्लिका होने का अर्थ क्या है? अर्थ तो वैसे वह अपनी करतूतों का भी नहीं जानता.

    खैर, तय स्थान और समय पर वे दोनों अपने-अपने मित्रों संग किले के बाहर पहुँच जाते हैं. भीतर जाते हुए उनके मित्र दिलीप और अलका उन्हें आँख मारते, चिकोटी काटते हुए विदा करते हैं और खुद वे भी राजा बल्लभ की विशाल प्रतिमा की ओट में कबूतरों के पंखों को बीनने के लिए चले जाते हैं. किले से थोड़ी ही दूर पीपल का एक प्राचीन पेड़ है जिसके तले चाय का खोखा है, आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र से यह उसी दौर के गीतों के कार्यक्रम का प्रसारण चल रहा है– ‘तुझ से नसीब को मैं जोड़ के आ गई, ले मैं तेरे वास्ते……..’

    शहर में सन्नाटा और मौन बढ़ने लगता है लेकिन बिल्ला और नारायणी अभी तक किले से बाहर नहीं आये. जब आते हैं तो दोनों के कपड़े मुचड़े हुए थे और नारायणी की चुन्नी मिट्टी से भरी थी. पसीने से लथपथ वे जल्दी से घर की ओर बढ़ जाते हैं.

    कुछ दिनों बाद स्थानीय अख़बार में ख़बर आती है कि किन्हीं शरारती तत्वों ने चुड़ैलों की डरावनी अफवाह शहर में फैलाई थी ताकि उनकी मेहंदी की फैक्ट्री जो कर्ज़ में डूब रही थी, थोड़ी उबर सके.

    और यह भी सुना था कि नारायणी पेट से है. उसके सभी प्रेमियों में इस बात का बहुत उत्साह था. किले और चुड़ैलों का कोई रहस्य नहीं था.

    जलेबी का जलवा-१

    वर्षों पहले जब बिल्ला एक छोटी-सी बिल्ली था तब उसकी माँ लाड में निहाल होकर उसे कहती थी– बिल्ला, जलेबी का टाइम हो गया बेटा. और बिल्ला दौड़ा-दौड़ा जाता और खूब ज़ोर आज़माइश कर पूरे आँगन में जलेबी की कलाकारी कर आता. अगर जलेबी चार या पाँच जगह होती तो उसकी माँ का दिल धक से धड़क जाता. वह हाय-तौबा करती, नज़र उतारती और यह सोच कर अपनी आँखें धोकर उसे पानी पिलाती कि कहीं उसे उसी की नज़र तो नहीं लग गई. और अगर जलेबी कम से कम दस जगह होती तो ही उसे तसल्ली आती कि श्याम डेरी वाला मिलावटी दूध नहीं दे रहा. फिर वह बिल्ले की पोषण से भरपूर जलेबियों को एक बड़े से अख़बार में भर लेती और रात को छुप कर उन्हें नाले में दूर फेक आती. उसकी माँ का कहना था कि ये जलेबियाँ किसी को दिखानी नहीं होती. उन दिनों पखानों की परम्परा आज के समय से भिन्न थी. खेत, सूनसान गलियाँ और अलग-थलग हुए प्लॉट ही इन जलेबियों के खज़ाने को छुपा कर रखने में सक्षम थे. शायद उन्हीं दिनों से ही श्रीमान फ़ाकर के हृदय में अख़बारों के प्रति सच्ची श्रद्धा ने जन्म लिया था.

    जलेबी का जलवा-२

    श्रीमती फ़ाकर- तुझे कितनी बार कहा है बुड्ढे कि अपनी जलेबियों को पखाने में बहा आया कर. हाथ टूट जाते हैं क्या तेरे एक बटन दबाने में?

    श्रीमान फ़ाकर- मेरे क्यों टूटेंगे? मैं भूल गया था तो तू बटन दबा देती. तेरे हाथ टूट गए हैं क्या?

    तेरी जलेबियों को मैं क्यों बहाऊँ? ऐसा कर अपनी माँ को ही बुला आया कर, वह ही बटन दबा दिया करेगी.

    श्रीमान फ़ाकर- मेरी माँ से नहीं दबता बटन. ऐसा कर तू अपनी माँ को बुला आया कर बटन दबाने को.

    श्रीमती फ़ाकर- हगे तू और बटन मेरी माँ दबाये? शर्म नहीं आती तुझे? पता नहीं क्या खाकर तेरी माँ ने तुझे पैदा किया है.

    श्रीमान फ़ाकर- चुप कर तू. मुँह मत लग मेरे नहीं तो टांगे तोड़ दूंगा तेरी.

    श्रीमती फ़ाकर- तोड़ दे, आ तोड़ दे. सब कुछ तो बेच खाया तूने, अभी भी तेरा घमंड नहीं उतरा बुड्ढे.

    श्रीमान फ़ाकर- मैंने खाया? मैंने खाया सब कुछ? तूने बर्बाद किया है सब कुछ, घटवा-चो अपनी माँ को छुपा-छुपा कर मेरा सारा पैसा दे दिया. सारा घर तूने बर्बाद किया है. अपने भाइयों की दुकान में पैसा दिया है तूने. सब कुछ तू खा गई.

    श्रीमती फ़ाकर- तू अच्छा होता तो तुझे तेरी बहन की शादी में तो बुलाती तेरी माँ. बहुत जलवे किये हैं तूने जवानी में. लेकिन अब तू बुड्ढा हो गया है. तेरी माँ सब बता चुकी है मुझे. रानी, देवी, कमला, वो मुसलमानी, नारायणी पार्लर वाली से तेरा याराना, अब राधा के पीछे पड़ा. शादी क्यों की थी मुझसे जब याराने करने थे तूने.

    श्रीमान फ़ाकर- एक बटन दबाना क्या भूल गया तूने सारी रामायण जप ली. कौन रानी, कमला, मुसलमानी? मैं किसी को नहीं जानता.

    श्रीमती फ़ाकर- अच्छा ! तू नहीं जानता? और वो भूल गया जब सीढ़ियों का दरवाजा बंद किये बैठा था तू रानी के साथ. तेरे सब जलवे पता है मुझे बुड्ढे.

    श्रीमान फ़ाकर- मेरे जलवे तो तुझे पता हैं. अपने जलवे भूल गई तू? कहाँ-कहाँ मुँह मारा है तूने सब पता है मुझे भी घटवा-चो.

    श्रीमती फ़ाकर- मेरा नाम भी लिया न तो तेरा सर तोड़ दूँगी बुड्ढे.

    श्रीमान फ़ाकर- तू बुढ़िया, तेरी माँ बुढ़िया. मुझे मत बुलाया कर बुड्ढा-वुड्ढा.

    बहुत देर से कमरे के बाहर हवा रुकी हुई है. उसकी हिम्मत नहीं हो पाती इन जलवों में गोल-गोल घूम कर अपनी लय पकड़ने की. खिड़की के बाहर से आते-जाते ठेले वाले आपस में बात करते जाते हुए कहते हैं कि बहुत जलील हैं ये दोनों बुड्ढा-बुड्ढी. सुना है रात को दोनों बदमाश घर से निकलते हैं और लोगों के घरों की दीवारों से लटकती मनी-प्लांट की बेलें खींच लेते हैं.

    यह वही रात है जो कभी नहीं बीतती. फिर शांति. फिर सन्नाटा. हवा चल रही थी. वह बेख़ौफ़ थी. उस हवा का रंग स्लेटी था. रात को वह हवा दरख़्तों के पीछे छुप जाया करती थी और श्रीमान फ़ाकर के जागने के साथ जाग जाया करती थी.

    इतना अंधेरा क्यों है?

    क्या सब कुछ अधूरा है? क्या सब कुछ ऐसा है जैसा नहीं होना चाहिए था? क्या उस ओर भी अंधेरा है? क्या किसी का मन प्रायश्चित नहीं करना चाहता? क्या कोई भी नज़रें झुकाए  किसी अज्ञात शक्ति के सामने अपना सर झुकाना नहीं चाहता? क्या सब द्वार बंद हैं? क्या जाने वाले चले गए हैं या किसी अबूझे क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं? क्या जन्म लेने का सौभाग्य कलंकित नहीं हो रहा या जन्म के प्रति आस्था मनमाने तरीके से उजड़ रही है?

    इतना अंधेरा क्यों है? इतना अंधेरा..

    ओह! मेरा प्रवेश भी तो कितना आकस्मिक था इस कहानी में. मैं सोच रही थी कि काश किसी एक पात्र को ही अगला कोई मोड़ दिखा पाती लेकिन मैंने अब तक जान लिया कि मेरे हाथ में भी कुछ नहीं. हम ख़ुद के चुने हुए अवरोध और अपराध स्वयं हैं. हम ख़ुद का भक्षण स्वयं ही करते हैं. हम स्वयं ही उस उन्माद में वहशी हो जाते हैं जिसकी राह केवल आगे जाती प्रतीत होती है, लौटने की संभावना की रेखा को मिटाती हुई.

    कितना अंधेरा है. कितना अंधेरा. यह ऐसे ही रहेगा.

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