विजयदान देथा के निधन पर कई अखबारों में लेख, सम्पादकीय आये. आज सुबह दो अखबारों में सम्पादकीय पढ़ा- ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ और ‘जनसत्ता’ में. ‘जनसत्ता’ का यह सम्पादकीय ख़ास लगा. कितने कम शब्दों में उनके बारे में कितना कुछ कह जाती है. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- प्रभात रंजन.
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भारतीय साहित्य की दुनिया में जब भी किसी रचनाकार और उसकी रचनाओं के बाकियों से खास होने की बात चलेगी, वे सबसे महत्त्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार किए जाएंगे। बिज्जी यानी विजयदान देथा ने हिंदी में अपने लिए जो सम्मान अर्जित किया, निश्चित रूप से वह बरास्ते राजस्थानी है। लेकिन यही उनकी अहमियत थी और ताकत भी कि अपनी जमीन को उन्होंने अपनी क्षमता का प्राथमिक हकदार समझा। उसे जो विस्तार दिया उसके बूते वे सबके प्रिय बन गए। पहले राजस्थानी में लिखने को अपनी प्रतिज्ञा घोषित करने वाले बिज्जी दरअसल हिंदी के ऐसे कहानीकार थे, जिन्होंने लोक साहित्य और आधुनिक साहित्य के बीच एक मजबूत पुल बनाया। वे लोककथाओं के संसार से कोई छोटा-सा टुकड़ा उठा लेते थे और फिर उसे समकालीन जीवन और समाज की परंपराओं और उसके अंतर्विरोधों के संघर्ष में पिरो कर ऐसी कहानी बना डालते थे कि पढ़ने वाले के सामने सम्मोहित होने के सिवा कोई चारा नहीं बचता था। यह उनकी बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन कई लोग सवाल उठाते थे कि उनका मौलिक क्या है, उन्होंने सिर्फ लोककथाओं की पुनर्प्रस्तुति की है। पर यह गलत धारणा थी जो आप मिटती गई। यह साफ होता गया कि उन्होंने लोककथाओं की ज्यों की त्यों पुनर्प्रस्तुति नहीं की, पुनर्सृजन किया जिसमें समकालीन दुनिया की अनुगूंज हर जगह मौजूद है। इसलिए उनकी रचनात्मकता पर संदेह करने वालों को बाद में अपनी राय बदलनी पड़ी। लोक रंग में रंगी बिज्जी की कहानियां अपने मूल कथ्य और रचाव में सामयिक समाज और मनुष्य की चिंता से जुड़ी हुई हैं। उनका लोक राग समाज के व्यापक संदर्भों से जुड़ा रहा, जिसके बीच में समकालीनता की मामूली छौंक या कोई छोटी-सी बात भी उनकी कहानियों के सार और असर को नया आयाम दे देती है।
कहानी कहने की उनकी कला सामाजिक रूढ़ियों और सामंतवादी ताकतों के विरोध के उनके सरोकार से जुड़ी थी। उनका मानना था कि ईश्वर को मनुष्य ने गढ़ा है। शायद इसीलिए लोककथानकों पर आधारित होने के बावजूद उनकी कहानियों के अलौकिक, चमत्कारी और दैवीय प्रसंगों में मानवीय गरिमा को सबसे ऊपर जगह मिली; दृष्टिकोण या मूल्यबोध में आधुनिकता, प्रगतिशीलता और बहुजन हिताय की चेतना उनकी रचनाओं का मूल स्वर बनी रही। कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले बिज्जी बेहद मुश्किल हालात में भी अपना जीवट बनाए रखने वाले लेखक थे। जिस दौर में मुख्यधारा में जगह बनाने के लिए गांव-कस्बे से लोग शहर की ओर खिंचे चले जाते हैं, दुनिया भर में भ्रमण कर चुकने वाले बिज्जी ने अपनी कर्मस्थली अपनी जन्मभूमि बोरूंदा गांव को बनाया। वे लुप्त होती राजस्थानी लोक कलाओं के संरक्षण के लिए कोमल कोठारी के साथ रूपायन संस्था की कई अहम पहल में सक्रिय भागीदार बने। विश्व साहित्य पर गहरी नजर रखने वाले बिज्जी के पढ़ने की एक खास शैली थी। किताब में जहां भी उन्हें अच्छा लगता था, वे लाल पेंसिल से उसे रेखांकित करते चलते थे। वे शुरू से शरतचंद्र और अंतोन चेखव से बहुत प्रभावित रहे। बाद में वे रवींद्रनाथ ठाकुर से अभिभूत हुए। राजस्थानी में चौदह खंडों में प्रकाशित ‘बातां री फुलवाड़ी’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला। उनकी कहानियों पर फिल्में बनीं, नाटक खेले गए। ‘दुविधा’ कहानी पर मणि कौल ने नई धारा की फिल्म बनाई तो प्रकाश झा ने ‘परिणति’ और अमोल पालेकर ने ‘पहेली’ जैसी। हबीब तनवीर ने ‘चरणदास चोर’ को बरसों मंचित किया। तनवीर की मदद से श्याम बेनेगल ने ‘चरणदास चोर’ फिल्म बनाई। बिज्जी ने एक बार कहा था कि मृत्यु तो जीवन का शृंगार है। उन्होंने भरपूर जिंदगी जी और साबित किया कि इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो सरोकारों के साथ आखिरी सांस ली जा सकती है।
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