आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है. प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ-
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समाधि
सूर्य भी नहीं है, ज्योति-सुन्दर शशांक नहीं,
छाया सा व्योम में यह विश्व नज़र आता है.
मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहां
अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है.
धीरे-धीरे छायादल लय में समाया जब
धारा निज अहंकार मंदगति बहाता है.
बंद वह धारा हुई, शून्य में मिला है शून्य,
‘अवांगमनसगोचरं’ वह जाने जो ज्ञाता है.
जाग्रत देवता
वह, जो तुममें है और तुमसे परे भी,
जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है,
जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है,
जो तुम सबके घट में व्याप्त है,
उसी की आराधना करो और
अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो!
जो एक साथ ही ऊंचे पर और नीचे भी है;
पापी और महात्मा, ईश्वर और निकृष्ट कीट
एक साथ ही है,
उसीका पूजन करो-
जो दृश्यमान है,
ज्ञेय है,
सत्य है,
सर्वव्यापी है,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो!
जो अतीत जीवन से मुक्त,
भविष्य के जन्म-मरणों से परे है,
जिसमें हमारी स्थिति है
और जिसमें हम सदा स्थित रहेंगे,
उसीकी की आराधना करो,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो!
ओ विमूढ़! जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो,
उसके अनंत प्रतिबिम्बों से से ही यह विश्व पूर्ण है.
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो,
जो तुम्हें विग्रहों में डालती है;
उस परम प्रभु की उपासना करो,
जिसे सामने देख रहे हो;
अन्य सभी प्रतिमाएं तोड़ दो!
प्याला
यही तुम्हारा प्याला है,
जो तुम्हें शुरु से मिला है,
नहीं, मेरे वत्स! मुझे ज्ञात है-
यह पेय घोर कालकूट,
यह तुम्हारी मंथित सुरा- निर्मित हुई है,
तुम्हारे अपराध, तुम्हारी वासनाओं से,
युग-कल्पों-मन्वन्तरों से.
यही तुम्हारा पथ है- कष्टकर, बीहड़ और निर्जन,
मैंने ही वे पत्थर लगाये, जिन्होंने तुम्हें कभी बैठने नहीं दिया,
तुम्हारे मीत के पथ सुहावने और साफ-सुथरे हैं
और वह भी तुम्हारी ही तरह मेरे अंक में आ जायेगा.
किन्तु, मेरे वत्स, तुम्हें तो मुझ तक यह यात्रा करनी ही है.
यही तुम्हारा काम है, जिसमें न सुख है, न गौरव ही मिलता है,
किन्तु, यह किसी और के लिए नहीं, केवल तुम्हारे लिए है,
और मेरे विश्व में इसका सीमित स्थान है, ले लो इसे.
मैं कैसे कहूँ कि तुम यह समझो,
मेरा तो कहना है कि मुझे देखने के लिए नेत्र बंद कर लो.
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13 Comments
bahut hi jaandar kavitayen swamiji ki hain.
सचमुच, अच्छी प्रस्तुति। आभार।
मैंने पहली बार पढीं…:)
आभार पढवाने के लियें ..
aabhar is prastuti ke liye!
किताब का नाम जल्दी में गलत लिख दिया, जब की नाम है विवेकानन्द जीवन के अनजाने सच, प्रकाशक है पेंगुइन बुक्स .
कहा संकलित है यह रचनाएँ बताएँ प्रभात जी, मैने विवेका नंद पर एक प्रेम कविता लिखी है उसमें कुछ फेरबदल कर पाऊ शायद, जैसे शंकर की विवेका नंद के अनछूए पहलू पढ़ कर बहुत कुछ बिलकुल अलग ही बल्कि कहें दुखद ही मिला। मुझे बहुत प्रिय है नरेंद रूप से लेकर विचार तक…
बहुत ही समीचीन और जरुरी आज की मति वृत्ति के लिए
आभार आपका इन रचनाओं से भेंट कराने के लिए ।
… prabhaavashaalee rachaanon kaa chayan … prasanshaneey prastuti !!
नमामि तवम्
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