फ्रैंक हुज़ूर की किताब आई है ‘सोहो: जिस्म से रूह का सफ़र’. पोर्न इंडस्ट्री की हैरतनाक सच्चाइयों से रूबरू करवाती हिंदी में पहली किताब है. इसके आरम्भ में लिखा हुआ है ‘18 वर्ष से अधिक आयु के पाठकों के लिए.’ मेरे जानते यह घोषित रूप से हिंदी की पहली वयस्क किताब है. फ्रैंक हुज़ूर के लेखन का रेंज कई बार चौंकाता है. इमरान खान की जीवनी लिखने से लेकर मुलायम सिंह की जीवनी लिखने तक और यह ‘सोहो’. बहरहाल, इस किताब की समीक्षा मैंने ‘हंस’ के नए अंक में लिखी है. आप लोगों के राय-विचार के लिए- प्रभात रंजन
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यह घोषित रूप से हिंदी की संभवतः पहली ‘एडल्ट’ किताब है. किताब के शुरू में ही लिखा है- ’18 वर्ष से अधिक आयु के पाठकों के लिए.’ ‘सोहो: जिस्म से रूह का सफ़र’ पुस्तक में पहली दिलचस्पी इस वाक्य ने जगाई. पुस्तक मेले के दौरान अपनी कई प्रिय लेखिकाओं-पत्रकारों को मैंने इस किताब से साथ फोटो खिंचवाते देखा. कुछ ने अपनी तस्वीरों को फेसबुक पर भी साया किया. यह ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ के बाद की किताबी दुनिया है, जिस उपन्यास ने स्त्री के नजरिये से सेक्सुअलिटी की दास्तान कहने-सुनने का ट्रेंड शुरू किया. और ऐसी किताबों के प्रति महिलाओं की पारंपरिक झिझक को भी दूर किया. लेकिन ‘सोहो’ की तुलना ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ से यहीं तक. क्योंकि वह एक महिला द्वारा लिखा गया काम-उपन्यास है, जबकि इस किताब के लेखक फ्रैंक हुज़ूर पुरुष हैं और उनकी यह किताब लन्दन से बदनाम मोहल्ले सोहो के कुछ किरदारों के जरिये ‘पोर्न इंडस्ट्री’ के जाने-अनजाने पहलुओं का फर्स्ट हैण्ड ब्यौरा देने का एक प्रयास भर है.
अंग्रेजी में भारतीय उप-महाद्वीप के महान क्रिकेटर इमरान खान की जीवनी लिखने वाले लेखक ने यह किताब हिंदी में लिखी, जिसे साहसिक कहा जायेगा. मैं इसे पढ़ते हुए सोच रहा था कि हिंदी प्रदेशों के तमाम छोटे-बड़े शहरों में फैले रेड लाईट बाजारों के ऊपर सिवाय रंगीले रसीले किस्सों के हिंदी में कोई पाठ्य सामग्री उपलब्ध क्यों नहीं है? मुझे सिर्फ एक उदाहरण याद आता है आबिद सुरती के उपन्यास ‘वासकसज्जा’ का जो मुंबई के मशहूर रेड लाईट एरिया कमाटीपुरा में धंधा करने वाली महिलाओं के जीवन को लेकर है, जो 80 के दशक में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘रविवार’ में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था. लेकिन वह भी उपन्यास था जो मूलतः कल्पना में यथार्थ की मिक्सिंग की विधा है.
‘सोहो’ कई मायने में एक ट्रेंडसेटर किताब है. यह इंसानी दुनिया के उन अँधेरे कोनों की दास्तान कहता है जो हिंदी की दुनिया में अब तक निषिद्ध रहा है. जिसके बारे में जुबानी जुगाली तो की जा सकती है लेकिन उसका लिखित रूहानी सफ़र अभी भी निषिद्ध समझा जाता रहा है. सोहो उस दुनिया की खिड़की खोलने का काम करता है. लन्दन के पश्चिमी छोर पर बसा इलाका सोहो अपने आप में सेक्स इंडस्ट्री का पर्याय बन चुका है, जिसके बारे में लेखक किताब में यह सूचना देता है कि ‘न्युयोर्क से लेकर हांगकांग, फ्लेर्मो और ब्यूनस आयर्स जैसे शहरों में ‘सोहो’ नाम अपना लिए गए हैं. सवाल यह है कि सोहो है क्या?
इसी बात का जवाब देने की कोशिश लेखक फ्रैंक हुज़ूर ने इस साहसिक किताब में की है. सोहो दरअसल सेक्स की एक उद्दाम दुनिया है जहाँ स्त्री-पुरुष होना मायने नहीं रखता है, वहां सिर्फ सेक्स मायने रखता है, हर तरह का सेक्स. गे, लेस्बियन यहाँ सब जायज है. लेखक ने इसे जादू कहा है. ऐसा जादू जिसकी गिरफ्त में कैद यहाँ ‘चार्ल्स डार्विन से लेकर कार्ल मार्क्स, चर्चिल और बिल क्लिंटन क्यों तफरी करने की तमन्ना लेकर भटकते.’ असल में सेक्स की दुनिया महज खोने-पाने की दुनिया नहीं होती, जीत-हार की दुनिया नहीं होती. असीम आनंद की एक ऐसी दुनिया होती है जिसका होना ही पाना है और वही उसका खो जाना.
जादू नहीं मुझे लगता है एक तरह का रहस्य होता ऐसी जगहों का. हाल के दिनों में सनी लियोन के माध्यम से भारत में लोग अच्छी तरह से वाकिफ हो गए हैं कि पोर्न फिल्मों का बाजार, कारोबार क्या होता है. लेखक ने पुस्तक में जानकारी दी है कि पूरी दुनिया में पोर्न फिल्मों का कारोबार करीब 10 अरब डॉलर का माना जाता है. बहरहाल, यह फिर भी एक रहस्य है क्योंकि यह कारोबार उस तरह से खुले में नहीं होता बल्कि यह अँधेरी दुनिया का बाजार है. लेखक ने एक घटना का उल्लेख किया है जब वह दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ा करता था. उन दिनों उसकी दिलचस्पी ड्रामा, सिनेमा, पेंटिंग में थी. उन्हीं दिनों वह अक्सर इस तरह के विज्ञापन अखबारों में देखा करता था कि नए कलाकार चाहिए नई फिल्मों के लिए. एक दिन वे विज्ञापन देखकर उसमें बताये पते पर पहुंचे तो पता चला कि वह पोर्न फिल्म की दुनिया में पहुँच गया था. मुझे लगता है उस रहस्य से साक्षात्कार होने के बाद पोर्न फिल्मों के रहस्य की ओर लेखक की दिलचस्पी हुई होगी और वह दिलचस्पी उनको सोहो तक ले गई होगी.
बहरहाल, फ्रैंक ने साशा, मिशेल, सुजान, एम्मा, क्लार्क आदि पोर्न इंडस्ट्री के माहिर कलाकारों के माध्यम से पोर्न इंडस्ट्री के अलग-अलग तरह की चुनौतियों, उसके अलग-अलग तरह के मसाइलों से रूबरू करवाने की पूरी कोशिश की है. और इसमें कोई शक नहीं सेक्स को लेकर, सेक्स के व्यापार को लेकर कई तरह की जिज्ञासाओं के समाधान इस पुस्तक में हो जाते हैं. इस सवाल का भी एक जवाब इस किताब में मिशेल के माध्यम से मिलता है कि आखिर पोर्न क्यों? उसका बच्चों पर खराब असर नहीं पड़ता क्या? मिसेल बड़ी हैरानी से जवाब देती है- ‘मासूम बच्चे जब बिन लादेन के वीडियो देखते हैं और वीडियो गेम खेलते हैं तब उनका दिमाग खराब नहीं होता और जब उनकी आँखों एक समंदर में हमारा सेक्सुअल एक्ट आ जाए तो जलजला आने लगता है.’
यह एक ऐसा सवाल है जो बतौर पाठक मेरे दिमाग में लगातार बना रहा और आज भी बना हुआ है कि हम ऐसे युग में आ गए हैं जिसमें बहुत कम उम्र में बच्चों की उँगलियों की एक हरकत से दुनिया के बड़े बड़े रहस्य उसके सामने ऐसे खुलने लगते हैं जैसे अलादीन के चिराग के खुलने से मनचाही मुराद पूरी ही हो जाया करती थी. एक जमाने तक जन बातों का बच्चों को घर परिवार में कोई माकूल जवाब नहीं मिल पाता था आज इंटरनेट पर एक क्लिक से मिल जाया करता है. ऐसे में सेक्स के बारे में दबाव-छिपाव का पुराना नजरिया बदला जाना चाहिए. यही समय की मांग है. केवल बच्चे ही क्यों इंसानी जीवन के इस सबसे बड़े रहस्य, इस सबसे बड़े सुख समझी जाने वाली चीज के बारे में हम सबकी जानकारी भी आधी अधूरी ही बनी रह जाती है. आज भी तमाम खुलेपन के बावजूद इंसानी जीवन वर्जनाओं का पुंज बनकर रह गया है. इसमें कोई शक नहीं कि सोहो जैसी किताबें हमारे मन के कुछ अँधेरे कोनों तक थोड़ी बहुत रौशनी पहुंचाने का काम करती है. नहीं, मैं सेक्स शिक्षा की बात नहीं कर रहा बल्कि सेक्स को अन्य विषयों की तारः आम तौर पर देखे जाने की बात कर रहा हूँ.
इस किताब को पढ़ते हुए यह बार-बार लगा कि यह महज सोहो नामक उस स्थान के ऊपर लिखी गई किताब नहीं है, जो लन्दन का एक इलाका है, बल्कि उसके कलाकारों, सेक्स के बहाने दुनिया भर में फैले सेक्स के बाजारों की सैर कराने वाली पुस्तक है. जिसमें गे और लेस्बियन सेक्स के बाजारों के बारे में भी विस्तार से बताया गया है. और कुछ किरदारों के माध्यम से दुनिया के कुछ मशहूर हस्तियों की सेक्स आदतों से जुड़े कुछ किस्से, जो इस पुस्तक को एक अलग किस्म का रंग देते हैं- ‘म्युनिच में हिटलर के गर्दिश के दिनों का एक खास साथी था जिसे इतिहास एर्नस्ट हन्फ्सतेंगल के बनाम से जानता है. उसकी राजदारी उसे ये कह रही थी कि हिटलर न तो पूरी तरह से होमोसेक्सुअल था और न ही हेट्रोसेक्सुअल. एर्नस्ट का ऐलान चौंकाने वाला है, ‘हिटलर इम्पोतेंट, नपुंसक था. उसकी जांघों के बीच जो ऊष्मा थी उसमें लपटें हरगिज़ नहीं थी. वो सिर्फ मास्टरबेट करने वाला एक फ़ोर्सलेस और गटलेस लोनर था.’ इस तरह की दिलचस्प कहानियां पुस्तक को कुछ और रसदार बनाती हैं.
यह सवाल फिर भी रह जाता है कि इस तरह की किताब की क्या जरूरत है? एक ज़माना था जब ‘ट्रोपिक ऑफ़ कैंसर’ और ‘ट्रोपिक ऑफ़ कैप्रिकोर्न’ जैसी किताबें यूरोप, अमेरिका के मुक्त समाज में भी प्रतिबंधित कर दी जाती थी. हमारे यहाँ नेहरु-काल में भी डी. एच. लॉरेंस के उपन्यास को प्रतिबंधित कर दिया जाता था. अश्लील लेखन के लिए मंटो पर बाकायदा मुकदमा चला था. वह नैतिकता का ज़माना था जब यह माना जाता था साहित्य का काम समाज अच्छे मूल्यों का प्रसार करना है, बेहतर नागरिक तैयार करना है. हाल के दशकों किसी किताब को इसलिए प्रतिबंधित नहीं किया गया कि उसमें सेक्स का उद्दाम वर्णन है. बल्कि ऊपर मैंने जिक्र भी किया था कि ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ जैसे उपन्यास को पढना फैशन स्टेटमेंट माना गया. इस बात को लेकर बहस चली कि यह महिला द्वारा महिलाओं के लिए लिखा गया पोर्न है.
बहरहाल, बात ‘सोहो’ की हो रही है. यह एक संजीदा लेखक की किताब है, जिसे लिखने के लिए न उसने मस्तराम जैसा कोई छद्म नाम अपनाया है न ही इंटरनेट के दौर में सविता भाभी जैसा कोई किरदार खड़ा किया है. और इसे छापने वाला प्रकाशक हिंदी युग्म आज हिंदी में नए तरह के पाठकवर्ग पैदा करने वाली किताबों के प्रकाशक के रूप में जाना जाता है. निश्चित तौर पर इस खुलेपन का स्वागत होना चाहिए. अच्छे-बुरे का सेंसर लागू करने का ज़माना नहीं है यह. फिर भी कुछ बातें हैं. एक जो जरूरी बात मुझे इस पुस्तक के सन्दर्भ में कहनी है वह यह कि पूरी किताब पढ़कर दुनिया भर में पोर्न इंडस्ट्री और उनके कारोबार के बारे में पता चल जाता है मगर सोहो के बारे में ठीक से समझ नहीं आता. अलबत्ता उसके जादू और जादू जगाने वाले किरदारों के बारे में दिलचस्प जानकारियाँ मिलती हैं. लेकिन हम यकीन के साथ यह नहीं कह सकते कि आप इस एक किताब को पढ़कर सोहो नाम के उस मोहल्ले के बारे में सब कुछ जान गए हैं. उसका रहस्य पुस्तक पढने के बाद भी बरकरार रहता है. जो कई सदियों से बना हुआ है. रहस्य है तभी तो सोहो है, वरना क्या रखा है साकी तेरे मैखाने में…
एक जरूरी बात किताब के प्रस्तुतीकरण को लेकर. मुझे सबसे अधिक आपत्ति इस किताब के कवर को लेकर है. इसके कवर पर नग्न चित्र आपत्तिजनक तो नहीं मगर पुस्तक के कंटेंट को कहीं न कहीं हल्का जरूर बना देता है. पुस्तक के अंदर बहुत संजीदगी से, बड़ी बारीकी से पोर्न इंडस्ट्री के कार्यव्यापार के बारे में लेखक ने बताया है, दुर्भाग्य से किताब का कवर कुछ और इशारे करता है. यही बात किताब के अंदर प्रकाशित चित्रों को लेकर कही जा सकती है. इंटरनेट और गूगल बाबा के इस दौर में चित्रों में ऐसा कुछ भी नहीं लगता जो इस किताब को विश्वसनीय बनाने में मदद करता हो. यह कुछ ऐसी बात हुई जैसे पुराने बोतल में नई शराब.
यह एक ‘कल्ट’ किताब हो सकती थी, जो नहीं हो पाई. लेकिन जिस रूप में यह हमारे सामने है उसका स्वागत किया जाना चाहिए. हिंदी का दबा छुपा माहौल बदले, खुलापन आये, निषिद्ध समझे जाने वाले विषयों को लेकर चर्चा हो इस उद्देश्य में यह किताब सफल कही जा सकती है. और इसे लिखने के लिए फ्रैंक हुज़ूर बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने हिंदी-उर्दू के कॉकटेल में अंग्रेजी का मौकटेल मिलाते हुए एक रसदार किताब लिखी है.