इस साल युवा कविता का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार आस्तीक वाजपेयी को उनकी कविता ‘विध्वंस की शताब्दी’ के लिए देने की घोषणा हुई है. यह लम्बी कविता मनुष्य के अस्तित्व से जुड़े सवालों को उठाती है. आस्तीक की यह कविता बने बनाए आग्रहों, बने बनाए शिल्पों का ध्वंस भी करती है. इस कविता की प्रश्नाकुलता प्रासंगिक है. भाइयों एवं बहनों इस कविता को बिना पढ़े पुरस्कार पर खूब हो-हल्ला हो गया, अब कविता पढ़िए और आस्तीक को उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं दीजिए- मॉडरेटर.
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विध्वंस की शताब्दी
इस शताब्दी के आगमन पर
काल प्रवाह ने मनुष्य देख,
तुझे क्या बना दिया है
मैं अपनी आहुति देता हूँ,
मैं मर गया हूँ और
मेरे श्राद्ध पर अनादरपूर्वक आमन्त्रित हैं
सब जीव-जन्तु, पुष्प और पत्थर।
मेरे देवताओं, पीछे मत छूट जाना
ऐसा इसलिए हूँ क्योंकि तुमने ऐसा बनाया है
मैं रूख़सत लेता हूँ अपने अनुग्रहों से और
वासना और लोभ और आत्मरक्षा के व्यर्थ विन्यासों से
और अपने किंचित व्यय से।
शुरू में कुछ नहीं था।
फिर हिंसा आयी
रक्त की लाल साड़ी पहने
हमारे समय में सफलता की शादी हो रही है
आओ हिंसक पुरुषों और बर्बर राजनेताओं
समय उपयुक्त है और यह समय ऐसा हमेशा से था, याद रखना।
तुमने इसे भी नहीं बनाया है
तुम भोले जानवरों को भी
मूर्ख नहीं बना पाये हो
लेकिन यह सही है
कि श्मशान अब नये उद्यान बन गये हैं।
मुझे सड़क से भय है
जहाँ इतने सारे मनुष्य
और जीव और अपमानित अनुभूतियाँ रहती हैं।
गाड़ी की खिड़की के बाहर
हम सब में समय और आकांक्षा और प्रतिद्वंद्विता
और विफल सपनों के भीतर मर्यादाहीन लिप्सा
और क्रूरता और अहंकार,
(पंक्ति के अन्त में खड़े हो जायें,
जैसे पता ही है आपको
यहाँ अपमान समय लेकर हो पाता है।)
और महाभारत के यक्ष और स्तब्ध गायें
और लाचार महिलाएँ और बनावटी चित्रकार …
कुर्ता नया प्रचलन है,
कविता हो न हो कुर्ता होना चाहिए,
कविता का यह सत्य है।
संकोच की तरह सच,
प्रमाण की तरह सच,
आदर की तरह सच,
दुःख की तरह सच,
झूठ की तरह सच।
बोलो कि मैं निर्दोष हूँ
और फिर और ज़ोर से बोलो
क्योंकि जेल के अन्दर की
पिटाई दिमाग में होना शुरू हो गयी है।
परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओ
क्योंकि सफलता या कम से कम सफलता की गुंजाइश
परीक्षा का कवच पहने खड़ी है,
सम्भोग कवच उतार कर होगा।
हिंसा के बाद मशीन आयी
और अनन्तकाल से बेख़बर मनुष्य को
पता चला पहली बार कि वह बेखबर था।
अच्छा हुआ कि खुशी का जादू
लम्बी गाड़ी और अच्छे जूतों में मिल गया
आखिर गांधी और बुद्ध और युधिष्ठिर
आत्म-प्रश्न में तो डूबे ही थे,
क्या मिल गया?
जूते की चमक के ऊपर
टेसू के पेड़ में
फूल नहीं अँतड़ियाँ और गुर्दे
उग रहे हैं,
इन्हें निचोड़ लेते हैं,
होली आने वाली है।
जब ज़मीन पर हाथ रखते हैं बुद्ध हर बार,
तो वह पूछती है यदि सत्य है
तो पूछते क्यों हो।
क्योंकि मैंने कोशिश की है
और समझ नहीं पाया हूँ
कि फल और कर्म क्यों मिल जाते हैं
मनुष्य के सपने में,
क्योंकि मैं नहीं समझ पाता कि जीवन की
अर्थहीनता सहते हुए भी रोज़मर्रे की निराशा क्यों तोड़ देती है,
क्योंकि मृत लोगों की आकांक्षाओं का भार भी
न उठा पाने के कष्ट को संतोष से
ढँकना कठिन हो रहा है,
क्योंकि अपनी उम्मीदों के टोकरे को
सिकोड़ कर मैंने एक अंगूर बना दिया है
वह जब सड़ जायेगा, तो इसकी शराब पीते हुए
देखूँगा कि क्या अन्य भाग गये हैं
यह कहकर – ‘पता नहीं ऐसा क्यों हुआ?’
मुझे बेचारा मत कहो बेचारों,
मुझे मृत कहो,
मृत्यु ही पिछली शताब्दी की
सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है,
तुम रुककर देखो अपने दुःख दूसरों के आँसुओं में
और जानो कि परिष्कार यही है।
हिंसा की मशीन बत्ती जाने पर
और तेज़ चलती है
और अकारण विश्वयुद्धों में
करोड़ों का नरसंहार वह खेल था
जो प्रकृति ने रचा था
यह बतलाने के लिए कि मूलतः
कुछ नहीं बदलता और मनुष्य
हर क्षण बदलता रहता है।
मशीन के बाद शक्ति आयी
और याद रखो कि सत्य को जो मार पाये
वह बड़ा सत्य होता है,
हमें एतराज़ है उन लोगों से
क्योंकि भिन्न सोचते हैं
हिम्मत का प्याला सबसे पहले हमारे पास आ गया था
और हमने ही सबसे ज़्यादा पिया है
ज्ञान वही है जो हमें हो, प्रेम वही जो हमसे हो
क्योंकि लोग यदि मुझे पसन्द करेंगे
तो मैं सच हूँ।
या कम से कम वह हूँ
जो सच का उत्स है, आधार हैं,
जैसे सूरज रोशनी का इस ब्रह्माण्ड में।
मुझे नहीं पता सच क्या है,
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