२०११ के साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता काशीनाथ सिंह से आज कवयित्री आभा बोधिसत्व की बातचीत- जानकी पुल.
आप को साहित्य आकादमी पुरस्कार मिला है आपके उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’को, लेकिन क्या यह आप की प्रिय रचना भी है?
नही मेरी प्रिय रचना तो ‘काशी का अस्सी’ है,ऐसे ‘रेहन पर रग्घू’को भी मैं कमतर नहीं मानता। काशी का अस्सी इसलिएभी मुझे प्रिय है क्योंकि उसमें मेरा पूरा व्यक्तित्व, जिंदादिल मस्ती, आवारगी यह सारी चीजें उभरकर आती हैं।वह पूरा उपन्यास अपने शिल्प मे भी अलग है।
आपके पात्र बहुत ‘गल्प प्रिय’ हैं, बतियाना जानते हैं, इनका चयन कैसे करते हैं?
एक तो यह कि चूंकि मैं बहुत कम बात करता हूँ, इसलिए पात्र ज्यादा बात करते हैं।दूसरा मेरा स्वभाव दूसरों को सुनने का और खुद कम बोलने का है । और बातों से ही पात्रों का चरित्र खड़ा होता है।मै उन्हें जीवित उनके वार्तालाप और क्रियाओं से ही करता हूँ।ये चीजें पात्रों के मनोजगत को ज्यादा मुकम्मल तरीके से व्यक्त करती हैं।
आपके कथा साहित्य में अचानक ही गल्प–गल्प का नया संसार उद्घाटित हुआ है।साधारण कथा लेखक कीजगह एक किस्सागो सामने आया है?
इसकी वजह है कि मैं गाँव का आदमी हूँ, लोककथाएँ बचपन में बहुत सुनी हैं, मेरे कथाकार की रचना भी वहीं से हुई है। आगे पढ़ना भी हुआ तो जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कथाएँ या पौराणिक साहित्य मुझे ज्यादा प्रिय रहे हैं। कहानी कहन की शैली पर लगभग उनका ही प्रभाव है।
शीर्षको का चुनाव कबीर के पदों से करने के पीछे कोई खास वजह, एक कबीर ही क्यों,सूर हैं, तुलसी हैं, भारतेंदु है, प्रसाद हैं इनसे क्यों नहीं?
ऐसा केवल ‘काशी का अस्सी’ में हुआ है। काशी को कबीर का संस्कार मिला है। गली-मुहल्ले में उनके दोहों के टुकड़े सुनाई पड़ जाते हैं और सबसे बड़ी बात वे किसी धर्म या सम्प्रदाय से नहीं हैं। ज्यादातर उनकी उक्तियाँ बेलाग, दो टूक और डंके की चोट पर कही गई है। कहीं न कहीं ये बातें मेरे अपने स्वभाव से मेल खाती हैं।उनमें न तो धर्म की बू है न जात-पात की गंध।
इस बीच आपने कहानियाँ कम लिखी हैं, क्यों ?
मैंनें सन् 86के बाद से कहानियाँ लिखनी लगभग बंद कर दी थी।‘याद हो कि न याद हो’के संस्मरणों में मैंनें लिखा था कि कहानियों से मेरी बोल-चाल नहीं है। इस दौरान मेरा ध्यान संस्मरणों और रिपोर्ताजों की ओर था। उनका फलक भी कहानियों से कहीं व्यापक है, मुझे स्वयं लगता था कि कहानियाँ मेरे व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं हो रही हैं। यह मेरी अपनी कमजोरी थी। लेकिन पिछले साल भर से मेरी दृष्टि कहानियों पर गई है। ‘तद्भव’ पत्रिका के पिछले अंक में नई सज-धज के साथ मेरी दो कहानियाँ आई हैं। ‘खरोच’ और ‘पायल पुरोहित’ उनके शीर्षक हैं।अभी अभी दिसम्बर के तद्भव में मेरी लम्बी कहानी आई है जिसका शीर्षक है ‘महुआचरित’। इस समय वह चर्चित और विवादित है।
काशी के लेखन में काशी की यानी बनारस की क्या भूमिका है, अगर आप मिर्जापुर में होते या मुरादाबाद में होते तब भी यही लेखन, भाषा, भावसंरचना होती?
नहीं। किसी और नगर में होते तो यह न होता। काशी ने मुझे लिखने और भाषा का संस्कार दिया है। भारतेन्दु, गुलेरी जी जैसे लेखको से मुझे वह भाषा मिली है जो गंभीर से गंभीर बात को भी हंसी में व्यक्त करने में सक्षम है, वह हर गली, नुक्कड़ और फुटपाथ की जुबान है। गालियों की ताकत मैनें यहीं से सीखी। शब्दों में धार देना और पैनापन लाना भी यही से जाना । यहाँ की जिन्दगी में जो मस्ती, फक्कड़ी ठहाके और बिंदासपन है वह अनायास ही मेरे लेखन में चला आता है। उसके लिए मुझे अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
‘काशी का अस्सी’ पर बन रही फिल्म से आप कितने संतुष्ट या कितने असंतुष्ट है, क्या आपकी कहानी के साथ न्याय हो रहा है?
संतोष या असंतोष की बात तो फिल्म दिखाई जाने के बाद ही होगी। फिलहाल मैं यह मानता हूँ कि काशी का अस्सी जैसे मेरी रचना है, वैसे ही ‘मोहल्ला अस्सी’निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी की रचना। दोनों की रचनाओं में औजार अलग अलग हैं, लेकिन चंद्रप्रकाश द्विवेदी के काम करने का मैं कायल हूँ। लिखने में उन्होने बड़ी मेहनत की है। मैने उन्हें रात-दिन काम करते हुए भी देखा है।उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि स्क्रिप्ट में उपन्यास की आत्मा सुरक्षित रखी गई है।जिस संजीदगी से कलाकारों ने काम किया है, वह भी मैंने देखा है। कलाकारों ने स्वयं बताया है कि निर्देशक द्विवेदी के काम करने का तरीका उन निर्देशकों से अलग है जिनके साथ वे काम कर चुके हैं।निर्माण की पूरी प्रक्रिया में द्विवेदी जी पर अविश्वास करने का मुझे कोई कारण नहीं दिखाई देता।
आपके लेखन पर आपका अध्यापक कभी हावी नहीं रहा, आपमें प्रोफेसर कभी नहीं दिखा, क्या यह ठाट कबीराना है?
यह तो दूसरे बताएँगे कि यह ठाट कबीराना है या नही,मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि जब युनिर्वसीटी में प्रोफेसर हुआ तो सोचा कि यह पेशा तो जीविका के लिए है। जीवन के लिए क्या है,जीवन तो सिर्फअपने पेशे तक नहीं सीमित किया जा सकता। मैं अपनी निर्मिति में बुनयादी तौर पर लेखक हूँ,प्राध्यापक नहीं।मैं प्राध्यापक विश्वविद्यालय की चारदीवारी के भीतर ही हूँ। चारदीवारी के बाहर दर्शनशास्त्र मेरा रचना संसार था। फुटपाथ, सड़क, बाजार, गलियों, आदि में मेरे रचनाकार की दुनियाँ थी। मैं वहाँ ज्यादा सहज और बिंदास महसूस करता था। वहाँ मैने कभी जाना ही नहीं कि मैं अध्यापक हूँ। यही वजह है कि मोची से लेकर बाजार और चक्की तक जिस तरह के खुलेपन से मुझसे पेश आते रहे हैं वहीं से मेरे कथाकार की खुराक मिलती रही है। विद्वानों और आचार्यों की संगत आज भी मुझे बड़ी दमघोटू लगती है।मैं वहां से भाग खड़ा होना चाहता हूँ।
एक ही घर में दो साहित्य अकादमी पुरस्कार। पहले बड़े भाई नामवर सिंह जी और अब आप को। कैसा लग रहा है ?
बहुत अच्छा लग रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि भईया को उनके यौवन में मिला और मुझे बुढ़ापे में।हालाकि मेरे पाठक मुझे बूढ़ा कभी नहीं मानते।
इन दिनों क्या लिख रहे हैं संस्मरण, आख्यान या गल्प?
इन दिनों मैं कहानियों पर काम कर रहा हूँ, मेरे दिमाग मेरे एक लम्बी कहानी की योजना चल रही है।
भविष्य की कुछ खास योजना अपने पाठकों से शेयर करना चाहेंगे?
पहली बात तो यह कि मैं भविष्य की योजना किसी को नहीं बताता। मैं चोर किस्म का लेखकहूँ। यह नहीं बताऊँगा कि भविष्य में सेध कहाँ मारूँगा।
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